कुछ समय पूर्व एक ‘महापुरुष’ ने अपने कर्मों का बचाव करते हुए कहा था,
“देखिए जी, हम सावरकर की औलादें नहीं है, हम भगत सिंह के वंशज हैं। हम आखिरी सांस तक अत्याचार के विरुद्ध लड़ेंगे”
बोलने में क्या जाता है, बोलने को ये भी बोल दो कि इंकलाब ज़िन्दाबाद का नारा आनंद भवन में सर्वप्रथम लगाया गया था, और जवाहरलाल नेहरू गदर पार्टी को जबरदस्त दान करते थे। अब बोलने पर टैक्स थोड़े ही लगता है, परंतु इतिहास एक बड़ा ही जटिल विषय है, जहां कुछ भी ब्लैक एण्ड व्हाइट नहीं होता। अगर आज के स्वघोषित इतिहासकार ढंग से इतिहास पढ़ लेते, तो उन्हे तो बोस बंधुओं में आरएसएस के एजेंट नज़र आ जाते।
कोई आपको कहे कि फलाना व्यक्ति ऐसा है, और उसी बात का दिन रात ढोल पीटता रहे, तो एक स्तर के बाद आप भी झुंझलाहट में इतना तो बोलोगे ही, “कोई और नाम नहीं है क्या?” ऐसा ही हमारे वामपंथी इतिहासकारों का भी हाल है। दिन रात जपेंगे कि देश को “मुगलों और अन्य आक्रान्ताओं का आभार मानना चाहिए, गांधी न होते तो देश स्वतंत्र ही न होते”।
कोई विरोध करे तो “आरएसएस का एजेंट” से लेकर “सावरकर की सोच से ग्रसित” जैसे कई उपनाम दिए जाते हैं, और यही वामपंथी अपने आप को भगत सिंह की आड़ में छुपा लेते हैं। परंतु अगर आपको बताएँ कि भगत सिंह और सावरकर समान विचारधारा पर कार्यरत थे, तो?
जैसे गीतकार पीयूष मिश्रा ने एक व्याख्यान में कहा था, “भगत सिंह का व्यक्तित्व बहुत ही जटिल है, उन्हे एक खूँटे से बांधना घोर अन्याय होगा!” इस बात को कोई अनदेखा नहीं कर सकता कि भगत सिंह मार्क्सवाद एवं साम्यवाद के प्रति आकर्षित थे, परंतु ये कहना कि भगत सिंह विशुद्ध कम्युनिस्ट थे, अपने आप में काफी हास्यास्पद है।
अगर ऐसा होता, तो फिर दो बातें कभी नहीं होती : न तो चंद्रशेखर आज़ाद, शिवराम हरी राजगुरु जैसे क्रांतिकारी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन के सदस्य बनते, न ही लाला लाजपत राय के आह्वान पर सम्पूर्ण HSRA साइमन कमीशन के बहिष्कार पर उनका साथ देने आगे आता, और न ही वीर सावरकर के विचारों को नौजवान भारत सभा आगे बढ़ाती।
वह कैसे? जब बात स्त्रोत जुटाने की हो, तो चंद्रशेखर आज़ाद कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते थे। कुछ वरिष्ठ कांग्रेस नेता, जैसे मदन मोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू उनकी निरंतर सहायता करते, तो वहीं कुछ एन सरकार जैसे लोग भी थे, जो ब्रिटिश सरकार की ‘सेवा’ करते हुए भी क्रांतिकारियों का साथ देते।
एन सरकार बंगाल प्रशासन में एडवोकेट जनरल थे, जिन्होंने आश्चर्यजनक रूप से क्रांतिकारियों को सहायता हेतु गुप्त सूत्रों से एक बैंक चेक भिजवाया था।
ऐसे ही एक बार HSRA के कुछ प्रमुख क्रांतिकारी बॉम्बे यात्रा पर निकले थे, वीर सावरकर से मिलने। इस बारे में यशपाल ने भी अपने पुस्तक ‘सिंहावलोकन’ में उल्लेख किया है, और यहाँ तक दावा किया कि उन्होंने HSRA को खूब पैसे दिए, ताकि मुहम्मद अली जिन्ना का ‘संहार किया जा सके’।
अब आइडिया सुनने में तो काफी रोचक लगता है, परंतु जितना ही बेतुका था, उतना ही हास्यास्पद भी। आधिकारिक या अनाधिकारिक रूप से HSRA के कुछ नेताओं, विशेषकर चंद्रशेखर आज़ाद से वीर सावरकर की वार्तालाप 1927 के आसपास हुई थी, और उस मोहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस की विचारधारा से विमुख अवश्य थे, परंतु आधिकारिक रूप से महोदय ने मुस्लिम लीग की कट्टरपंथी विचारधाराओं को अपनाया भी नहीं था। वे मोतीलाल नेहरू की भांति ब्रिटिश प्रशासन और राष्ट्रवाद के मझधार में फंसे हुए एक भटके हुए प्राणी थे, जिन्हे मारकर वीर सावरकर को कुछ भी नहीं मिलता।
इसके अतिरिक्त यशपाल खुद भी दूध के धुले नहीं थे। जब भगत सिंह और अनेकों क्रांतिकारी जेल जा चुके थे, तब चंद्रशेखर आज़ाद की इच्छाओं के विरुद्ध इस व्यक्ति ने बिना सोचे समझे दिसंबर 1929 में लॉर्ड अरविन के स्पेशल ट्रेन के मार्ग में बम फोड़ा था। वाइसरॉय तो बच गए, पर एक खानसामा समेत कुछ लोग मारे गए, और ये चंद्रशेखर आज़ाद एवं उनके विश्वासपात्र भगवती चरण वोहरा के आदर्शों के विरुद्ध था।
इतना ही नहीं, संजीव सान्याल और विक्रम सम्पत समेत कई इतिहासकारों का मानना है कि यशपाल भारत के प्रति कम, और कम्युनिज़्म के प्रति अधिक निष्ठावान थे, और कुछ लोगों के अनुसार HSRA के साथ इन्होंने ही सबसे बड़ा विश्वासघात किया था।
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वीर सावरकर से भी प्रभावित थे भगत सिंह
परंतु प्रश्न तो अब भी उठता है : HSRA, विशेषकर भगत सिंह, वीर सावरकर के विचारों में कैसे रुचि रखते थे? जब भगत सिंह ने परिवार से विद्रोह स्वरूप लाहौर से भागकर कानपुर में शरण ली, तो उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी के “प्रताप प्रेस” में ‘बलवंत’ एवं ‘विद्रोही’ के नाम से लेख छापे।
इसी समय जब वीर सावरकर की बहुचर्चित “The Story of India’s War of Independence” छपी, तो उसपर अंग्रेज़ों ने अविलंब प्रतिबंध लगा दिया। परंतु बड़ी ही चतुराई से भगत ने न केवल उसकी प्रतियां निकलवाई, अपितु उसका अनुवाद कर विभिन्न नामों से छपवाया, और तत्कालीन HSRA के कई सदस्यों को भी पठन हेतु दिया।
इसके अतिरिक्त जिस नौजवान भारत सभा की स्थापना भगत सिंह, भगवतीचरण एवं सुखदेव थापर ने की थी, वहाँ पर भी वीर सावरकर की कई रचनाओं को बड़े चाव से पढ़ा जाता था। विचार भले ही अलग हों, पर सावरकर की देश सेवा की भावना का इन क्रांतिकारियों ने कभी अपमान नहीं किया।
इतना ही नहीं, भगत सिंह के अंतिम समय की जिस जेल डायरी की आज भी चर्चा होती थी, उसमें वीर सावरकर के बहुचर्चित पुस्तक “हिन्दू पद पदशाही” से जुड़े कई महत्वपूर्ण छंद भी अंकित थे। अब आप स्वयं सोचिए, कोई कम्युनिस्ट अपने स्वप्न में भी ऐसे विपरीत विचारों का उल्लेख करेगा?
भगत सिंह नास्तिक थे, वे समाजवाद को जानना चाहते थे, ये सब सच है, परंतु एक सच ये भी है कि उनके लिए मातृभूमि सर्वोपरि थी, और वे विचारधारा की संकुचित बेड़ियों में बांधने वालों में नहीं थे। यही बात उन्हे आधुनिक कम्युनिस्टों से अलग बनाती है, जिनके लिए भारत की सेवा नहीं, भारत की बर्बादी उनके विचारों की विजय समान है!
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