अकबर को महान क्यों बताया जाता है? क्योंकि वामपंथी इतिहासकारों के अनुसार, वे सेक्युलर थे, उन्होंने कई राज्यों के साथ मित्रता की, कई हिन्दू राजकुमारियों को अपने घर का हिस्सा बनाया। परंतु जब आज के युग में अतीक अहमद जैसे लीचड़ को कुछ लोग दैवतुल्य सिद्ध करने पर तुले हुए हैं, तो फिर क्या गारंटी है कि चित्तौड़ को नष्ट करने वाला अकबर वाकई में महान था?
इस लेख में पढिये अकबर की वास्तविकता को, जो कुछ भी था, परंतु हिन्दू प्रेमी तो बिल्कुल नहीं।
दुर्बल और भीरु था अकबर
अकबर को मुगलों में सबसे शक्तिशाली, और सबसे परिपक्व बादशाह के रूप में चित्रित किया जाता है, जिसने भारत को अपना बनाने का प्रयास किया। परंतु कैसे बनाया, इसका ज्ञान कम ही लोगों को है। जब पानीपत के युद्ध में सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य इनकी सेना से भिड़े, तो ये इतने वीर थे कि युद्धभूमि से कई कोस दूर वे इस दृश्य को देख रहे थे।
यहाँ तक कि बैरम खान ने जब बेसुध हेमू को इनके समक्ष पेश किया, तो हेमू को इन्होंने स्वयं नहीं मारा। ये काम भी बैरम खान से करवाया। अभी तो हमने इनके निरक्षर होने पर प्रकाश भी नहीं डाला है, अन्यथा आपको पता चल जाता कि वास्तव में अकबर एक भीरु व्यक्ति से अधिक कुछ न थे, जो कोई भी निर्णय स्वयं लेने में लगभग असमर्थ थे।
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चित्तौड़ का अनकहा सत्य
अकबर को धर्मपरायण एवं पंथनिरपेक्ष कहा जाता है। ये बात कभी भी भूलकर चित्तौड़ के निवासियों से मत कहिएगा, वरना ऐसी कुटाई होंगी कि आप सीधे खड़े भी नहीं हो पाएंगे। जब राणा उदय सिंह द्वितीय ने मुगल साम्राज्य का संधि प्रस्ताव ठुकराया और अकबर का उपहास उड़ाया, तो उसे कुचलने के लिए अकबर ने चित्तौड़ पर धावा बोला। चूंकि तब तक मेवाड़ की राजधानी उदयपुर बन चुकी थी, इसलिए दरबारियों ने राणा को परिवार सहित उदयपुर स्थानांतरित होने का सुझाव दिया। जयमाल राठौड़ और पट्टा के नेतृत्व में चित्तौड़ में एक सशक्त सेना और कुछ तीस से चालीस हजार नागरिक बचे थे।
मेवाड़ी सेना ने बहादुरी से युद्ध किया, परंतु मुगल सेना ने छल के बल पर ये युद्ध जीता। इसके बाद जो हुआ, वो एक पंथनिरपेक्ष योद्धा कभी नहीं करता। अकबर की चित्तौड़ विजय के विषय में अबुल फजल ने लिखा था- ”अकबर के आदेशानुसार प्रथम ८००० राजपूत योद्धाओं को बंदी बना लिया गया और बाद में उनका वध कर दिया गया। उनके साथ-साथ विजय के बाद प्रात:काल से दोपहर तक अन्य ४०००० किसानों का भी वध कर दिया गया जिनमें ३००० बच्चे और बूढ़े थे।” (अकबरनामा, अबुल फजल, अनुवाद एच. बैबरिज), चित्तौड़ की पराजय के बाद महारानी जयमाल मेतावाड़िया समेत १२००० क्षत्राणियों ने मुगलों के हरम में जाने की अपेक्षा जौहर की अग्नि में स्वयं को जलाकर भस्म कर लिया। जरा कल्पना कीजिए विशाल गड्ढों में धधकती आग और दिल दहला देने वाली चीख-पुकारों के बीच उसमें कूदती १२००० महिलाएं।
इसके अतिरिक्त ‘जोधा अकबर’ में जिस प्रकार से अकबर को न्यायप्रिय, धर्मनिष्ठ शासक के रूप में दिखाया गया है, उसका लेशमात्र भी नहीं था वो। स्त्रियों पर उसकी विशेष नजर रहती थी और उसने तो एक विशेष फरमान जारी किया था कि जो भी कन्या बिना घूंघट या हिजाब चौराहे पर दिखी, उसे अविलंब वेश्या घोषित कर दो! अब आप भी उसे महान कहने का सामर्थ्य रखेंगे?
अपने हरम को सम्पन्न करने के लिए अकबर ने अनेक हिन्दू राजकुमारियों के साथ जबरन शादियां की थी परन्तु कभी भी, किसी मुगल महिला को हिन्दू से शादी नहीं करने दी। केवल अकबर के शासनकाल में 38 राजपूत राजकुमारियां शाही खानदान में ब्याही जा चुकी थीं।
अकबर की मृत्यु
अगर अकबर वास्तव में इतना न्यायप्रिय और धर्मनिष्ठ था, तो उसके विरुद्ध अफ़गान से लेकर राजपूतों ने विद्रोह क्यों किया? महाराणा प्रताप को उनके विरुद्ध विद्रोह करने की क्या आवश्यकता थी, वे पंथनिरपेक्ष थे न?
अकबर ने अपनी अय्याशी के लिए इस्लाम का भी दुरुपयोग किया था। चूंकि सुन्नी फिरके के अनुसार एक मुस्लिम एक साथ चार से अधिक औरतें नहीं रख सकता और जब अकबर उस से अधिक औरतें रखने लगा तो काजी ने उसे रोकने की कोशिश की। इससे नाराज होकर अकबर ने उस सुन्नी काजी को हटा कर शिया काजी को रख लिया क्योंकि शिया फिरके में असीमित और अस्थायी शादियों की इजाजत है, ऐसी शादियों को अरबी में “मुताह” कहा जाता है। दीन ए इलाही भी इसीलिए प्रारंभ किया गया, क्योंकि अकबर को अपने मन की करने को नहीं मिलती थी।
अबुल फज़ल ने अकबर के हरम को इस तरह वर्णित किया है कि “अकबर के हरम में पांच हजार औरतें थीं और ये पांच हजार औरतें उसकी ३६ पत्नियों से अलग थीं। शहंशाह के महल के पास ही एक शराबखाना बनाया गया था। वहां इतनी वेश्याएं इकट्ठी हो गयीं कि उनकी गिनती करनी भी मुश्किल हो गयी। अगर कोई दरबारी किसी नयी लड़की को घर ले जाना चाहे तो उसको अकबर से आज्ञा लेनी पड़ती थी। कई बार सुन्दर लड़कियों को ले जाने के लिए लोगों में झगड़ा भी हो जाता था।”
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लेकिन इतना अत्याचार करने का एक अजब असर भी अकबर पर पड़ा। उसे पेचिश की बीमारी हुई, और वह तड़प तड़प कर मरा। परंतु मृत्यु के बाद आगरा के सिकंदरा में जहां उसे दफनाया गया, वहाँ भी उसके अवशेष नहीं रह पाए। 1691 में जाट किसानों के एक समूह ने विभिन्न अत्याचारों के पीछे एक समय आगरा पर धावा बोला, और अकबर की कब्र खोद, उसके समस्त अवशेष निकालकर अग्नि के हवाले कर दिए।
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