पिता की विरासत को आगे बढ़ाना कोई आसान बात नहीं होती है क्योंकि जिसने संघर्ष किया होता है उसे पता होता है कि कैसे विरासते संभाली जाती हैं, लेकिन जिसे बैठे-बिठाए सबकुछ मिल जाए वो उसे संभालना क्या जानेगा? संगठन से लेकर संस्थानों तक यदि सभी को साथ जोड़कर रखना है तो उसकी मूल सोच को जिंदा रखना होता है लेकिन हिंदू हृदय सम्राट बालासाहेब ठाकरे ने जो विरासत उद्धव ठाकरे को दी थी, हिंदुत्व की उस मूल सोच को उद्धव ठाकरे ने कोई भाव नहीं दिया। परिणाम यह है कि उद्धव ठाकरे से शिवसेना और उसका चुनाव चिन्ह तीर कमान छिन चुका है। चुनाव आयोग ने वास्तविक शिवसेना मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के समूह को माना है और इसी समूह को वास्तविक शिवसेना का चुनाव चिन्ह तीर और कमान दिया है।
शिवसैनिकों ने किया विद्रोह
उद्धव ठाकरे के कांग्रेस और एनसीपी से गठबंधन करने और उसके बाद उनकी तानाशाही कार्यशैली से परेशान होकर शिवसैनिकों ने विद्रोह कर दिया था। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में हुए विद्रोह में 90 प्रतिशत विधायकों से लेकर सांसदों और कार्यकर्ताओं ने उद्धव ठाकरे का साथ छोड़ दिया था।
इसे सत्ता का लालच कहना नीतिगत तौर पर गलत होगा क्योंकि जब विद्रोह हुआ उस वक्त भी शिवसेना सत्ता में सहभागी थी। यह सीधे तौर पर पार्टी की विचारधारा को बचाने और भविष्य में पार्टी के अस्तित्व को बचाए रखने की लड़ाई थी।
उद्धव के समूह में स्वयं उद्धव, उनके पुत्र आदित्य ठाकरे, संजय राउत और कुछ चाटुकार ही बचे थे। ऐसे में अब भारतीय चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे समूह को वास्तविक शिवेसना का हकदार घोषित कर दिया है।
उद्धव को कुर्सी का मोह ले डूबा!
चुनाव आयोग ने एक ऐसा निर्णय किया है जो न केवल पारिवारवादी राजनीतिक सोच पर तमाचा है बल्कि उद्धव के घमंड को भी चूर करने वाला है। एक नेता जो हिंदुओं के हितों की रक्षा करने के नाम पर वोट लेता है, फिर हिंदू विरोधी सोच रखने वाले दलों के साथ गठबंध करता है और हिंदू संतो से लेकर पूर्व सैनिकों के साथ हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध कोई कार्रवाई केवल इसलिए नहीं करता है, क्योंकि उसकी मुख्य चिंता सीएम की कुर्सी को बचाने की है। ऐसे में शिवसेना का उद्धव ठाकरे के हाथ से जाना करीब-करीब तय ही था।
यदि हम थोड़ा-सा पीछे चलें और इतिहास में देखें तो पाएंगे कि चुनाव आयोग ने 1999 में शिवसेना को अपना संविधान बदलने के लिए कहा था, उस वक्त इस बात पर बाला साहेब काफी गुस्सा भी हुए थे, लेकिन बाद में उन्होंने इस बात को मान लिया था।
वहीं, जब उद्धव ठाकरे पार्टी के कर्ताधर्ता हो गए तो उन्होंने अपने पिता द्वारा बनाया गया संविधान ही नष्ट कर दिया। वह एक राजनीतिक संगठन को प्राइवेट कंपनी की तरह चलाने लगे। ऐसे में जब शिवसेना को चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे समूह को सौंपा है, उस वक्त भी चुनाव आयोग ने कहा है कि शिवसेना को अपने संविधान में बदलाव करना होगा।
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चुनाव आयोग ने पाया कि 2018 में संशोधित शिवसेना का संविधान भारत के चुनाव आयोग को नहीं दिया गया था। 1999 के पार्टी संविधान में लोकतांत्रिक मानदंडों को पेश करने के अधिनियम को संशोधनों के द्वारा रद्द कर दिया गया था, जिसे आयोग के आग्रह पर दिवंगत बालासाहेब ठाकरे द्वारा लाया गया था।
आयोग ने यह भी कहा कि शिवसेना के मूल संविधान के अलोकतांत्रिक मानदंड, जिन्हें 1999 में आयोग द्वारा स्वीकार नहीं किया गया था, को गोपनीय तरीके से वापस लिया गया, जिससे पार्टी एक जागीर के समान हो गई थी।
अब चुनाव आयोग के निर्णय के बाद एक बात तो तय है कि उद्धव ठाकरे के हाथ कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से कुछ भी हाथ नहीं लगा। पहले उन्हें सत्ता से हाथ धोने पड़े और अब पार्टी भी उनके हाथों से निकल गई। ऐसे में यह सीधे तौर पर कहा जा सकता है कि उद्धव ठाकरे राजनीति के कच्चे खिलाड़ी निकले।
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