भारत का कपास : “आपको पता है, मेरे कपड़े मैनचेस्टर के निर्मित है, और मेरे….” ये बातें देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ऐसे बता रहे थे, जैसे कोई युद्ध जीतकर आ रहे हों। हीन भावना का ऐसा बेढंगा प्रदर्शन आपने कहीं भी नहीं देखा होगा, परंतु जवाहरलाल नेहरू अलग ही मिट्टी के बने थे। परंतु जिस अंग्रेज़ी पद्वति एवं तकनीक पे वे इतना इतरा रहे थे, क्या वे अंग्रेजो की थी?
जी नहीं बिल्कुल नहीं, यह भारत की उत्पत्ति थी.
सूती वस्त्रों की महीनता बहुत कारणों में से एक कारण था, जो अंग्रेज़ समेत कई आक्रान्ताओं को लुभा लाई, तो?
इस लेख में बतायेंगे कि कैसे भारतीय वस्त्र उद्योग का प्रभुत्व एक समय समस्त संसार में था, और कैसे सूती वस्त्रों की महीनता कई विदेशी आक्रान्ताओं, विशेषकर अंग्रेज़ों को लुभा लाई थी। तो अविलंब आरंभ करते हैं।
कपास भारत की उत्पत्ति थी
कपास यानि कॉटन आदिकाल से हमारे इतिहास का भाग रहा है। चाहे सरस्वती सिंधु सभ्यता हो, या फिर वैदिक सभ्यता, कपास एवं सूती वस्त्र हमारे इतिहास का एक अभिन्न अंग रहा है, चाहे भौगोलिक हो, वाणिज्यिक या फिर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से।
5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में भारतीय सूती की महीनता का उल्लेख करते हुए ग्रीक इतिहासकार हेरोडोटस ने कहा है, “ये वो तत्व है जो भेड़ से निकले ऊन को सुंदरता एवं उपयोगिता में भी काफी पीछे छोड़ दे!”
हेरोडोटस गलत नहीं थे, इससे पूर्व यूरोपीय समुदायों को वस्त्रों की मूल सामग्री या उसकी महीनता से कोई लेना देना नहीं था। वे पशुओं अथवा वृक्षों की छाल से बने वस्त्रों से काम चलाते थे, और जब तनिक सभ्यता विकसित हुई, तो वे खुरदरे पदार्थों से बने वस्त्र पहनते थे।
महीन वस्त्रों के नाम पर वे अधिक से अधिक क्षोमवस्त्र यानि लिनेन से बने वस्त्र पहनते थे। इसके बाद भी कुछ भोले प्राणी हमारे भारत भूमि में है, जिन्हे लगता है कि सभ्यता से लेकर महीन वस्त्र, सब विदेशियों, विशेषकर यूरोपियन समुदायों की देन है।
ऐसे में भारत पर अलेक्जेंडर के नेतृत्व में यवनों ने प्रथमत्या आक्रमण किया, तो वे भी भारतीय वस्त्रों की महीनता, विशेषकर सूती वस्त्रों को देखकर अचंभित रह गए।
संसार के कोने कोने में भारतीय वस्त्रों का प्रभुत्व
इससे पूर्व उन्हे कपास के अस्तित्व के बारे में कोई ज्ञान नहीं था। परंतु भारत आकर उन्हें जब कपास और इससे बने वस्त्रों का मूल्य समझ आया, तो इससे सूती का व्यापार भी प्रारंभ हुआ। एक समय ऐसा भी था की संसार के कोने कोने में भारतीय वस्त्रों का प्रभुत्व व्याप्त होने लगा था।
17वीं शताब्दी तक यूरोपीय महाद्वीप अनेक प्रकार के आविष्कार करके भी भारतीय उत्पादों, विशेषकर हमारे सूती वस्त्रों की उत्कृष्टता को पछाड़ नहीं पाई थी। जब कैलिको जैसे पदार्थ यूरोप के बड़े से बड़े, उत्कृष्ट से उत्कृष्ट वस्त्र को पीछे छोड़ सकते थे [जो असल में कपास का एक खुरदरा रूप था], तो फिर सोचिए हमारे महीन सूती वस्त्रों की गुणवत्ता किस प्रकार की रही होंगी?
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वैश्विक मार्केट
कानपुर, मुर्शिदाबाद, काशी जैसे अनेक उद्योग थे, जो सूती से लेकर कैलिको, मुसलिन से बने वस्त्रों के लिए अति लोकप्रिय थे। 17वीं शताब्दी में ग्लोबल टेक्सटाइल उद्योग में भारत का भाग ही 40 प्रतिशत से अधिक का था। हमारे बुनकरों, हमारे वस्त्र निर्माताओं के हाथों में वह जादू था, जो अंग्रेज़ तो क्या, कोई भी यूरोपियन बड़े से बड़े तकनीक से भी सुनिश्चित नही कर पाए।
इसीलिए यूरोपीय देशों में साम्राज्यवाद की भावना उत्पन्न हुई। अगर किसी के उत्पादों से नहीं विजयी हो सकते, तो उसे येन केन प्रकारेण अपना दास बना लो। औद्योगिक क्रांति यानि इंडस्ट्रियल रेवोल्यूशन तो बस बहाना था, भारतीय वस्त्र उद्योग जो निशाना था।
व्यापारियों के भेस में आए आक्रान्ताओं ने शीघ्र ही धर्मांतरण, लूटपाट एवं शैक्षणिक नीति के विध्वंस को अपना हथियार बनाया, और जल्द ही भारतीय वस्त्रों की उपयोगिता एवं उनका प्रभाव वैश्विक मार्केट से गायब होने लगा।
इसलिए, अगली बार अगर कोई आपसे कहे कि मैनचेस्टर न होता, तो संसार को यह न मिलता, पेरिस न होता, तो संसार को यह न मिलता, तो आपको केवल इतिहास के उन पन्नों से धूल हटानी पड़ेगी, जहां भारत एवं उसके जैसे अनेक देशों के उत्कृष्ट उत्पादों के लोभ में यूरोपीय समुदायों के अंदर साम्राज्यवाद का बीज उत्पन्न हुआ था।
हम पिछड़े बिल्कुल नहीं थे, परंतु वर्षों के साम्राज्यवाद, मतारोपण के चलते हमें इस बात में विश्वास दिलाया गया कि हम किसी योग्य हैं ही नहीं, जो भी था सब यूरोपीय सभ्यता ने किया है।
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