कश्मीर के डोंगराओं ने घाटी का पुनः हिन्दुकरण कर ही दिया था, परंतु तब आई विपदा

काश गुलाब सिंह जी ने इनकी न सुनी होती!

डोगरा राज : आज कश्मीर प्रांत इस्लाम बाहुल्य है, यानि मुस्लिम बहुतायत में है। परंतु प्रारंभ से ऐसा नहीं था, और एक समय ऐसा भी आया था, जब कश्मीर के एक शासक ने इस पवित्र भूमि को इसकी मूल जड़ों से जोड़ने का प्रयास किया था। परंतु दुर्भाग्यवश ऐसा न हो सका.

इस लेख में पढिये उस एक अवसर को, जहां कश्मीर पुनः केसरिया हो सकता था, परंतु कुछ लोगों की कुंठा के कारण ऐसा न हो सका।

कश्मीर: कार्कोट वंश से डोगरा राज तक

“जहां शिव, सरस्वती, ऋषि कश्यप हुए, वो कश्मीर हमारा है। जहां शंकराचार्य ने तप किया, वो कश्मीर हमारा है” ये बातें यूं ही “द कश्मीर फाइल्स” में नहीं कही गई थी। यही कश्मीर की वास्तविक पहचान है। एक समय था, जब कश्मीर केवल भौगोलिक रूप से ही नहीं, अपितु आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से “भारत का मुकुट” था।

यहाँ से कार्कोट वंश उत्पन्न हुआ, जिसने भारत को लगभग 3 शताब्दियों तक विदेशी आक्रान्ताओं से बचाए रखा। अगर वामपंथियों का प्रभुत्व न होता, तो आज मुगलों का कम, और सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ का गुणगान अधिक होता, और उनके शौर्य से बच्चा बच्चा इस देश का परिचित होता।

यह वही कश्मीर था, जहां कभी दिद्दा जैसी वीरांगना राज करती थी, जिन्होंने महमूद गजनवी को कश्मीर के आसपास भी फटकने नहीं दिया था। परंतु 14वीं शताब्दी तक स्थिति बदल गई, और जल्द ही भारत के अन्य हिस्सों की भांति कश्मीर भी इस्लामिक आक्रान्ताओं के नियंत्रण में आ गया। इसे छुड़ाने के बहुत प्रयास हुए, परंतु सफलता जाकर मिली 18 वीं शताब्दी में मिली, जब सिखों और हिन्दू डोंगरा राज के संयुक्त नेतृत्व में कश्मीर को स्वतंत्र कराया गया।

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गुलाब सिंह की अधूरी इच्छा

धीरे धीरे डोगरा वंश का प्रभाव इतना बढ़ा, कि स्वयं सिख साम्राज्य भी इन्हे अनदेखा नहीं कर पाया, और जब महाराजा रंजीत सिंह का समय आया, तो उन्होंने एक योद्धा की निष्ठावान सेवा को देखते हुए उनके हाथों में सम्पूर्ण कश्मीर प्रांत की बागडोर सौंपी। इनका नाम था गुलाब सिंह, और इन्होंने वर्तमान जम्मू एवं कश्मीर प्रांत की रूपरेखा तय की।

परंतु गुलाब सिंह केवल इतने तक सीमित नहीं थे। वे एक कर्तव्यपरायण, धर्मनिष्ठ शासक थे। उन्होंने सनातन संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए कई कार्य किये। इसके अतिरिक्त वे इस बात से भी परिचित थे कि रंजीत सिंह और हरी सिंह नलवा के अतिरिक्त पंजाब को संभालने योग्य और कोई नहीं है।

ऐसे में जब उन पर आरोप लगा कि वे सिख साम्राज्य के साथ “विश्वासघात” कर रहे हैं, तो उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ एक अनोखी संधि की, जिससे जम्मू और कश्मीर तो उनका हुआ ही, और साथ ही साथ अंग्रेज़ों के दोहरे मापदंड एक प्रकार से उन्ही अंग्रेज़ों पर भारी पडने लगे। 1846 में आखिरकार गुलाब सिंह को निर्विरोध रूप से जम्मू कश्मीर का शासक घोषित करना ही पड़ा, क्योंकि सिख साम्राज्य उस समय तक लगभग निष्क्रिय हो चुका था, और अंग्रेज़ों से वे अलग भिड़ंत में जुटे हुए थे।

परंतु क्या आपको पता है कि 1850 में जम्मू एवं कश्मीर का पुनः हिन्दूकरण होने वाला था? कहा जाता है कि कई निवासी ऐसे थे, जो किन्ही कारणों से इस्लाम में परिवर्तित होने को विवश थे, परंतु अब डोगरा वंश की छत्रछाया में वे सनातन धर्म में पुनर्वापसी करना चाहते थे। महाराजा गुलाब सिंह इस बात के लिए तैयार भी थे, परंतु ऐसा हो नहीं सका। आपको पता है क्यों? क्योंकि उसी कश्मीर के एक समुदाय ने स्पष्ट कर दिया कि अगर इन्हे सनातन धर्म में वापिस लिया, तो वे कश्मीर त्याग देंगे, अथवा इस्लाम में परिवर्तित हो जाएंगे। ब्रिटिश इतिहासकारों के अनुसार ये “काशी के पंडित” थे, परंतु स्थानीय सूत्रों और कुछ संस्मरणों की माने तो ये कश्मीरी पंडित थे, जिनका युगों युगों से कश्मीर के राजनीति एवं संस्कृति में अभूतपूर्व योगदान था।

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अगर ये सफल होते तो

वो कहते हैं न, बिना आग के धुआँ नहीं निकलता। कुछ तो इस बात में सत्यता अवश्य रही होंगी, अन्यथा वो क्या कारण है कि आज भी डोगरा समुदाय और कश्मीरी पंडित समुदाय अधिकतम समय एक दूसरे से दूर रहना श्रेयस्कर समझते हैं? जब महाराजा हरी सिंह भारत से जुड़ना चाहते थे, तब भी आश्चर्यजनक रूप से एक कश्मीरी पंडित, और उनके प्रधानमंत्री रामचन्द्र काक ने इस प्रस्ताव का विरोध किया था। यह केवल संयोग तो नहीं हो सकता। अब सोचिए, अगर महाराजा गुलाब सिंह ने अपने हृदय की सुनी होती, तो? कश्मीर की आधे से अधिक समस्या वहीं सॉल्व हो जाती।

Sources:

 

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