राजनीति का षड्यंत्र के साथ कितना गहरा नाता है इसे समझना अधिक कठिन नहीं है। आप इतिहास के पन्नों को पलटेंगे तो षड्यंत्रों से सनी राजनीति के कई उदाहरण देखने को मिल जाएंगे। परंतु किसी की मृत्यु पर भी षड्यंत्र किया गया हो तो सोचिए कि कितनी निचले स्तर की राजनीति की गयी होगी। इसमें विशेष ये है कि ऐसी गिरी हुई राजनीति सिर्फ गांधी परिवार ही कर सकता है। दरअसल, हम बात कर रहे हैं स्वर्गीय पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की मृत्यु के बाद हुए षड्यंत्र के बारे में। गांधी परिवार की राजनीति का यह एक ऐसा शर्मनाक सत्य है जो हमें बताता है कि लोग सत्ता के लिए कितना नीचे गिर सकते हैं।
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मृत्यु के बाद शुरू हुई घिनौनी राजनीति
23 दिसंबर 2004 को रात 11 बजे नई दिल्ली स्थित एम्स अस्पताल में पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव अंतिम सांसें लेते हैं और करीब ढाई बजे उनका शव अस्पताल से उनके आवास 9 मोती लाल नेहरू मार्ग लाया गया। उस समय राव के 8 बेटे-बेटियां, आध्यात्मिक गुरु चंद्रास्वामी और परिवार के अन्य लोग घर पर मौजूद थे। यही वो क्षण था जिसके बाद नरसिम्हा राव के शव के साथ घिनौनी राजनीति शुरू हुई।
दरअसल, तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल के द्वारा नरसिम्हा राव के छोटे बेटे प्रभाकर को सुझाव दिया गया कि राव साहब के शव को मुखाग्नि हैदराबाद में दी जाए। परंतु प्रभाकर इस प्रस्ताव को ठुकरा देते हैं और शव को दिल्ली में ही मुखाग्नि देने पर अड़ जाते हैं। जब प्रभाकर और उनके भाई बहन इस बात को नहीं स्वीकारते हैं तो थोड़ी देर बाद कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी के एक और करीबी गुलाब नबी आजाद 9 मोती लाल नेहरू मार्ग पहुंचे। उन्होंने भी राव साहब के परिवार के लोगों से शव को हैदराबाद ले जाने की अपील की। इसी बीच प्रभाकर का फोन बजा और दूसरी तरफ आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता वाईएस राजशेखर रेड्डी थे। उन्होंने प्रभाकर से संवेदना व्यक्त करते हुए कहा कि “मैं दिल्ली पहुंचने वाला हूं, हम शव को हैदराबाद लाएंगे और यहां पूरे सम्मान के साथ अंतिम संस्कार करेंगे।”
इस ड्रामा की पटकथा को लिखने वालीं सोनिया गांधी शाम 6:30 बजे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कद्दावर कांग्रेसी नेता प्रणब मुखर्जी के साथ 9 मोती लाल नेहरू मार्ग स्थित नरसिम्हा राव के आवास पर पहुंचती हैं। विनय सीतापति अपनी किताब ‘द हाफ लायन’ में लिखते हैं कि कुछ सेकेंड मौन रहने के बाद मनमोहन सिंह ने राव के बेटे प्रभाकर से पूछा, ‘आप लोगों ने क्या सोचा है? ये लोग कह रहे हैं कि अंतिम संस्कार हैदराबाद में होना चाहिए।’ प्रभाकर ने कहा, ‘दिल्ली उनकी कर्मभूमि थी। आप अपने कैबिनेट सहयोगियों को यहां अंतिम संस्कार के लिए मनाइये।’ सीतापति के अनुसार, इसके बाद मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) के बगल में खड़ी सोनिया गांधी कुछ बुदबुदाईं और कुछ समय रुकने के बाद वहां से चली गईं।
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जब कांग्रेस कार्यालय का गेट नहीं खुला
तमाम मान-मुनव्ल और दिल्ली में नरसिम्हा राव का मेमोरियल बनवाने के आश्वासन के बाद जब राव के बेटे-बेटियां शव को हैदराबाद ले जाने के लिए तैयार हुए तब भी प्रधानमंत्री राव के शव को उस सम्मान के साथ विदा नहीं किया जिसके वे हकदार थे। उदाहरण के लिए 24 दिसंबर के दिन जब तिरंगे में लिपटा नरसिम्हा राव का शव दिल्ली से हैदराबाद की ओर रवाना हो रहा था तब उनके परिवार के लोगों ने निर्णय किया कि एयरपोर्ट पहुंचने से पहले शव को कुछ समय के लिए कांग्रेस मुख्यालय में रखा जाए। यही वह स्थान था जहां राव ने देश की राजनीति में होने वाले परिवर्तनों को देखा था। परिवार की इच्छा अनुसार राव के शव को ले जा रही तोप गाड़ी 24 अकबर रोड यानी सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के आवास से सटे कांग्रेस मुख्यालय के पास रोक दी गई। कांग्रेस कार्यालय का दरवाजा बंद था और वहां चुप्पी साधे सभी कांग्रेसी नेता मौजूद थे क्योंकि कठपुतली का खेल तो पास में सटे 24 अकबर रोड यानी सोनिया गांधी के आवास से खेला जा रहा था। सोनिया गांधी और तमाम बड़े नेता विदाई देने के लिए तो आए लेकिन कांग्रेस कार्यालय का दरवाजा नहीं खोला गया।
राव परिवार को यह उम्मीद नहीं थी कि प्रधानमंत्री रहे नरसिम्हा राव के शव के साथ इस तरह का व्यवहार किया जाएगा। अंत में गाड़ी आधा घंटे रुकने के बाद एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गई। गाड़ी शव को लेकर रवाना तो हुई और गांधी परिवार का कांग्रेस पर आधिपत्य भी जस का तस रहा लेकिन सवाल ये है कि, क्या भारत के प्रधानमंत्री रहे किसी नेता के शव के साथ इस तरह का दुर्व्यवहार करना और सिर्फ इसलिए कि वो गांधी परिवार के आधिपत्य को स्वीकार नहीं करता था, उचित है? कहा जाता है कि राजनीति में आपके आपसी मतभेद कितने भी रहे हों लेकिन किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके शव को सहसम्मान विदाई देना आपका दायित्व और बड़पन्न दर्शाता है। परन्तु यहां तो गांधी परिवार की कुंठित मानसिकता और स्वार्थ देखने के लिए मिलता है।
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सोनिया गांधी और नरसिम्हा राव में अनबन
तमाम कहानी और संवेदनाएं यदि एक ओर रख दी जाए तो इतिहास के पन्ने बार-बार एक ही प्रश्न करते हैं कि आखिरकार पीवी नरसिम्हा राव का अंतिम संस्कार दिल्ली में क्यों नहीं किया गया? इसका उत्तर 1992 में तिरुपति में हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन से मिलता है। दरअसल, राजीव गांधी की हत्या के बाद जब कांग्रेस की कमान संभालने की बात आई तो राजनीतिक संन्यास की ओर अग्रसर पीवी नरसिम्हा राव को चुना गया। शुरुआत में पीवी नरसिम्हा राव और गांधी परिवार के बीच संबंध अच्छे थे। परन्तु 1992 में तिरुपति में हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन के बाद स्थितियां बदलने लगीं। इस अधिवेशन की अध्यक्षता करने वालों में नरसिम्हा राव पहले ऐसे व्यक्ति थे जो गांधी-नेहरू परिवार से बाहर के थे।
वहीं 1992 में जब बाबरी विध्वंस की घटना हुई तो उस पर सोनिया गांधी ने अपने बयान के माध्यम से नाराजगी प्रकट की। उनकी इस टिप्पणी पर नरसिम्हा राव ने तो कुछ नहीं कहा परंतु उन्होंने सोनिया गांधी के आवास पर नजर रखना शुरू कर दिया और इसके लिए इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) को भी लगाया। क्योंकि राव को सोनिया के करीबियों पर संदेह हो गया था। अधिवेशन के बाद से ही कांग्रेस के कुछ नेता अहमद पटेल, अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह राव की शिकायतें लेकर सोनिया गांधी के घर 10 जनपथ पर जाने लगे और उनके कान भरने लगे थे। इस तरह राव के विरुद्ध कांग्रेस में एक गुट तैयार होने लगा।
सोनिया भी कांग्रेस की कमान को हाथ से फिसलता देख नरसिम्हा राव से दूरी बनाने लगीं। आपसी संबंधों में आई खटास जग जाहिर तब हुई जब सोनिया गांधी ने अमेठी पहुंचकर राजीव हत्याकांड की चल रही जांच को लेकर सवाल खड़े करना शुरू किए। अमेठी में उन्होंने कहा कि मेरे पति की मृत्यु हुए चार साल हो गए हैं लेकिन अभी भी जांच उस गति से नहीं चल रही है जिस गति से चलनी चाहिए। बस फिर क्या था “राव हटाओ सोनिया लाओ के नारे लगने लगे। ये सोनिया गांधी की पहली रैली थी, जिसमें सीधा मोर्चा राव के खिलाफ था।
इसका रैली का परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस दो भागों में विभाजित हो गई एक राव के साथ और एक राव के खिलाफ। नरसिम्हा राव के अध्यक्ष रहने के दौरान कांग्रेस को गांधी-नेहरू से अलग कर देखा जाने लगा था। परन्तु यह सब अधिक दिनों तक न चल सका। 1996 में जब कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ तो सीताराम केसरी को अध्यक्ष चुन लिया गया और 1998 में खुद सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान को संभाल लिया। नरसिम्हा राव की ऐसी स्थिति हो गई कि 1999 के लोकसभा चुनाव में टिकट तक नहीं दिया गया।
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वहीं जब वो बीमार पड़े तो बहुत कम ऐसे कांग्रेसी थे, जो उन्हें देखने के लिए उनके घर 9 मोतीलाल नेहरू मार्ग पर पहुंचे। यही कारण था कि 23 दिसंबर, 2004 को जब नरसिम्हा राव की मौत हुई तो न तो उनका शव कांग्रेस मुख्यालय तक पहुंचाया गया और न ही दिल्ली में उनका अंतिम संस्कार करने दिया गया। इसके अलावा मृत्यु के बाद नरसिम्हा राव के साथ हुए इस प्रकार के दुर्व्यवहार के लिए कांग्रेस के अंदर और कांग्रेस के बाहर भी लोग यही मानते हैं कि इस निर्णय के लिए सिर्फ सोनिया गांधी जिम्मेदार हैं। यही नहीं उन्होंने निजी दुश्मनी इस हद तक निभाई कि प्रधानमंत्री के अंतिम संस्कार में भी शामिल होना उचित नहीं समझा।
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