उल्लास्कर दत्ता: पता नहीं क्यों हमारे देश में ताजमहल को प्रेम का प्रतीक माना जाता है और शाहजहाँ एवं मुमताज़ महल को अद्वितीय प्रेम का पर्याय। मुगल बादशाह खुर्रम अथवा शाहजहाँ के विवादित इतिहास को अगर हम अनदेखा भी कर दें, तो भी प्रेम से इनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। परंतु एक प्रेम कथा ऐसी भी थी, जिसमें क्रांति भी थी और वात्सल्य भी, परंतु भाग्य का ऐसा कुचक्र चला कि दोनों प्रेमियों को एक होने में वर्षों लग गए।
इस लेख में आप उल्लास्कर दत्ता और लीला पाल के बारे में पढ़ेंगे, जिन्हे भाग्य और ब्रिटिश साम्राज्य की क्रूरता ने अलग किया था, परंतु दोनों का प्रेम ऐसा था कि उन्हे एक होने से कोई न रोक सका।
उल्लास्कर दत्ता-लीला पाल की कहानी
उल्लास्कर और लीला दोनों ही अविभाजित बंगाल से आते थे, और इनका जन्मस्थान वर्तमान बांग्लादेश में स्थित है। उल्लास्कर और लीला बचपन से ही एक दोनों को जानते थे और एक दूसरे को भाते थे।
उल्लास्कर के पिता द्विजदास दत्ता कृषि विभाग में लंदन विश्वविद्यालय से स्नातक कर चुके थे। उल्लास्कर ने भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए कलकत्ता के बहुप्रतिष्ठित प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया, और रसायन विभाग में उनकी रुचि बढ़ने लगी।
परंतु जल्द ही उन्हे कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने अपने देशवासियों के बारे में अभद्रता से बात करने के पीछे अपने ही ब्रिटिश प्रोफेसर रसेल को पटक पटक कर कूटा था।
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और लीला? वह भी एक बहुप्रतिष्ठित परिवार से आती थी। यदि आपको लाल बाल पाल की तिकड़ी स्मरण है, तो उसी तिकड़ी के पाल यानि बिपिन चंद्र पाल की पुत्री थी लीला। दोनों का प्रेम प्रगाढ़ हो चला, और बात सगाई तक आ पहुंची, पर यहीं पर भाग्य ने एक अजब खेल खेला।
उल्लास्कर दत्ता को कालापानी की सजा
वर्ष था 1908, और ब्रिटिश जज किंग्सफोर्ड को मारने हेतु युगांतर एवं अनुशिलन समिति ने एक योजना बनाई। किंग्सफोर्ड बेहद क्रूर जज था, जो बेहिचक भारतीय कैदियों को या तो कालापानी या फिर मृत्युदंड की सजा सुनाता।
उसे मारने के लिए खुदीराम बसु एवं प्रफुल्ल कुमार चाकी ने कार्यभार संभाला, परंतु वह दांव उल्टा पड़ गया और किंग्सफोर्ड के बजाए एक यूरोपीय महिला और कुछ अन्य लोग मारे गए। प्रफुल्ल कुमार चाकी ने जहां अंग्रेजों के हाथ लगने के बजाए आत्महत्या को विकल्प चुना, तो वहीं खुदीराम को अंग्रेज़ पकड़ने में सफल रहे।
तो इन सबका उल्लास्कर से क्या लेना देना? वास्तव में इस सम्पूर्ण मामले को अलीपुर बमकांड के अंतर्गत अंग्रेज़ों द्वारा एक सुनियोजित मुकदमे का रूप दिया गया। इसके अंतर्गत नरेंद्रनाथ गोस्वामी नामक एक क्रांतिकारी ने विश्वासघात करते हुए अंग्रेज़ों को अपनी सेवाएँ दी और हेमचन्द्र दास, बरिंद्र कुमार घोष [जो महर्षि अरबिंदो के कनिष्ठ भ्राता थे], उल्लास्कर दत्ता जैसे लोगों को पकड़वाया। लंबे मुकदमे के बाद उल्लास्कर एवं खुदीराम को मृत्युदंड दिया गया, जबकि हेमचन्द्र एवं अन्य को विभिन्न धाराओं में दंड दिया गया।
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परंतु बाद में उल्लास्कर दत्ता के लिए पैरवी कर रहे “देशबंधु” चित्तरंजन दास ने ऐसे दांव चले कि उसके दंड को कम कर उसे आजीवन कारावास यानि “कालापानी” भेज दिया गया, और बरिंद्र कुमार घोष के साथ भी यही हुआ। उन्हें उसी ब्लॉक में भेजा गया, जहां बहुचर्चित सावरकर बंधु: गणेश बाबाराव सावरकर एवं विनायक दामोदर सावरकर को अंग्रेजों ने अलग-अलग बैरकों में बंद किया गया था।
नरेन्द्रनाथ गोस्वामी का अलीपुर जेल में ही एक अन्य क्रांतिकारी कनाइलाल दत्ता ने वध कर दिया, परंतु अंडमान में जो हुआ, उसका आभास किसी को नहीं था। सेल्युलर जेल वैसे भी कोई बहुत बढ़िया स्थान नहीं था, परंतु बरिंद्र कुमार घोष और उल्लास्कर दत्ता ने जो झेला, उसे शब्दों में लिखना असंभव था।
अब बरिंद्र कुमार घोष उन लोगों में से नहीं थे जो हिम्मत हारते, उन्होंने प्रयास किया और वे सफलतापूर्वक सेल्युलर जेल से भाग निकले। ऐसा करने वाले वे प्रथम सफल भारतीय क्रांतिकारी थे। उन्होंने कुछ समय ओड़ीशा के पवित्र धाम पुरी में बिताया, परंतु बालासोर में बाघ जतिन यानि यतीन्द्र नाथ मुखर्जी के बलिदान के पश्चात उन्हे पुनः हिरासत में ले लिया गया।
उल्लास्कर दत्ता को दी गईं यातनाएं
परंतु उल्लास्कर उतने भाग्यवान न थे। उन्हें अंग्रेज़ों ने इतनी भीषण यातना दी, इतनी भीषण यातना दी, कि कुछ समय के लिए वे अपना मानसिक संतुलन खो बैठे। इन सबको वीर सावरकर ने अपनी आँखों से देखा था, जिसका उनके संस्मरणों में उल्लेख भी है।
पहले उल्लास्कर दत्ता को अंडमान द्वीप के मानसिक रुग्णालय और फिर मद्रास के एक अस्पताल में स्थानांतरित किया गया और उनके स्वास्थ्य को देखते हुए 1920 से 1921 के बीच उन्हे अन्य कैदियों के साथ एक विशेष एमनेस्टी ऑर्डर के अंतर्गत रिहा कर दिया।
रोचक बात तो यह थी कि इन कैदियों में रामशरण दास, बरिंद्र कुमार घोष, भाई परमानन्द और सावरकर बंधु भी सम्मिलित थे, परंतु इनमें से किसी ने भी वामपंथ को समर्थन नहीं दिया, इसलिए इनके योगदान को मिट्टी में मिलाने के भरसक प्रयास किये गए।
अब उल्लास्कर दत्ता इधर उधर भटकते रहे, परंतु उन्हे लीला नहीं मिली। 1931 में वे पुनः अंग्रेज़ों की गिरफ्त में आए, और उन्हे फिर से कारावास का सामना करना पड़ा। उन्होंने इस बीच बांग्ला में दो पुस्तकें भी लिखी, “द्विपांतरेर कोथा” [मेरे आजीवन कारावास की कथा] एवं “अमर काराजीबन”, अर्थात [कारावास का जीवन] आखिर में स्वतंत्रता के पश्चात इन्होंने कलकत्ता को अपना घर बना लिया।
पुन: मिलन
परंतु लीला से वह वियोग उनके लिए असह्य था। लीला भी उन्हे ढूंढते ढूंढते बेसुध हो चुकी थी। आखिर में जब दोनों का मिलन हुआ, तो उल्लास्कर दत्ता को ज्ञात हुआ कि वह दिव्यांग है और विधवा भी।
परंतु उल्लास्कर का लीला के प्रति प्रेम तनिक भी कम नहीं हुआ, और आखिरकार 4 दशक से अधिक का वियोग और वनवास 1957 में खत्म हुआ, जब दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ, और दोनों फिर असम के सिलचर जिले चल पड़े, जहां उल्लास्कर ने अपना अंतिम समय बिताया। जहां विवाह के कुछ ही समय बाद लीला 1958 में चल बसी, तो वहीं 17 मई 1965 को कलकत्ता में उल्लास्कर का देहावसान हुआ। ऐसा प्रेम इससे पूर्व कभी देखा या सुना है?
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