एम एन रॉय: भारत में योजना आयोग यानि प्लानिंग कमीशन की नींव किसने रखी? अधिकतम लोगों बोलेंगे जवाहरलाल नेहरू, और कुछ अति बुद्धिमान लोग पी सी महालानोबिस का नाम भी लेंगे। ये सत्य है, परंतु कुछ ही हद तक। 1945 में जिस व्यक्ति ने भारत के अर्थतंत्र को एक नई दिशा देने का प्रयास किया था, उसके बारे में आज भी अधिकतम भारतीय अनभिज्ञ है, और ये भी नहीं जानते कि इनका एक समृद्ध, क्रांतिकारी इतिहास भी रहा है।
इस लेख में पढिये कि कैसे नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य मानबेन्द्र नाथ रॉय बने, कैसे उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर उसकी अर्थतंत्र पर गहरा प्रभाव डाला, और कैसे वे उसी विचारधारा से विमुक्त और मोहभंग हो गए, जिसके लिए उन्होंने काफी कुछ दांव पर लगाया था। तो अविलंब आरंभ करते हैं।
क्रांति के प्रति आसक्त थे एम एन रॉय
21 मार्च 1887 को बंगाल के उत्तरी 24 परगना में स्थित अरबेलिया ग्राम में जन्मे एम एन रॉय का मूल नाम नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य था। वे शाक्त ब्राह्मणों के परिवार में जन्मे थे, जिनका पूजा पाठ से बहुत गहरा नाता था।
जब ये युवावस्था तक पहुंचे, तो बंगाल में विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। लॉर्ड कर्जन ने बिना सोचे समझे बंगाल के विभाजन की घोषणा कर दी। तत्कालीन बंगाल में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की लहर चल रही थी, ऐसे समय में राजनीतिक बोध होना स्वाभाविक था। इस प्रकार प्रारम्भिक अवस्था में ही वे राष्ट्रवादी विचारों के सम्पर्क में आए।
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एम एन रॉय के जीवनी लेखक ‘मुंशी और दीक्षित’ के अनुसार, ‘‘राय का जीवन स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ और स्वामी दयानन्द से प्रभावित रहा। इन सन्तों और सुधारकों के अतिरिक्त उनके जीवन पर विपिन चन्द्र पाल और विनायक दामोदर सावरकर का अमिट प्रभाव पड़ा। शिक्षण के आरंभिक काल में ही आप क्रांतिकारी आंदोलन में रुचि लेने लगे थे। यही कारण है कि आप मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के पूर्व ही क्रांतिकारी आंदोलन में कूद पड़े।
जावा से प्रारंभ हुआ “वनवास”
1908 में अंग्रेज़ों की धरपकड़ के चलते कई क्रांतिकारी हिरासत में लिए गए, परंतु यतीन्द्र नाथ मुखर्जी, नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य सहित कई ऐसे भी थे, जो वर्षों तक अंग्रेज़ों की गिरफ्त में नहीं आ पाए। यतीन्द्रनाथ यानि “बाघ जतिन” के कार्यशैली से नरेंद्रनाथ काफी प्रभावित और वे उन्हे अपना गुरु भी मानने लगे। जब गदर आंदोलन हेतु कुछ कार्यकर्ता चुने गए, जो क्रांतिकारियों की ओर से विदेश से फंड्स इकट्ठा कर सकें, तो नरेंद्रनाथ भी उनमें चयनित हुए। इसी के अंतर्गत उन्होंने इंडोनेशिया के जावा द्वीप पर भेजा गया।
जावा सुमात्रा से अमरीका पहुँच गए और वहाँ आतंकवादी गतिविधि का त्याग कर मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थक बन गए। उनके विचारों की यात्रा का आरम्भ अमेरिका में मार्क्सवादी विचारधारा से हुआ क्योंकि उस समय वे लेनिन के विचारों से प्रभावित थे। मैक्सिको की क्रांति में आपने ऐतिहासिक योगदान किया, जिससे आपकी प्रसिद्धि अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर हो गई। इनके कार्यों से प्रभावित होकर थर्ड इंटरनेशनल में आपको आमंत्रित किया गया था और उन्हें उसके अध्यक्षमंडल में स्थान दिया गया। इन्हे दक्षिण एवं दक्षिणपूर्वी एशिया में कम्युनिज़्म के प्रचार प्रसार हेतु चुना गया।
कैसे घोर कम्युनिस्ट एम एन रॉय बने कम्युनिस्ट विरोधी
परंतु एम एन रॉय की एक और विशेषता थी : वे किसी एक विचारधारा से बंधकर नहीं रहना चाहते थे। उनका मानना था कि उन्होंने विचारों की भौतिकवादी आधार भूमि और मानव के अस्तित्व के नैतिक प्रयोजनों के मध्य समन्वय करना आवश्यक समझा। जहाँ उन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था की कटु आलोचना की, वहीं मार्क्सवाद की आलोचना में भी पीछे नहीं रहे। राय ने सम्पूर्ण मानवीय दर्शन की खोज के प्रयत्न के क्रम में यह निष्कर्ष निकाला कि विश्व की प्रचलित आर्थिक और राजनीतिक प्रणालियाँ मानव के समग्र कल्याण को सुनिश्चित नहीं करतीं। पूँजीवाद, मार्क्सवाद, गाँधीवाद तथा अन्य विचारधाओं में उन्होंने ऐसे तत्वों को ढूँढ निकाला जो किसी न किसी रूप में मानव की सत्ता, स्वतंत्रता, तथा स्वायत्तता पर प्रतिबन्ध लगाते हैं।
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लेनिन की मृत्यु के पश्चात एम एन रॉय को शनै शनै आभास होने लगा कि कम्युनिज़्म केवल नाम के लिए मानव शोषण एवं निर्धनता के विनाश की बातें करता है, असल में वह एक विचारधारा को दूसरे विचारधारा से रिप्लेस करने पर उद्यत है, जहां न संस्कृति के लिए कोई स्थान नहीं है, न स्वच्छंद विचारों के लिए।
सन् 1927 ई. में चीनी क्रांति के समय इन्हे वहाँ भेजा गया, तो इनके मुखर एवं स्वतंत्र विचारों से वहाँ के नेता सहमत न हो सके और मतभेद उत्पन्न हो गया। रूसी नेता इसपर इनसे क्रुद्ध हो गए और स्टालिन के राजनीतिक कोप का इनको शिकार बनना पड़ा। विदेशों में आपकी हत्या का कुचक्र चला। परंतु एम एन रॉय का बाल भी बांका नहीं हुआ। लेकिन कम्युनिज़्म से उनका मोहभंग प्रारंभ हो चुका था।
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ब्रिटिश सरकार के गुप्तचर इनपर कड़ी नजर रखे हुए थे, फिर भी 1930 में ये गुप्त रूप से भारत लौटने में सफल हो गए। मुंबई आकर आप डाक्टर महमूद के नाम से राजनीतिक गतिविधि में भाग लेने लगे। 1931 में आप गिरफ्तार कर लिए गए। छह वर्षों तक कारावास जीवन बिताने पर 20 नवम्बर 1936 को आप जेल से मुक्त किए गए। कांग्रेस की नीतियों से आपका मतभेद हो गया था। यहाँ तक कि इनके क्रांतिकारी योजना यानि “People’s Plan” को भी कई नेताओं ने अपनी स्वीकृति नहीं दी। बाद में अपने सिद्धांत पर आधारित रेडिकल डिमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना इन्होंने की थी। सक्रिय राजनीति से अवकाश ग्रहण कर ये जीवन के अंतिम दिनों में देहरादून में रहने लगे और यहीं २५ जनवरी 1954 को आपका निधन हुआ। ये दुर्भाग्य है हमारा कि ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के बारे में आज भी हमारे इतिहास के पुस्तकों में अध्याय तो छोड़िए, एक लाइन तक नहीं लिखी गई है।
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