अब “नाटू नाटू” ने ऑस्कर क्या जीता, सोशल मीडिया पुनः दो धड़ों में बंट गया। एक तरफ वो लोग है, जिन्हे इस पुरस्कार और “RRR” के अद्वितीय उपलब्धि पर काफी गर्व है। दूसरी ओर वे लोग हैं, जो इस अवसर का लाभ उठाकर बॉलीवुड की खिल्ली उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे।
मनिये या न मनिये हिन्दी सिनेमा जगत् का एक समय ऐसा वो भी था कि फिल्म फ्लॉप हो सकती था, परंतु संगीत नहीं! परंतु बात जो भी हो, एक और बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि बॉलीवुड के संगीत में अब वो पहले वाली बात नहीं है।
इस लेख मे पढिये वो कारण जिनके पीछे हमारे हिन्दी सिनेमा जगत् के संगीत का पतन हुआ है, और आखिर क्यों ये चिंता का विषय है।
बॉलीवुड के संगीत का प्रभाव
“मेरी उमर के नौजवानों….”
“तुम आए तो आया मुझे याद, गली में आज चाँद निकला….”
“सच कह रहा है दीवाना”
अगर ऐसे गीत सुनने का अवसर मिला है, तो विश्वास मानिए कि आपका बचपन अथवा आपकी युवावस्था काफी शानदार था।
विचारधारा जैसी भी हो, परंतु संगीत एकदम टॉप क्लास होता था! जिन्होंने 2000 के प्रारम्भिक दशक को जीया है, वे भली भांति जानते हैं कि किस प्रकार का संगीत बॉलीवुड प्रदान करता है।
चाहे “गदर” हो, या “रहना है तेरे दिल में हर फिल्म का अपना रस, अपना एक्स फैक्टर होता था, जिसमें उनका संगीत चार चाँद लगा देता था। कुछ फिल्में केवल अपने संगीत के चक्कर में ही हिट हुई थी, जैसे “अजनबी”, “दिल चाहता है”, इत्यादि।
इसके अतिरिक्त यहाँ कमर्शियल और कलात्मक संगीत में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होती थी। अगर “गोलमाल” का गीत लोकप्रिय होता, तो उतना ही लोकप्रिय “बस एक पल” के गीत भी होते। इसी प्रतिस्पर्धा से अमित त्रिवेदी, मिथुन शर्मा जैसे संगीतकार उत्पन्न हुए।
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दक्षिण भारत ही एकमात्र कारण नहीं
तो फिर ये प्रभाव, ये जादू हिन्दी सिनेमा जगत् से कहाँ चला गया?
कहने को हम करण जौहर से लेकर भूषण कुमार को उल्टा सीधा सुना सकते हैं, परंतु ये ऐसा काम तो 2007 से कर रहा था, तब तो बॉलीवुड के संगीत का ह्रास नहीं हुआ।
तो बॉलीवुड के संगीत के पतन का कारण क्या है? कुछ लोग कह सकते हैं कि साउथ की फिल्मों ने दर्शकों को अपने मोहपाश में बांध लिया है, परंतु ये मुख्य कारण नहीं हो सकता। कोई माने या नहीं, जब किसी को अपनी मूल भाषा में अच्छी मन मोहक संगीत मिले तो इन्सान ज्यादा से ज्यादा दूसरी भाषा में हो रहे सकरतमक् कार्यो से उतसहित् हो कर अन्य भाषा के संगीत के धुन सुन या गा अवश्य सक्ता है परंतु अपनी भाषा में बने संगीत से मोह भङ्ग तो कदापि नहि कर सकता क्योन्की अपनी भाषा में बुने धुनो कि बात कि अलग होति है. वो सिधा आपके अन्तर आत्मा से संभन्द अस्ठपित कर्कर्णे मे सक्षम होति है.
सहि पयमाने इस पतन के लिये लिए बॉलीवुड स्वयं दोषी है। कैसे?
आज जो एमएम कीरावाणी अपने तेलुगु गीत के लिए ऑस्कर जीतकर लाए हैं, उन्हे इसी बॉलीवुड ने लगभग नकार दिया था। इन्होंने “क्रिमिनल”, “ज़ख्म”, “जिस्म”, “रोग” जैसी फिल्मों के लिए ऐसा अद्वितीय संगीत दिया कि आज भी अधिकतम संगीत प्रेमी इसे अपने प्लेलिस्ट में अवश्य रखते हैं।
इसके अतिरिक्त बॉलीवुड कमर्शियल संगीत में ऐसा मदमस्त हुआ पड़ा है कि वह भूल चुका है कि मूल संगीत क्या होता है। अब स्वयं सोचिए, कौन व्यक्ति “गली बॉय” जैसे एल्बम को सर्वश्रेष्ठ संगीत का पुरस्कार देगा, जब सामने “कबीर सिंह”, “उरी”, यहाँ तक कि “छिछोरे” जैसे दमदार एल्बम थे। परंतु वर्तमान बॉलीवुड की प्राथमिकताएँ ही कुछ
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इंडिपॉप कहाँ है?
अगर आपको विश्वास नहीं होता, तो इंडिपॉप के उदाहरण से ही समझ लीजिए। एक समय सोनू निगम, कृष्णकुमार कुन्नथ [यानि अपने केके] अलिशा चिनॉय, मोहित चौहान, लकी अली जैसे कलाकारों का बोलबाला था, जो इंडिपॉप और फिल्मी म्यूज़िक में जबरदस्त सामंजस्य बिठाते थे। अगर “एक पल का जीना” और “न तुम जानो न हम” नहीं सुना है, तो क्या खाक संगीत सुना है आपने? अभी तो हमने सुखबीर और दलेर मेहंदी के अल्ट्रा क्लासिक गीतों पर प्रकाश भी नहीं डाला है हमने।
परंतु रीमिक्स और रैप के जंजाल में बॉलीवुड ऐसा फंस गया कि इन विभूतियों को भी संगीत उद्योग भूल बैठा। ठीक है, अरिजीत सिंह बड़ा अच्छा सिंगर है, परंतु वह सभी प्रकार के गीतों को वैसे तो नहीं गा सकता, जैसे सोनू निगम और केके करते थे। कुछ दिनों पूर्व सोनू निगम का “शहज़ादा” वाला शीर्षक गीत सुना था। न 1990 के दशक के सोनू निगम में कोई कमी थी, और आज भी वह खनक, वह रस विद्यमान है। तो फिर कहाँ चला गया बॉलीवुड का आइकॉनिक संगीत? कभी सोचा है?
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