Netaji Savarkar Meeting: हमारे भारतीय इतिहास को दरबारी कथाकारों एवं इतिहासकारों ने इस तरह से रचा था कि हमें केवल वही पढ़ने को मिले, जो वे चाहे; हम वही सुनें, जो वे सुनाना चाहे। मानो एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत हम लोगों में यह ज्ञान फ़ीड किया गया कि ये व्यक्ति हीरो है, ये नहीं है, जिसका अनुमोदन इतिहासकार विक्रम संपत ने भी किया। यूट्यूबर रणवीर इलाहाबादिया से बात करते हुए उन्होंने बताया कि कैसे हमें इस बात का विश्वास दिलाया गया कि गांधीजी के तरीके ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण सिद्ध हुए और कैसे भारत छोड़ो आंदोलन के प्रभाव से अंग्रेज़ भयभीत हो गए। परंतु क्या इतना सरल था स्वतंत्रता प्राप्त करना? इस लेख में हम आपको विस्तार से बताएंगे कि कैसे दो दिग्गजों के बीच हुई एक बैठक ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की दशा और दिशा दोनों ही मोड़ दी लेकिन उसके बारे में बात करने से आज भी कई इतिहासकार कतराते हैं।
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यहां समझिए पूरी कहानी
वर्ष था 1940 का और द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हो चुका था। भारत की इच्छा के विरुद्ध उसे यूके ने Allies के साथ जोड़ दिया और कांग्रेस के विरोध अभियानों का परिणाम निल बट्टे सन्नाटा था। इसी बीच जून 1940 के अंत में बॉम्बे में एक (Netaji Savarkar Meeting) बैठक हुई, जिसमें दो एकदम विपरीत धुरी के नेता सम्मिलित हुए – विनायक दामोदर सावरकर एवं नेताजी सुभाष चंद्र बोस।
कल्पना कीजिए, यदि अटल बिहारी वाजपेयी एवं योगी आदित्यनाथ के बीच भारत निर्माण को लेकर कोई बैठक हुई होती, तो कैसा होता? ठीक इसी भांति बॉम्बे में स्थित सावरकर सदन में वीर सावरकर और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बीच भी बैठक (Netaji Savarkar Meeting) हुई थी। दोनों के परिप्रेक्ष्य भले अलग थे परंतु उद्देश्य एक था – ब्रिटिश राज से पूर्ण स्वतंत्रता।
उस समय जहां नेताजी कांग्रेस की विचारधारा से विमुख होकर अपनी ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक स्थापित कर चुके थे, तो वहीं विनायक दामोदर सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष होने के नाते तुष्टीकरण आधारित राजनीति का विरोध कर रहे थे और साथ ही साथ कांग्रेस के नीतियों पर भी कटाक्ष करते थे। कहने को सावरकर आज भी कई वामपंथियों के लिए अंग्रेज़ समर्थक एवं उनके चाटुकार थे परंतु यदि यह सत्य था तो फिर सुभाष चंद्र बोस जैसे प्रखर राष्ट्रवादी उनसे मिले ही क्यों?
फॉरवर्ड ब्लॉक के मुखपत्र में वीर सावरकर का जिक्र
असल में जब सुभाष चंद्र बोस ने एक राष्ट्रीय गठबंधन का आह्वान किया, जो मिलकर ब्रिटिश राज का मुकाबला करती, तो सुभाष समर्थक न होने के बाद भी हिन्दू महासभा ने सर्वप्रथम उस आह्वान को स्वीकृति दी और कुछ समय के लिए कलकत्ता निकाय चुनाव हेतु नेताजी की पार्टी से हाथ भी मिलाया। वो क्या है कि सत्य की अनेक परतें हैं और उसे केवल ब्लैक एंड व्हाइट में देखना मूर्खता ही मानी जाएगी।
इसीलिए जब नेताजी वीर सावरकर (Netaji Savarkar Meeting) से मिले, तो उन्होंने अपने विचार साझा किये और यह भी बताया कि कैसे वो अंग्रेजों का मुकाबला करेंगे। उनका मानना था कि अंग्रेजों पर निरंतर विरोध प्रदर्शन से दबाव बनाया जा सकता है परंतु सावरकर इस विचार से असहमत थे। उन्हें पता था कि एक न एक दिन अंग्रेज नेताजी को पकड़ लेंगे और उन्हें काफी समय तक जेल में सड़ाएंगे, जो उस समय उपर्युक्त नहीं था।
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इसके अतिरिक्त फॉरवर्ड ब्लॉक के मुखपत्र में एस कृष्ण अय्यर ने एक लेख लिखा था, जो 30 दिसंबर 1939 को प्रकाशित हुआ। इसमें वो वीर सावरकर के हिंदुत्ववादी विचारों से असहमत थे परंतु साथ ही उन्होंने यह भी लिखा कि कैसे कोई अन्य व्यक्ति इतने वर्षों तक ब्रिटिश शासन के अत्याचार नहीं सह पाता, जितने वीर सावरकर ने सहे। ऐसे में यह तो स्पष्ट है कि वह लेख बिना नेताजी की स्वीकृति के तो प्रकाशित नहीं हुआ होगा।
इसके अतिरिक्त बताया जाता है कि वार्तालाप के दौरान वीर सावरकर ने नेताजी को एक पत्र दिया, जिसे पढ़कर वो अभिभूत हुए और उन्होंने सावरकर के सुझावों पर विचार करने की बात कही। इस पत्र के रचयिता भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक महत्वपूर्ण अंग थे, जिनसे सावरकर भी प्रभावित थे और नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी। यही व्यक्ति बाद में एक ऐसे संगठन के सर्वेसर्वा बने, जिनसे नेतृत्व की कमान लेते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उस संगठन को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक अमिट अध्याय बना दिया। यह व्यक्ति कोई और नहीं, रास बिहारी बसु थे, जिनके नेतृत्व में कैप्टन मोहन सिंह ने प्रथम इंडियन नेशनल आर्मी यानी आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना सिंगापुर में की थी।
यह केवल संयोग नहीं था…
अब उपर्युक्त घटनाओं को अगर ध्यान से देखा जाए तो नेताजी और सावरकर के बीच बैठक (Netaji Savarkar Meeting) के बाद जुलाई 1940 में नेताजी को अंग्रेजों ने हॉलवेल घटना से संबंधित एक प्रदर्शन के लिए हिरासत में लिया और भूख हड़ताल से तबीयत बिगड़ने के कारण उन्हें उनके घर भेजा गया, जहां उन्हें नज़रबंद रखा गया। फिर जनवरी 1941 में नेताजी वेश बदलकर कलकत्ता से काबुल की ओर निकल गए, जहां से वो पहले सोवियत संघ और फिर जर्मनी पहुंचे।
इसी बीच सावरकर विभिन्न युद्धों में चक्की में गेहूं के साथ घुन की भांति पिस रहे भारतीय सैनिकों पर प्रकाश डालते हुए उनके लिए समर्थन मांगा, जिसे आज भी वामपंथी ब्रिटिश साम्राज्य की पैरवी के रूप में चित्रित करते हैं। वर्ष 1942 में जब सावरकर ने सिंगापुर में युद्धबंदी बनाए गए भारतीयों के रिहाई की बात की तो उसके कुछ ही समय बाद समुद्री मार्ग से पहले जापान और फिर सिंगापुर पहुंचे नेताजी ने उन्हीं युद्धबंदियों को भारत की स्वतंत्रता में हाथ बंटाने हेतु आज़ाद हिन्द फौज में मिलाकर इसे सशक्त किया। क्या यह सब केवल संयोग था या फिर एक सोचा समझा प्रयोग?
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Sources –
Savarkar: A Contested Legacy by Vikram Sampat