“अरुण ये मधुमय देश हमारा,
जहां पहुंच अंजान क्षितिज को मिलता एक सहारा”
यदि इस छंद को आपने पढ़ा हो तो समझ लीजिए कि आपने अपने स्कूल टाइम में हिंदी को गंभीरता से लिया है। अब हिंदी साहित्य वो कला है जिसमें रचनात्मकता और विविधता की कोई कमी नहीं होती, परंतु इसे परिभाषित करना भी सरल नहीं है। कई ऐसे रचनाकार हैं जो हिंदी साहित्य के पुरोधा होने का दावा करते हैं, परंतु हिंदी साहित्य एवं उसकी अस्मिता से उनका उतना ही नाता है, जितना मुहम्मद इकबाल का भारतीयता से।
इस लेख में हम परिचित होंगे जयशंकर प्रसाद से जो न केवल हिंदी साहित्य के सच्चे पुरोधा थे, अपितु खड़ी बोली एवं शुद्ध हिंदी को एक विशाल मंच भी प्रदान किया।
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जयशंकर प्रसाद के सामने विपरीत परिस्थितियां
जयशंकर प्रसाद बड़े ही संपन्न एवं धर्मपरायण परिवार में जन्मे। परंतु उनका भाग्य कुछ अलग ही स्याही से लिख गया था। जब उनकी आयु लगभग 11 वर्ष की थी तभी सन् 1900 में कार्तिक शुक्ल अष्टमी को उनके पिता का देहावसान हो गया। इससे वे संभले भी नहीं थे कि 15 वर्ष की अवस्था में सन् 1905 में पौष कृष्ण सप्तमी को उनकी माता श्रीमती मुन्नी देवी का देहावसान हो गया तथा 17 वर्ष की अवस्था में, 1907 ई॰ में भाद्रकृष्ण षष्ठी को उनके बड़े भाई शंभुरत्न का देहावसान हो जाने के कारण किशोरावस्था में ही प्रसाद जी पर मानो आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा था। कच्ची गृहस्थी, घर में सहारे के रूप में केवल विधवा भाभी, दूसरी ओर कुटुंबियों तथा परिवार से संबद्ध अन्य लोगों का संपत्ति हड़पने का षड्यंत्र, इन सबका सामना उन्होंने धीरता और गंभीरता के साथ किया।
जयशंकर प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कालेज में हुई थी, परंतु यह शिक्षा अल्पकालिक थी। परिस्थितियां ऐसी बन गई कि वे सातवें दर्जे तक ही वहां पढ़ पाए और उनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध घर पर ही किया गया, जहां हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन इन्होंने किया।
घर के वातावरण के कारण साहित्य और कला के प्रति उनमें प्रारंभ से ही रुचि थी और कहा जाता है कि नौ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने ‘कलाधर’ के नाम से व्रजभाषा में एक सवैया लिखकर ‘रसमय सिद्ध’ को दिखाया था। उन्होंने वेद, इतिहास, पुराण तथा साहित्यशास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था। वे बागवानी करने तथा भोजन बनाने में रुचि लेते थे और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। वे नियमित व्यायाम करने वाले, सात्विक खान-पान करने वाले एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। इनकी पहली कविता ‘सावक पंचक’ सन 1906 में भारतेंदु पत्रिका में कलाधर नाम से ही प्रकाशित हुई थी। वे नियमित रूप से गीता-पाठ करते थे, परंतु वे संस्कृत में गीता के पाठ मात्र को पर्याप्त न मानकर गीता के आशय को जीवन में धारण करना आवश्यक मानते थे।
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‘कलाधर’ और ‘प्रसाद’
जहां कुछ लोग इनोवेशन और रचनात्मकता के नाम पर हिंदुस्तानी को हिंदी का चोला ओढ़ाते, वहीं जयशंकर प्रसाद ने प्रारंभ से ही हिंदी की स्वच्छता एवं शुद्धता पर ज़ोर दिया। सन् 1918 में प्रकाशित ‘चित्राधार’ के प्रथम संस्करण में ब्रजभाषा और खड़ी बोली में लिखी ‘कलाधर’ और ‘प्रसाद’ छाप की कविताएं एक साथ संकलित थीं, परन्तु 1928 ई॰ में प्रकाशित इसके दूसरे संस्करण में केवल ब्रजभाषा की ही रचनाएं रखी गयीं। ‘चित्राधार’ के प्रथम संस्करण में ‘करुणालय’ एवं ‘महाराणा का महत्त्व’ शीर्षक कविताएं भी संकलित थीं, परंतु 1928 में इन दोनों का स्वतंत्र प्रकाशन हुआ।
प्रसाद जी की खड़ीबोली की स्फुट कविताओं का प्रथम संग्रह ‘कानन कुसुम’ है। इसमें सन 1909 से लेकर 1917 तक की कविताएं संगृहीत हैं। प्रायः सभी कविताएं पहले ‘इन्दु’ में प्रकाशित हो चुकी थीं, यहां तक कि कविताएं प्रसाद जी के प्रारंभिक दौर की कविताएं हैं जिनमें काव्य-विकास की अपेक्षा विकास के संकेत ही अधिक उपस्थापित हो पाये हैं।
इसके अतिरिक्त जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के “छायावादी युग” के प्रणेताओं में से एक हैं। उन्होंने हिन्दी की कथाओं को अपने विशिष्ट योगदान के रूप में प्रेम की तीव्रता और प्रतीति के साथ कहानीपन को बनाए रखते हुए आन्तरिकता और अन्तर्मुखता के आयाम ही नहीं दिए अपितु वास्तविकता के दोहरे स्वरूपों और जटिलताओं को पकड़ने, दर्शाने और प्रस्तुत करने के लिए हिन्दी कहानी को सक्षम भी बनाया।
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एक ओजस्वी लेखक
डॉ. सत्यप्रकाश मिश्र के शब्दों में : “हिन्दी कहानी में प्रसाद का योगदान दृश्य प्रधान चित्रात्मकता और नाटकीयता के संरचनात्मक तत्वों के कारण ही नहीं है बल्कि इनके माध्यम से उस आन्तरिक संघर्ष और द्वन्द्व को अभिव्यक्त करने की क्षमता प्रदान करने में है जो प्रसाद के पूर्व नहीं था। हिन्दी कहानी में संश्लिष्टता और भावों के अंकन की सूक्ष्मता प्रसाद ने ही विकसित की”।
परंतु इतने ओजस्वी लेखक अंत में पराजित हुए भी तो किससे? अपने भाग्य से! जिस क्षय रोग के कारण इनकी प्रथम दो पत्नियों का स्वर्गवास हो गया, उसी क्षय रोग के कारण ये भी 1937 में अल्पायु में ही चल बसे।
जयशंकर प्रसाद उस समय ‘इरावती’ पर कार्यरत थे जो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया प्रसाद जी का अपूर्ण उपन्यास है। जिस ऐतिहासिक पद्धति पर प्रसाद जी ने नाटकों की रचना की थी उसी पद्धति पर उपन्यास के रूप में ‘इरावती’ की रचना का आरम्भ किया गया था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में “इसी पद्धति पर उपन्यास लिखने का अनुरोध हमने उनसे कई बार किया था जिसके अनुसार शुंगकाल (पुष्यमित्र, अग्निमित्र का समय) का चित्र उपस्थित करने वाला एक बड़ा मनोहर उपन्यास लिखने में उन्होंने हाथ भी लगाया था, पर साहित्य के दुर्भाग्य से उसे अधूरा छोड़कर ही चल बसे।
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जयशंकर प्रसाद के योगदान अद्वितीय हैं
परंतु कुछ भी कहें, जयशंकर प्रसाद के योगदान अद्वितीय हैं। जो अपनी रचनाओं से साहित्य का एक अलग युग स्थापित कर दे, उसमें कुछ तो बात अवश्य होगी। इनके बाद के प्रगतिशील एवं नयी कविता दोनों धाराओं के प्रमुख आलोचकों ने उसकी इस शक्तिमत्ता को स्वीकृति दी। इसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह भी हुआ कि ‘खड़ीबोली’ हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी, जिसके लिए जयशंकर प्रसाद की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है।
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