अगर आप पुराने दूरदर्शन के प्रशंसक हैं तो आपने “मिले सुर मेरा तुम्हारा” अवश्य सुना होगा। लगभग हर राष्ट्रीय पर्व को प्रसारित होने वाला यह गीत आज भी कई लोगों को कंठस्थ है। इस गीत के प्रारंभ में ही हमारा परिचय एक ऐसे गायक से होता है, जिनका गायन सुनकर तो देवता भी बोल उठे “अति उत्तम, ऐसे दैवीय स्वर बहुत समय बाद ही सुने होंगे”! यह प्रभाव था पंडित भीमसेन गुरुराज जोशी का।
इस लेख में हम पंडित भीमसेन जोशी (Bhimsen Joshi) से परिचित जिन्होंने संगीत के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान दिया और जिनकी गायन कला गन्धर्वों की भांति उत्कृष्ट और अनूठी थी।
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गन्धर्वों का प्रत्यक्ष आशीर्वाद
भारत का शास्त्रीय संगीत एक अनंत सागर के समान है, कितना भी ढूंढो, कितना भी इसका अर्थ निकालने चलो, कम पड़ेगा। इस संगीत शैली को दैवीय भी कहा जाता है, क्योंकि हमारे वेदों में से एक वेद [सामवेद] पूर्णत्या संगीत कला को ही समर्पित है। इतना ही नहीं, देव सभा में संगीत का विभाग संभालने के लिए गन्धर्वों का योगदान अति लोकप्रिय है। यही देवताओं के सभा के गायक हैं। हिन्दू धर्मशास्त्र में यह देवताओं तथा मनुष्यों के बीच दूत (संदेश वाहक) होते हैं।
तो इन सबका भीमसेन जोशी (Bhimsen Joshi) से क्या लेना देना? इनके स्वर को मानो गन्धर्वों का प्रत्यक्ष आशीर्वाद प्राप्त हुआ था, और ये शास्त्रीय संगीत के हिन्दुस्तानी संगीत शैली के सबसे प्रमुख गायकों में से एक माने गए हैं।
प्रारंभ से संगीत की ओर आकर्षित
कर्नाटक में 4 फरवरी 1922 को एक अध्यापक के घर जन्मे भीमसेन जोशी (Bhimsen Joshi) प्रारंभ से संगीत की ओर आकर्षित थे, इतना कि जैसे एक ऋषि दिव्य ज्ञान को प्राप्त करने हेतु साधना में लीन हो जाता है, वैसे ही संगीत की शिक्षा हेतु पंडित भीमसेन जोशी जहां भी एक संगीत मंडली को देखते, उनकी कला को सुनने और समझने पहुंच जाते और उसी में लीन रहते। न उन्हें खाने पीने की चिंता होती, न घर बार की। उनके पिता गुरुराज आचार्य जोशी इस बात से इतने खिन्न हुए कि उन्होंने भीमसेन के कमीजों पर लिखवा दिया, “यह मास्टर जोशी का बेटा है, अगर मिले तो घर भेज देना”, और चूंकि भीमसेन के पिता को जिले में लोग जानते थे, इसलिए ये तकनीक बड़ी उपयोगी भी सिद्ध हुई।
भीमसेन जोशी (Bhimsen Joshi) किराना घराने के संस्थापक अब्दुल करीम खान से बहुत प्रभावित थे। 1933 में वह गुरु की तलाश में घर से निकल पड़े। अगले दो वर्षो तक वह बीजापुर, पुणे और ग्वालियर में रहे। उन्होंने ग्वालियर के उस्ताद हाफिज अली खान से भी संगीत की शिक्षा ली। लेकिन अब्दुल करीम खान के शिष्य पंडित रामभाऊ कुंदगोलकर से उन्होंने शास्त्रीय संगीत की शुरुआती शिक्षा ली। घर वापसी से पहले वह कलकत्ता और पंजाब भी गए।
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संगीत की विविधताओं के बारे में शिक्षा–दीक्षा
तद्पश्चात उन्होंने चर्चित संगीतकार, सवाई गंधर्व से संगीत की विविधताओं के बारे में शिक्षा–दीक्षा ली। 1941 से उन्होंने अपने आप को पूर्ण रूप से संगीत के प्रति समर्पित कर दिया। उन्होंने अपनी सर्वप्रथम प्रस्तुति 19 वर्ष की आयु में दी, एवं उनका पहला एलबम 20 वर्ष की आयु में निकला,जिसमें कन्नड़ और हिन्दी में कुछ धार्मिक गीत थे। इसके दो वर्ष बाद वह रेडियो कलाकार के तौर पर मुंबई में काम करने लगे। विभिन्न घरानों के गुणों को मिलाकर भीमसेन जोशी (Bhimsen Joshi) अद्भुत गायन प्रस्तुत करते थे। उनके द्वारा गाए गए गीत पिया मिलन की आस, जो भजे हरि को सदा और मिले सुर मेरा तुम्हारा बहुत प्रसिद्ध हुए।
पंडित भीमसेन जोशी जी (Bhimsen Joshi) खयाल, भजन तथा अभंग गाने के लिए जाने गए। श्रीमती केशर बाई केरकर, बेगम अख्तर और उस्ताद आमिर खान जैसे शास्त्रीय गायकों से प्रभावित पंडित जोशी किराना घराने से संबद्ध थे। उनका दैवीय स्वर पीड़ा और परमानंद के भिन्न धरातलों की परतें खोल देती है और समान सरलता के साथ खोलती है। जिस उत्साह से वे ‘तोड़ी’ और ‘कल्याण’ जैसे क्लिष्ट राग को विविधता में पेश करते हैं, उसी उत्साह से उनके छोटे रूप, राग ‘भूप’ और ‘अभोगी’ का निर्वहन भी करते हैं।
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पंडित भीमसेन जोशी सबके प्रिय बन गए
कहां गायन से अपना प्रभाव छोड़ना है, कहां गायन को उठाने के लिए क्या त्याग देना जरूरी है, ये उन्हें भली भांति पता था। इनके कई भजनों और मराठी अभंगों में राम या सीताराम का उच्चारण मात्र विह्वल कर जाता है. ऐसा लगता है साक्षात् विट्ठल ही उनके स्वरों में गा रहे हैं। पंडित भीमसेन जोशी (Bhimsen Joshi) अपनी इसी उत्कृष्ट कला के लिए सबके प्रिय बने।
https://www.youtube.com/watch?v=tRlmdPm0tus
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