शत्रु का शत्रु मित्र : मलिक अम्बर की अनोखी कथा

जहांगीर से बैर से लेकर शाहजी भोसले से साझेदारी तक 

किसी ने सही कहा है, “जब दोस्त बनाके काम चल सकता है, तो दुश्मनी की कया जरूरत”।

किसने सोचा होगा कि जिसे दास बनाकर अफ्रीका से भारत लाएंगे, वही एक दिन अपने “आकाओं” को चुनौती देने लगेगा, और उसी के तौर तरीकों से प्रेरित होकर एक समुदाय भारत भूमि को स्वतंत्र कराने के लिए एक अनोखी राह अपनाएगा। मलिक अम्बर वो व्यक्ति है, जिसे आप समर्थन दे या विरोध करें, परंतु अनदेखा नहीं कर पाएंगे।

इस लेख में मिलिये मलिक अम्बर से, और कैसे वह इथियोपिया की सड़कों से भारत की मध्यकालीन राजनीति में एक महत्वपूर्ण अध्याय बन गए। तो अविलंब आरंभ करते हैं।

इथियोपिया से अहमदनगर तक

हर आक्रांता की भांति मुगलों का भी स्वप्न था : सम्पूर्ण भारत पर नियंत्रण जमाना। परंतु किन्ही कारणों से वे पीछे रह जाते थे। परंतु जब राजकुमार सलीम मुगल बादशाह जहांगीर बने, तो उन्होंने इस अधूरे ख्वाब को पूरा करने के लिए अपने समस्त संसाधन जुटाए।

परंतु इस स्वप्न में आड़े आया अहमदनगर का किलेदार : मलिक अम्बर। इनका जन्म इथियोपिया के हरार नामक नगर में वाको के नाम से हुआ। परंतु जल्द ही इन्हे बंदी बनाकर बगदाद के बाजार में ले जाकर ख्वाजा पीर बगदाद के हाथों बेचा गया।

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ख्वाज़ा मलिक अंबर के साथ दक्षिण भारत पहुंचा जहाँ उसे मुर्तज़ा निजामशाह प्रथम के मंत्री चंगे़ज खाँ ने खरीद लिया। मलिक अंबर की बुद्धि कुशाग्र, प्रकृति प्रतिभायुक्त और उदार थी, अत: उसे अन्य गुलामों की अपेक्षा ख्याति पाने में देर न लगी।

चंगेज खाँ के संरक्षण में रहकर निज़ामशाही राजनीति तथा सैनिक प्रबंध को समझने का उसको अवसर प्राप्त हुआ। चंगेज खाँ की आकस्मिक मृत्यु होने के कारण वह कुछ समय तक इधर-उधर निजामशाही राज्य में ठोकरें खाता रहा।

जहांगीर के लिए सरदर्द

परंतु धीरे धीरे वह बीजापुरी सल्तनत के दृष्टि में आने लगा। जब अहमदनगर पर मुगलों का अधिकार हो गया और निजामशाही राज्य अपनी अंतिम साँसें ले रहा था तब मलिक अंबर को अपने अदम्य साहस, शक्ति एवं गुणों का परिचय देने का अवसर मिला।

उस समय राजकुमार सलीम के अकस्मात् उपर  विद्रोह के कारण मुगल सेना का दक्षिण से हटना अनिवार्य हो गया था। फलत: मलिक अंबर ने मुगलों द्वारा विजय किए हुए प्रदेशों पर अपना अधिकार करना प्रारंभ कर दिया और अहमदनगर, प्राय: समस्त दक्षिण भाग, हस्तगत कर लिया। 1605 तक मलिक अंबर की परिस्थिति दृढ़ ही होती गई।

परंतु मालिक अम्बर इतने पे नहीं रुका। मुगलों से टक्कर लेते लेते उसने खानेखाना को लोहे के चने चबवा दिए। अपने सेनाध्यक्ष खानेखाना की असफलता पर जहाँगीर को क्रोध आया और इसका कारण जानने के हेतु खानेखाना को दरबार में बुलाया गया।

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आगरा पहुँचकर खानेखाना ने विषम परिस्थिति का ब्योरा दिया, अतएव मलिक अंबर की बढ़ती हुई सत्ता का दमन करने के अभिप्राय से वह पुन: दक्षिण भेजा गया। जहांगीर के लिए मलिक अम्बर का अस्तित्व किसी दुस्वप्न से कम नहीं था, और उसे संबोधित करते हुए वह अधिकतम अपशब्दों का ही प्रयोग करता।

अब मलिक अंबर ने बीजापुर और गोलकुंडा से सहायता ली और मुगलों पर टूट पड़ा। उसने खानेखाना की योजना को असफल कर दिया। मलिक अंबर की शक्ति दिन-प्रति-दिन बढ़ती गई और 1610 में समस्या इतनी गंभीर हो गई कि आसफ खाँ ने सम्राट् से अनुरोध किया कि वह स्वयं ही पधारें।

परंतु इसके पूर्व कि वह वहाँ पहुँचे खानेखाना ने, अपने बेटों की मदद से वर्षा ऋतु में मलिक अंबर पर अचानक हमले की योजना बनाकर उसपर हमला कर दिया। मलिक अंबर तो तैयार ही बैठा था। उसने मुगलों के छक्के छुड़ा दिए और खानेखाना को बुरहानपुर लौटने पर बाध्य कर दिया।

उसको एक संधि पर हस्ताक्षर भी करने पड़े। तत्पश्चात् मलिक अंबर ने अहमदनगर के निकटवर्ती प्रदेशों पर अधिकार करके उसके किले पर घेरा ढाला और उसको भी छीन लिया। इन्होंने फतेहपुर नामक नगर भी स्थापित किया, जिसे बाद में औरंगज़ेब ने औरंगाबाद का नाम दिया।

मराठाओं से अनोखा नाता

मलिक अम्बर का मराठा समुदाय से भी एक अजब नाता था। चूंकि मलिक इथियोपिया से नाता रखता था, इसलिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वह भी सिद्दी कहलाता था। अब सिद्दी का हाल ऐसा था, कि वे उनके साथ अधिक रहते थे, जो अपने हाथ में सत्ता प्राप्त करने का दम रखते हो, यानि जिसकी लाठी उसकी भैंस।

ऐसे ही एक समय मराठों की सहायता से उसने एक सेना का निर्माण करके निजामशाही परिवार के अली नाम के व्यक्ति को गद्दी पर बिठाकर परेंदा में नवीन राजधानी स्थापित की।

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ह्रासग्रस्त राज्य का पुन: संगठन करके और सुख शांति के वातावरण का प्रतिपादन करके उसने एक नवीन जाग्रति पैदा कर दी। यूं तो ये काम निज़ामशाही और अपने शक्ति प्रदर्शन के लिए किया था, परंतु मलिक के तौर तरीकों से मराठा भी प्रभावित हुए, और उन्ही में एक थे शाहजी भोंसले, जिनके पुत्र कोई और नहीं, मराठा गौरव, एवं हिंदवी स्वराज्य के संस्थापक, छत्रपति शिवाजी शाहजी भोसले थे।

मलिक अम्बर स्वयं भी मराठों की कार्यकुशलता से अपरिचित नहीं थे। मलिक अंबर की प्रतिभा बहुमुखी थी। वह सुयोग्य सेनापति तो था ही, इसके साथ साथ कुशल नीतिज्ञ और चतुर शासक भी था। उसने मराठों की सैनिक मनोवृत्ति का ठीक मूल्यांकन करके एक नवीन सैनिक प्रणाली का आविष्कार किया। परंतु इसे लागू करने से पूर्व ही वे 1626 में चल बसे। भारतीय इतिहास में ऐसा बिरला ही उदाहरण मिलेगा जब किसी उजड़े हुए राज्य को एक दास ने नवजीवन प्रदान किया हो।

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