Shiv Kumar Batalvi crushed by leftist: “बाबूमोशाय, ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिये, लंबी नहीं” यह संवाद आपने फिल्मों में सुनी होगी, किसी मंच पर सुना होगा। लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि एक ऐसे भी व्यक्ति थे, जिन्होंने वास्तव में इस संवाद को जिया और ऐसे जिया कि उनके विचारों से क्षुब्ध होकर उनकी कलाकृतियों को दफनाने का प्रयास किया गया परंतु लाख कोशिशों के बावजूद वामपंथी उन्हें धूमिल करने में विफल रहे। जी हां, हम बात कर रहे हैं शिव कुमार बटालवी की, जिन्होंने पंजाबी संगीत को एक नई पहचान दी थी लेकिन अपनी मुखरता के कारण वह आयुपर्यंत वामपंथियों के निशाने पर रहे।
आपने “उड़ता पंजाब” का गीत “इक्क कुड़ी” सुना है? यह वही गीत है, जिसे गाकर पंजाबी गायक दिलजीत दोसांझ लाइम लाईट में आये थे। इसके रचयिता शिव कुमार बटालवी ही थे, जो बहुत ही कम आयु में अद्वितीय रत्न भारतीय साहित्य को देकर चल बसे। किसे विश्वास होगा कि जिस व्यक्ति ने “माए नी माए”, “इक्क कुड़ी” एवं “अज्ज दिन चढेया” जैसे गीत लिखे, उसने जीवन के 40 बसंत भी पूर्ण नहीं किये।
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साहित्य अकादमी प्राप्त करने वाले सबसे कम उम्र के साहित्यकार (Shiv Kumar Batalvi crushed by leftist)
परंतु शिव कुमार बटालवी अलग ही मिट्टी के बने थे। 1936 में अविभाजित पंजाब के बारापिंड जिले में जन्मे शिव कुमार बंटवारे के बाद भारत आ गए। प्रारंभ से ही निर्मोही स्वभाव के बटालवी भक्ति साधना में लीन रहते। उन्हे कभी किसी जागरण में तो कभी किसी मंदिर के प्रांगण में भक्ति में लीन पाया जाता। वह रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों के स्थानीय गायन के साथ-साथ घुमंतू गायकों से काफी अभिभूत रहते थे और उनकी यही भावना उनकी कविता में रूपकों के रूप में दिखाई देती है।
शिव कुमार बटालवी को न तुष्टीकरण का लालच था, न सम्मान का मोह। उनकी रचनाएं उनके निजी अनुभवों से जुड़ी रहती थी। उदाहरण के लिए उन्हें तीन बार प्रेम हुआ और लगभग तीनों बार उन्हें दुख और पीड़ा के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगा। बैजनाथ के एक मेले में उनका मिलन मैना नाम की एक लड़की से हुआ था परंतु जब वह उनके गृहनगर में उनकी तलाश करने के लिए वापस गए तो बटालवी ने उस लड़की की मृत्यु की खबर सुनी। इसी शोक में उन्होंने अपना शोक गीत मैना लिखा, जिसने उन्हें प्रथमत्या ख्याति दिलाई।
ऐसे ही एक बार वो एक चर्चित हस्ती गुरबख्श सिंह प्रीतलारी की बेटी के ओर आकर्षित हुए परंतु वह भी वेनेजुएला चली गई और किसी और से शादी कर लिया। जब बटालवी ने उस लड़की के पहले बच्चे के जन्म के बारे में सुना तो उन्होंने ‘मैं इक शिकरा यार बनाया’ लिखा, जो शायद उनकी सबसे प्रसिद्ध प्रेम कविता थी। अंत में उन्होंने अपने ही कुल की एक लड़की अरुणा से विवाह किया। यह विवाह उनके लिए भाग्योदय समान सिद्ध हुआ क्योंकि उसी वर्ष यानी 1967 में उन्हें उनकी रचना ‘लूना’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह वो समय था जब साहित्यिक सम्मानों पर वामपंथियों का नियंत्रण नहीं था और योग्य व्यक्तियों को उनका सम्मान मिलता भी था। इसके साथ ही बटालवी साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त करने वाले सबसे कम उम्र के साहित्यकार बन गए थे।
बटालवी आज भी ‘जिंदा’ हैं
परंतु बटालवी, कला से कथित प्रगतिशील समाज के ठेकेदार, विशेषकर वामपंथी बहुत चिढ़ते थे। शिव कुमार बटालवी को कभी भी साहित्य समाज में उनके कार्य के अनुरूप स्थान नहीं दिया गया। इसी पसोपेश में वो कब मदिरा की ओर मुड़ गए, उन्हें भी आभास नहीं हुआ। कुछ समय बाद ही वो इंग्लैंड की यात्रा पर निकल गए और जब लौटे तो उनका स्वास्थ्य उनका साथ छोड़ने लगा। अब उन्हें प्रगतिशील और वामपंथी लेखकों द्वारा उनकी कविता की अनुचित आलोचना चुभने लगी थी। उन्होंने अपनी कविता की अनुचित निंदा पर अपनी निराशा के बारे में खुलकर बात करना शुरू कर दिया।
लेकिन इंग्लैंड से लौटने के कुछ महीनों के भीतर जो उनका स्वास्थ्य गिरा, वह पुनः ठीक नहीं हुआ। उनकी पत्नी अरुणा ने किसी भांति उन्हें चंडीगढ़ के सेक्टर 16 के एक अस्पताल में भर्ती कराया। परंतु कुछ माह बाद उन्होंने अमृतसर में अस्पताल ही त्याग दिया। शिव कुमार का विचार स्पष्ट था कि वो अस्पताल में मरना नहीं चाहते थे और वो बटाला में अपने गांव चले गए। बाद में उन्हें पाकिस्तान की सीमा के पास एक छोटे से गांव किरी मांगियाल में उनके ससुराल के गांव में स्थानांतरित किया गया, जहा उनकी मृत्यु 6 मई 1973 की सुबह हो गई।
Shiv Kumar Batalvi crushed by leftist: आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उनकी कोई भी ऑडियो या वीडियो रिकॉर्डिंग्स अब उपलब्ध नहीं हैं, उनके इंटरव्यू उपलब्ध नहीं हैं, जनता को कही गई उनकी बातें उपलब्ध नहीं हैं। अगर आप यूट्यूब पर देखेंगे तो 4 मिनट का केवल 1 वीडियो क्लिप मिलेगा, जो बीबीसी को ओर से डाला गया है। उन्हें मिटाने या यूं कहें कि उनकी रचना को ‘जलाने’ के पीछे वामपंथियों के होने की बू आती है।
परंतु वो कहते हैं न कि सच्चे मन से किया गया कार्य कभी व्यर्थ नहीं जाता। “इक्क कुड़ी” को उड़ता पंजाब में सम्मिलित किया गया, जिसे अमित त्रिवेदी जैसे उत्कृष्ट संगीतज्ञ ने अपने सुरों से सजाया और यह गीत पुनः विश्वप्रसिद्ध हुआ एवं फिल्मफेयर में इसे नामांकन तक मिला। यानी मृत्यु के बाद भी उनके गीत और कविता आज भी लोगों के दिलों दिमाग में बसे हुए हैं। वामपंथियों ने उनकी कृतियों को मिटाने की काफी कोशिश की लेकिन बटालवी को लोगों के दिलों से नहीं मिटा पाए।
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https://www.youtube.com/watch?v=IMag3XlTUp8
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