कहते हैं कि पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आता है लेकिन इन दिनों भारत का एक पड़ोसी देश मालदीव बड़ी ही पशोपेश में है। उसकी मध्यम मार्ग की नीति ही उसके लिए घातक सिद्ध होती जा रही है। एक ओर जहां वह भारत के साथ अपने संबंधों को बेहतर बनाए हुए है तो वहीं दूसरी ओर चीन के साथ भी गठजोड़ किए हुए है। अब दो नाव पर सवार होकर चलने वालों की नियति तो डूबना ही होता है ऐसे में अगर मालदीव को स्वयं को बचाना है तो उसे एक रास्ता तो अपनाना ही होगा। प्रश्न यह है कि वह एक रास्ता चीन की तरफ जाता है या फिर भारत की तरफ?
इस लेख में जानेंगे कि क्यों मालदीव के सामने दो ही विकल्प हैं या तो वह भारत के साथ हो ले या फिर चीन के जाल में फंसकर अपने विनाश के लिए तैयार हो जाए।
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एमडीपी की मध्यम मार्ग की नीति
मालदीव एक हजार से अधिक छोटे-छोटे टापुओं वाला देश है और भारत से लगभग 1200 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और वहां पर अभी मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) की सरकार है, जिसका नेतृत्व राष्ट्रपति ‘इब्राहिम मोहम्मद सोलिह’ कर रहे हैं। एमडीपी मध्यम मार्ग के विचार पर चलने वाली पार्टी है। एक ओर वह चीन के साथ भी डील करती है तो वहीं दूसरी ओर भारत के साथ भी अपने संबंधों को अच्छे बनाए रखना चाहती है। लेकिन अब समय आ गया है जब मालदीव की सरकार को भारत और चीन में से किसी एक को चुनना ही होगा। हम ऐसा क्यों कह रहे हैं, आइए इसके पीछे कारणों को समझते हैं।
सिविल वॉर
‘प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव’ मालदीव की प्रमुख विपक्षी पार्टी है और वह 2018 से पहले सत्ता पर काबिज थी। लेकिन सत्ता से बाहर होने के बाद पीपीएम नेता और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्लाह यामीन मालदीव में लगातार भारत की मौजूदगी पर सवाल उठाते हुए भारत विरोधी कैंपेन चला रहे हैं। उनका कहना है कि भारत के सैन्य अधिकारी और उपकरणों को हटाया जाए। यही नहीं अभी कुछ दिनों पहले ही ‘पीपीएम’ के एक नेता अब्बास आदिल रीज़ा ने ट्वीट कर भारतीय उच्चायोग में आग लगाने की अपील भी की थी।
ފެބުރުއަރީ 8 ގައި އިންޑިޔާގެ އޯޑަރަށް އައްޑޫގައި ހުޅުޖެހީ. އެކަމުގެ ބަދަލު އަދި އޮތީ ނުހިފި. އެމްބަސީން ފަށަން އަޅުގަނޑަށް ފެންނަނީ. #IndiaOut pic.twitter.com/0RFjLTxNJT
— Abbas Adil Riza (@AbbasRiza) December 23, 2022
जिसके बाद वहां के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा था कि भारत को लेकर फैलाए जा रहे झूठ और घृणा को लेकर सरकार चिंतित है। लेकिन सिर्फ चिंता जता देने और ट्वीट करने मात्र से यह मामला नहीं सुलझने वाला है क्योंकि ‘पीपीएम’ 2018 से पहले जब सत्ता में थी तब वो चीन से बड़ी मात्रा में सहायता लेती रही है और स्पष्ट कहें तो भरभरके कर्ज ले रही थी। इसलिए यह कोई बड़ी बात नहीं है कि मालदीव में भारत विरोधी माहौल तैयार करने के लिए पीपीएम को चीन सहायता दे रहा हो। हालांकि पीपीएम को मालदीव की जनता और दूसरी विपक्षी पार्टियां उतना भाव नहीं दे रही हैं लेकिन वहां की सरकार को इस बात पर ध्यान तो देना ही चाहिए। इतना ही नहीं सरकार को पीपीएम जैसी हिंसा फैलाने वाली पार्टीयों पर कार्रवाई भी करनी चाहिए। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब आपस में झगड़ते झगड़ते इस देश में सिविल वॉर जैसे हालात बन जाएं।
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चीन के साथ जाना घातक
अब दूसरी स्थिति पर ध्यान देते हैं- चीन जो एक शिकारी देश है, वह पहले चारा डालता है और फिर शिकार करता है। उदाहरण के लिए श्रीलंका को ही देख लीजिए कैसे वहां की सरकार ने पहले तो मुफ्त का चंदन समझकर चीन से कर्जा लिया। जब कर्जा चुका पाने की क्षमता नहीं थी तो हबंनटोटा पोर्ट और राजधानी कोलंबो में समुद्र किनारे 99 साल की लीज पर जमीन देनी पड़ी जिसमें अब चीन अपनी एक सिटी बना रहा है। ठीक उसी प्रकार पाकिस्तान और नेपाल ने भी चीन से कर्जा लिया था। हालांकि नेपाल बीच में ही समझ गया कि चीन की चाकरी खतरे से खाली नहीं है इसलिए उसने समय रहते ही चीन का साथ छोड़ भारत के साथ अपने संबंध बेहतर किए। बाकी रही पाकिस्तान की बात तो वो तो चीन का अघोषित गुलाम तो हो ही गया है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान की तरह मालदीव ने भी चीन से लगभग 1.5 करोड़ डॉलर का कर्ज लिया था। जिसे लेकर 2020 में मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद और मालदीव में चीन के राजदूत चांग लिचोंग के बीच ट्विटर पर बहस भी हुई थी। यही नहीं साल 2016 में मालदीव ने मात्र 40 लाख डॉलर के लिए 50 साल के लिए चीनी कंपनी को एक द्वीप भी लीज़ पर दिया था।
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चीन के जाल में फंस चुके मालदीव को समय रहते अपनी विदेश नीति पर गहराई से सोचना चाहिए कि उसे चीन के साथ जाकर दूसरा श्रीलंका बनकर अपनी सर्वनाश करना है या फिर भारत के साथ रह कर मालदीव बने रहना है।
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