आदिवासी उन्मूलन से ओलंपिक गोल्ड तक : जयपाल सिंह मुंडा की अनोखी कथा

इनके लिए असंभव कुछ भी नहीं!

जयपाल सिंह मुंडा

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“आप लोग आदिवासियों को लोकतंत्र नहीं सिखा सकते, बल्कि समानता और सह अस्तित्व उनसे ही सीखना होगा”। ये बोल थे उस व्यक्ति के, जिसने खेल के मैदान से लेकर राजनीति के अखाड़े तक में अपने विचार के साथ समझौता नहीं किया। इस लेख में मिलिये जयपाल सिंह मुंडा से, और कैसे उन्होंने हॉकी के मैदान से राजनीति तक का सफर तय किया। तो अविलंब आरंभ करते हैं।

वन से ऑक्सफोर्ड तक

3 जनवरी 1903 को जन्मे जयपाल सिंह मुंडा  का वास्तविक नाम ईश्वरदास जयपाल सिंह है। जिन्हें आदर से झारखंड के आदिवासी उन्हें ‘मरङ गोमके’ (सर्वोच्च अगुआ/नेता) कहते हैं।  झारखंड अलग राज्य का सपना भले आंशिक रूप से उनकी मृत्यु के 30 साल बाद पूरा हुआ लेकिन जयपाल सिंह मुंडा ने जिस आदिवासी दर्शन और राजनीति को, झारखंड आंदोलन को अपने वक्तव्यों, सांगठनिक कौशल और रणनीतियों से भारतीय राजनीति और समाज में स्थापित किया, वह भारतीय इतिहास और राजनीति में अप्रतिम है।

कभी गौपालक रहे जयपाल ने मिशनरीज की मदद से ऑक्सफोर्ड के सेंट जॉन्स कॉलेज में शिक्षा हेतु अपना नाम सुनिश्चित किया। वह असाधारण रूप से प्रतिभाशाली थे। उन्होंने पढ़ाई के अलावा खेलकूद, जिनमें हॉकी प्रमुख था, के अलावा वाद-विवाद में खूब नाम कमाया। इसके पीछे इन्हे ऑक्सफोर्ड ब्लू से भी सम्मानित किया गया, और खेलकूद के लिए ये सम्मान पाने वाले वे पहले भारतीय बने।

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जब एमस्टर्डम ओलंपिक में किया भारत का नेतृत्व

तो जयपाल ओलंपिक की ओर कैसे आकृष्ट हुए? हॉकी में दक्ष जयपाल का चयन भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) में हो गया था। आईसीएस का उनका प्रशिक्षण प्रभावित हुआ क्योंकि वह 1928 में एमस्टर्डम में ओलंपिक हॉकी में पहला स्वर्णपदक जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान के रूप में नीदरलैंड चले गए थे। इसी एमस्टर्डम ओलंपिक में एक और खिलाडी ने पदार्पण किया, जिनका नाम ध्यान समेश्वर् सिंह था, और जिन्हे इतिहास “हॉकी के जादूगर”, मेजर ध्यानचंद के नाम से जानता है।

जयपाल वो भारत के राष्ट्रीय खेल के बड़े सिपाहसलार थे, जिन्होंने 1928 में एम्सटर्डम खेले ओलिंपिक में अपनी कप्तानी में भारत को पहला स्वर्ण पदक दिलाया था। जयपाल मुंडा की टीम ने न केवल उस ओलिंपिक में जीत हासिल की बल्कि पांच मैचों में किसी भी टीम को एक गोल भी नहीं करने दिया। इस जीत से दुनिया भर में चर्चा में आए जयपाल सिंह मुंडा अंग्रेजों के रवैये से दुखी हो चुके थे, लिहाजा उन्होंने इस खेल का दामन छोड़ राजनीति का रुख कर लिया। वापसी पर उनसे आईसीएस का एक वर्ष का प्रशिक्षण दोबारा पूरा करने को कहा गया, उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया।

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पूर्वोत्तर को भारत से जोड़ने का किया खूब समर्थन

1938 तक जयपाल आदिवासी अधिकारों के प्रणेता बन चुके थे। जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो वे संविधान सभा के सदस्य भी बने। भारत का संविधान जब तैयार किया जा रहा था तब जयपाल सिंह मुंडा ने कहा था, “हम आदिवासियों में जाति, रंग, अमीरी गरीबी या धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं किया जाता। आपको हमसे लोकतंत्र सीखना चाहिए. हमको किसी से सीखने की जरूरत नहीं।” उनकी उसी सोच का नतीजा है कि आज देश में आदिवासियों को तमाम तरह के अधिकार, नौकरियों और प्रतिनधित्व में आरक्षण, जंगल की जमीन से जुड़े अधिकार आदि मिले हैं।

देश के नेताओं ने आदिवासी समाज के दुख दर्द को समझना शुरू किया तो ये जयपाल सिंह मुंडा की पहल का ही नतीजा रहा। उनकी ही कोशिशों ने 400 आदिवासी समूह को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलाया। भारतीय संविधान के लागू होने से 12 साल पहले यानी साल 1938 में जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासी महासभा की स्थापना की थी।

परंतु जयपाल सिंह मुंडा घोर राष्ट्रवादी भी थे। जब नागालैंड को भारत से अलग करने की माँग उठी, तो वे इसके विरोध में उठा खड़े हुए, और उन्होंने भारत, विशेषकर पूर्वोत्तर की एकता को अक्षुण्ण रखने के लिए अपना सर्वस्व भी अर्पण किया। उनका स्पष्ट कहना था,

“नागा पहाड़ियां हमेशा भारत का हिस्सा रही हैं और कभी भी भारतीय राज्यों की तरह नहीं रही हैं; लेकिन नागाओं को यह विश्वास करने के लिए प्रेरित किया गया है कि वे भारत का हिस्सा नहीं हैं और जैसे ही भारत का डोमिनियन अस्तित्व में आता है, नागा हिल्स केवल नागा राज्य की संपत्ति हो सकती है … हम में से जो आए थे उनके संपर्क में [नागा नेता जो अपना पक्ष रखने के लिए दिल्ली गए थे] ने उन्हें स्पष्ट सच्चाई बताने की कोशिश की। लेकिन मुझे लगता है कि यह आवश्यक है कि इस संविधान सभा के पटल पर स्थिति स्पष्ट करते हुए कुछ कहा जाना चाहिए … [ताजा टेलीग्राम में नागा नेताओं ने खारिज कर दिया] संघ में आने के लिए विधानसभा से एक प्रस्ताव। किसी प्रस्ताव का कोई सवाल ही नहीं है। न कोई प्रस्ताव आवश्यक था और न ही मांगा गया था। नागा हिल्स हमेशा भारत का हिस्सा रहे हैं और रहेंगे”।

1970 में उनका निधन हुआ, परंतु आज भी शायद ही झारखंड में कोई ऐसा नेता है, जो वास्तव में उनके आदर्शों पर चलता हो।

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