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गांधी इरविन समझौता: जब महात्मा गांधी के एक निर्णय के विरुद्ध पूरा देश हो गया

महात्मा गांधी चाहते तो भगत सिंह को बचा सकते थे?

Animesh Pandey
द्वारा Animesh Pandey
28 February 2023
in इतिहास
0
गांधी इरविन समझौता

Source: Prabhasakshi

86
व्यूज़
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गांधी इरविन समझौता: “क्यों, क्यों यकीन करें आपका, इतिहास आपसे यह प्रश्न सदैव पूछेगा!” “द लीजेंड ऑफ भगत सिंह” में इस प्रश्न ने गांधी के किरदार को यूं ही नहीं निरुत्तर किया था। एक निर्णय के पीछे करोड़ों भारतवासी आज भी गांधी को संदेह की दृष्टि से देखते हैं। अनजाने में हुई भूल को क्षमा किया जा सकता है, पर उसी भूल को बार बार दोहराना, भूल नहीं हो सकती।

इस लेख में पढ़िए कैसे गांधी इरविन समझौता निरर्थक सिद्ध हुआ, जिसके कारण कांग्रेस विशेषकर गांधी को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा।

कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन

1930 का दशक था। लगभग सम्पूर्ण संसार आर्थिक मंदी से जूझ रहा था, परंतु इसका तनिक भी प्रभाव भारत पर नहीं पड़ा। पड़ता भी कैसे, भारतवासी अंग्रेज़ों से अपनी स्वतंत्रता हेतु जी तोड़ प्रयास करने में जो उद्यत थे।

प्रारंभ में भारत औपानिवेशिक स्वराज्य यानी डोमिनियन स्टेटस की ही माँग करता रहा था किंतु 26 जनवरी, 1929 को लाहौर में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में प्रथमत्या “पूर्ण स्वराज” की घोषणा की गई और शपथ ली गई कि प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को “स्वराज दिवस” के रूप में मनाया जाएगा।

1930 का अंत आते-आते ब्रिटिश प्रशासन और कांग्रेस दो विपरीत धड़ों पर खड़े थे। एक ओर ब्रिटिश प्रशासन किसी भी तरह 1919 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट द्वारा सुझाए सुधारों को लागू करने को उद्यत था, तो वहीं कांग्रेस “सविनय अवज्ञा आंदोलन” पर अड़ी थी। इसी बीच क्रांतिकारियों ने एक के बाद एक अंग्रेज़ी संस्थानों पर धावा बोलते हुए उनकी रातों की नींद उड़ा रखी थी, और भगत सिंह की लोकप्रियता भी अब पूरे देश में छाने लगे थी।

और पढ़ें: महात्मा गांधी ने कस्तूरबा गांधी के ऊपर जो अत्याचार किए वो डरावने हैं

ऐसे में साइमन कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार 1930 में लॉर्ड इरविन की संस्तुति से संवैधानिक सुधारों की समस्या के समाधान के लिए लंदन में एक गोलमेज़ सम्मेलन का आयोजन हुआ। परंतु गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने इसका बहिष्कार किया। इसके अतिरिक्त नमक कानून तोड़ने के कारण गांधी समेत हज़ारों सत्याग्रहियों ने गिरफ़्तारी दी।

गांधी ने आंदोलन किया स्थगित

ऐसे में 1931 आते-आते ब्रिटिश प्रशासन का कांग्रेस को वार्ता की मेज़ पर लाना अवश्यंभावी बन गया था। तब सर तेज बहादुर सप्रू ने मध्यस्थता की पेशकश की और गांधी को वार्ता के लिए आमंत्रित किया गया। 5 मार्च 1931 को दोनों में वार्ता हुई, जिसके अंतर्गत कई समझौतों पर हस्ताक्षर हुए, इसमें 21 धाराएँ थीं जिनके अनुसार गोलमेज कॉन्फ्रेंस में भाग लेने के लिए महात्मा गांधी तैयार हुए।

परंतु वह कौन-सी बातें थी, जिनके अंतर्गत गांधी अपने आंदोलन को स्थगित करने के लिए तैयार हुए और जिसके कारण आज भी अनेक भारतीय मोहनदास करमचंद गांधी को स्वतंत्रता की धार कुंद करने एवं भगत सिंह की मृत्यु का दोषी मानते हैं? वास्तव में वायसराय लार्ड इरविन और महात्मा गांधी के बीच 5 मार्च 1931 को जो गांधी इरविन समझौता सम्पन्न हुआ।

इस समझौते में लार्ड इरविन ने स्वीकार किया:

  • भारतीय शराब एवं विदेशी कपड़ों की दुकानों के सामने धरना दे सकते हैं।
  • आन्दोलन के दौरान त्यागपत्र देने वालों को उनके पदों पर पुनः बहाल किया जायेगा।
  • आन्दोलन के दौरान जब्त सम्पत्ति वापस की जाएगी।
  • भारतीयों को समुद्र किनारे नमक बनाने का अधिकार दिया जाएगा।

इसके अलावा समझौते के अंतर्गत गांधी ने इन बातों पर स्वीकृति जताई:

  • पुलिस के कारनामों की जाँच नहीं होगी।
  • सविनय अवज्ञा आन्दोलन स्थगित कर दिया जाएगा।
  • कांग्रेस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेगी।
  • कांग्रेस ब्रिटिश सामान का बहिष्कार नहीं करेगी।

गांधी इरविन समझौता के अंतर्गत 1931 के द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में महात्मा गांधी ने मदनमोहन मालवीय एवं सरोजनी नायडू के साथ भाग लिया। परंतु इस निर्णय से जनता में जबरदस्त आक्रोश उमड़ पड़ा।

इसके पीछे का कारण समझने के लिए हमें फरवरी 1931 की ओर रुख करना होगा, जब लंदन के सुप्रीम कोर्ट माने जाने वाले प्रिवी काउन्सिल में एक विशेष मुकदमा चल रहा था। भगत सिंह की लोकप्रियता केवल भारत तक ही सीमित नहीं थी, देश-विदेश में भी उनके चर्चे होने लगे थे।

और पढ़ें: “इस बैठक के बाद स्वतंत्रता आंदोलन की तस्वीर बदल गई”, वीर सावरकर और नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने क्या बातचीत की थी?

ऐसे में ब्रिटिश अधिवक्ता डी एन प्रिट ने क्राउन vs सुखदेव एंड अदर्स के पक्षपाती मामले [जिसके अंतर्गत भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को बिना किसी ठोस सबूत के मृत्युदंड दिया गया था] और उसके खोंखलेपन को ब्रिटिश न्यायपालिका के समक्ष पेश करने का प्रयास किया। परंतु ब्रिटिश साम्राज्यवादी भगत सिंह के व्यक्तित्व से इतना भयभीत थे कि उन्होंने प्रिट की एक न सुनी और 14 फरवरी को यह अंतिम अपील भी रद्द कर दी।

गांधी ने भगत सिंह को नहीं बचाया!

भगत सिंह अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार थे और वे अपने जीवन के प्रति मोहित भी नहीं थे। इसलिए चंद्रशेखर आज़ाद के अनेक प्रयासों के बाद भी वे जेल में ही रहना उचित समझते थे। परंतु इससे भगत सिंह के अनुयाइयों को कोई फर्क नहीं पड़ा और वे उन्हें छुड़ाने अथवा दंड को क्षमा कराने के लिए हरसंभव प्रयास करने लगे। इस अभियान में उन्हे मदन मोहन मालवीय से लेकर सुभाष चंद्र बोस तक का साथ मिला।

ऐसे में क्रांतिकारियों एवं आम जनता के मन में गांधी के लिए तब भी थोड़ा सम्मान था। भले ही उनके विचारों से वे सहमत नहीं थे, परंतु वे हिंसा के पक्ष में भी नहीं थे, और ऐसे में वे अपने प्रभाव से भगत सिंह, सुखदेव थापर एवं शिवराम हरी राजगुरु के दंड को कम करा सकते थे।

परंतु वर्तमान दस्तावेज़ों एवं गांधी के संस्मरणों से ये स्पष्ट होता है कि या तो गांधी इन तीनों को दिए दंड को क्षमा कराने के पक्ष में नहीं थे, और अगर थे भी, तो उन्होंने लॉर्ड इरविन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं डाला।

और पढ़ें: जे बी कृपलानी, जो 1947 में कांग्रेस अध्यक्ष थे लेकिन नेहरू का विरोध किया तो…

विश्वास नहीं होता तो इन दो बातों पर ध्यान दीजिए। यदि गांधी इरविन समझौता भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के ‘हित’ में होता, तो उसमें इस बात पर ही क्यों जोर दिया गया कि केवल वही लोग रिहा होंगे, जिनका क्रांति के मार्ग से कोई संबंध नहीं?

इसके अतिरिक्त यदि गांधी और नेहरू क्रांतिकारियों के मातृभूमि के प्रति सम्मान का मान रखते थे, तो जवाहरलाल ने अपने संस्मरणों में इन्हे “फासीवादियों” के रूप में क्यों संबोधित किया?

ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि गांधी इरविन समझौता भारतीयों के हित में कम और कांग्रेस के हित में अधिक था। परंतु कांग्रेस को भी इसका कोई विशेष लाभ नहीं हुआ, क्योंकि द्वितीय गोलमेज़ सम्मेलन में अपनी मांगें पूरी न होते देख गांधी पुनः आंदोलन एवं सत्याग्रह का रास्ता अपनाने लगे और उनकी छवि पर भगत सिंह को न बचाने का जो कलंक लगा वे उसे जीवन भर नहीं धो पाए।

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Tags: Congress lahor session 1929Gandhi-Irwin PactMahatma Gandhi & Bhagat Singhमहात्मा गांधी और भगत सिंह
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