“100 किलो आटा देंगे जावेद अख्तर को वहीं रख लो”, ‘बस नाम रहेगा अल्लाह का…’ वाले फैज़ के कार्यक्रम में पाकिस्तान पहुंचे हैं गीतकार

वैसे पाकिस्तान के लिए डील बुरी नहीं है!

Neither India wants him nor Pakistan: The conundrum of 78-year-old Javed Akhtar

Source: TFI MEDIA

किसी ने सही ही कहा है, “आधी छोड़ सारी को धावे, न आधी मिले न पूरी पावे”! अपने एजेंडा के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार लेखक एवं गीतकार जावेद अख्तर ने अपनी हालत ऐसी बना ली है, कि भारत तो भारत, अब उनके प्रिय पाकिस्तान में उन्हे कोई भाव देने को तैयार नहीं है। कभी अपनी कलम के बल पर फिल्मों पे राज करने वाले जावेद अख्तर की हालत ऐसी कैसी हो गई? आखिर क्यों एक समय बॉलीवुड को अपने इशारों पर चलाने वाले जावेद अख्तर की अब शायद ही कहीं पूछ है?

इस लेख में पढ़िए कैसे जावेद अख्तर को भारत तो छोड़िए पाकिस्तान में भी भाव नहीं मिल रहा है।

पाकिस्तान पहुंचे जावेद अख्तर

 

निरंतर विवादों में रहने वाले बॉलीवुड गीतकार जावेद अख्तर फिर से चर्चा में हैं। और इस बार भी गलत कारणों से। महोदय तीन दिवसीय फैज़ फेस्टिवल में शामिल होने के लिए पाकिस्तान गए हैं। इस शो में दुनिया भर के कई देशों के लोग शामिल हो रहे हैं।

इस कार्यक्रम के अंतर्गत 60 से अधिक शो आयोजित होंगे। इस कार्यक्रम में जावेद अख्तर अपनी एक किताब का विमोचन भी करेंगे। पाकिस्तानी पत्रकार और वहाँ के क्रिकेट विशेषज्ञ फरीद खान ने जावेद अख्तर की लाहौर में मौजूदगी की फोटो शेयर की है।

फरीद खान के मुताबिक, जावेद अख्तर पाकिस्तान के फैज़ फेस्टिवल में 5 साल पहले भी शामिल हो चुके हैं। तस्वीर में जावेद कुछ अन्य लोगों के साथ दिखाई दे रहे हैं, जिनमें एक सिख व्यक्ति भी शामिल है।

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मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, इस कार्यक्रम को पाकिस्तान का साहित्यिक सम्मेलन भी कहा जाता है। जावेद अख्तर ने इस सम्मेलन में शामिल होने के लिए वीसा का आवेदन दिया था, जिसे स्वीकार कर लिया गया था। जावेद अख्तर के साथ कुछ अन्य भारतीय भी लाहौर गए हैं। हालाँकि, उन अन्य लोगों की जानकारी अभी सामने नहीं आई है।

पर ये फ़ैज़ फेस्टिवल है किस बारे में? 2015 में प्रारंभ हुए इस उत्सव का आयोजन पाकिस्तान स्थित फैज़ फाउंडेशन ट्रस्ट अलहमरा आर्ट्स कौंसिल इन लाहौर के साथ साझीदारी में करता है। बता दें कि ये वही फैज अहमद हैं, जिन्होंने विवादास्पद ‘हम देखेंगे, लाजिम है हम भी देखेंगे…’ लिखा था और भारत के विभाजन का समर्थन भी किया था। पर उसके बारे में फिर कभी।

अब कॉलविन तालुकदार कॉलेज के इस ड्रॉपआउट की दुर्गति कैसे हुई? इसपे भी बाद में आते हैं, सबसे पहले हमें जावेद अख्तर के बचपन पर फोकस करना होगा। इनका जन्म 17 जनवरी 1945 को ग्वालियर में हुआ था। पिता जान निसार अख़्तर प्रसिद्ध प्रगतिशील कवि और माता साफ़िया अख्तर मशहूर उर्दु लेखिका तथा शिक्षिका थीं। ज़ावेद प्रगतिशील आंदोलन के एक और सितारे लोकप्रिय कवि मजाज़ के भांजे भी हैं।

अपने दौर के प्रसिद्ध शायर मुज़्तर ख़ैराबादी जावेद के दादा थे। पर इतना सब होने के बावजूद जावेद का बचपन विस्थापितों-सा बीता। छोटी उम्र में ही माँ का आंचल सर से उठ गया और लखनऊ में कुछ समय अपने नाना-नानी के घर बिताने के बाद उन्हें अलीगढ अपने खाला के घर भेज दिया गया जहाँ के स्कूल में उनकी शुरूआती पढ़ाई हुई।

फिर ये कॉलविन तालुकदार स्कूल में पढ़ने पहुंचे, परंतु इन्हे वहाँ का माहौल रास नहीं आया और मैट्रिक यानि दसवीं स्टैंडर्ड की परीक्षा से पूर्व ये अलीगढ़ लौट आए, जहां से इन्होंने उर्दू में बाकी की शिक्षा पूर्ण की। कहने को इन्होंने भोपाल के सैफीया कॉलेज से अपनी स्नातक की शिक्षा पूर्ण की परंतु यह कितना सत्य है कितना झूठ, यह आज भी संदेह का विषय है।

सलीम-जावेद ने बदल दिया बॉलीवुड

 

खैर, 1970 में इन्हें राजेश खन्ना ने ब्रेक दिया अपनी फिल्म अंदाज़ में। उन्होंने सलीम खान और इन्हे ये विश्वास दिलाया कि यदि वे एक अच्छी और दमदार स्क्रिप्ट देंगे, तो वे उन्हे उनका उचित सम्मान भी देंगे क्योंकि कथित तौर पर उससे पूर्व लेखक को उचित क्रेडिट कम ही दिए जाते थे। परंतु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि अंदाज़ के बाद सलीम खान और जावेद अख्तर ने मिलकर भारतीय सिनेमा का नक्शा ही बदल दिया।

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सलीम-जावेद से पूर्व भारतीय सिनेमा, विशेषकर बॉलीवुड विशुद्ध रूप से वामपंथी या इस्लाम समर्थक नहीं था। ऐसा नहीं था कि वामपंथ से प्रेरित फिल्में नहीं बनती थी, परंतु उन्हे टक्कर देने के लिए उचित मात्रा में राष्ट्रवाद एवं भारतीय संस्कृति से परिपूर्ण फिल्में भी होती है, जिन्हे दर्शक उतने ही चाव से देखते जितना कि वामपंथ से प्रेरित फिल्मों को।

परंतु सलीम-जावेद के आगमन से बॉलीवुड में सेक्युलरवाद का जो कीड़ा लगा, उसे हटाते-हटाते अब बात बॉलीवुड के अस्तित्व पर ही आ चुकी है। जब से सोशल मीडिया का प्रादुर्भाव हुआ है, और “बाहुबली” जैसी फिल्मों के पश्चात जिस प्रकार से क्षेत्रीय सिनेमा, विशेषकर कन्नड़ एवं तेलुगु सिनेमा उभर रहा है, उससे इतना तो स्पष्ट है कि अब जावेद अख्तर जैसे लोग अपना एजेंडा नहीं चला सकते, और ये इनकी कुंठा से परिपूर्ण बयानों में भी स्पष्ट दिखाई देता है। इन्हे लगता है कि जनता अब भी पहले की भांति मूर्ख है, जिन्हे आप कुछ भी दिखा दो, और वे उसे हाथों हाथ ले लेंगे।

सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाएं

अब यदि वर्तमान विषय पर बात करें तो फरीद खान द्वारा जावेद अख्तर की पाकिस्तान में उपस्थिति पर सोशल मीडिया पर लोग अलग-अलग प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं।  उदाहरण के लिए अनिल नाम के यूज़र ने लिखा है कि वो जावेद अख्तर को वहीं रहने के लिए हर महीने 100 किलो आटा पाकिस्तान भेजते रहेंगे।

प्रशांत गुप्ता नाम के यूजर ने लिखा कि रख लो वापस मत भेजना। अभिषेक का कहना है कि अगर पाकिस्तानियों द्वारा जावेद अख्तर को वहीं रख लिया जाता है तो उन्हें गिफ्ट में अरविन्द केजरीवाल और राहुल गाँधी भी दे दिए जाएँगे।

केशव अरविन्द ने ऐसा करने पर आमिर और शाहरुख़ को उपहार के तौर पर भेजने की बात कही है।

परंतु भारत तो भारत, जावेद अख्तर को तो पाकिस्तानी तक अपनाने को तैयार नहीं। जितनी चाटुकारिता इन्होंने इस देश के प्रति दिखाई, उतने में तो शायद मणिशंकर अय्यर, कपूर परिवार और स्वरा भास्कर जैसे लोग भी फेल हो जाएँ। परंतु पाकिस्तानी इनके साथ वैसे ही पेश आ रहे हैं, जैसे सरफ़रोश में गुल्फाम हसन के साथ हुआ।

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एक ट्विटर यूज़र मारिया सरताज के अनुसार, “एक मुस्लिम विरोधी नास्तिक, जो कई बार पाकिस्तान की इज्जत की धज्जियां उड़ा चुका है, उसे निरंतर पाकिस्तान आमंत्रित किया जाता है। क्या हम में थोड़ी भी गैरत बाकी है?”

एक अन्य यूज़र ने इसकी पोल खोलते हुए कहा, “हद है, एक रोज़ की बात याद है जब एक हिन्दुस्तानी मीडिया कॉन्क्लेव में इसने कहा था कि जब वह हिंदुस्तान की सरजमीं पे आया, तो उसने सजदा किया, क्योंकि उसके लिए हिंदुस्तान की ज़मीन, पाकिस्तान से कहीं गुना बेहतर है”

ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि जावेद अख्तर ने एक भारतीय होकर भारत के हितों के विरुद्ध बात करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पाकिस्तान के प्रति अपनी निष्ठा जगज़ाहिर में उन्होंने दिन रात एक कर दिए, पर जिस प्रकार से भारत और पाकिस्तान के निवासी दोनों “एक होकर” इन्हें दुरदुरा रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि जावेद अब न घर के रहे, न ही घाट के।

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