Kisi Ka Bhai Kisi Ki Jaan movie Review: जब फिल्म प्रारंभ हुआ, तो इस फिल्म में एक किरदार ने स्थिति देखते हुए कहा : कहाँ फंस गया यार? परंतु वह अकेला नहीं था! हम भी इस फिल्म को देखकर यही बोले : कहाँ फंस गया यार?
इस लेख में पढिये “किसी का भाई किसी का जान” फिल्म की समीक्षा (Kisi Ka Bhai Kisi Ki Jaan movie Review).
Kisi Ka Bhai Kisi Ki Jaan movie Review
युगों पहले एक फिल्म आई थी: वीरम! उसमें अजीत ने अलग बवाल काटा था, और मजाक नहीं कर रहा हूँ, मनोरंजन भरपूर था। परंतु गंदी मैग्गी बनाना भी एक कला है, जिसमें फरहाद सामजी ने तो पीएचडी कर रखी है।
उसी का परिणाम है किसी का भाई किसी की जान। एक परीक्षा में 100 में से 0 लाये हो, और अगले में नकल मारकर भी 100 में 30, तो इंप्रूव भले किये हों, पास तो नहीं हुए न। यही बात इस फिल्म पे भी लागू होती है।
जितनी तत्परता से फिल्म का शीर्षक बदले थे, उतनी तत्परता से तनिक स्क्रिप्ट भी देख लेते
अब कहानी तो वही है, मोहल्ले का एक गुंडा है, जिसे सब भाईजान कहकर बुलाते हैं। वह अपने तीन दत्तक भ्राताओं पे जान छिड़कता है, परंतु उसका भय ऐसा है कि वे अपनी इच्छायें भी प्रकट नहीं कर पाते। इसी बीच एक कन्या को उससे प्रेम हो जाता है, परंतु दिक्कत ये है कि उसके अन्ना को हिंसक लोग पसंद नहीं। कैसे भाईजान उन्हे मनाता है, और कैसे वह सभी दिक्कत दूर करता है, किसी का भाई किसी की जान उसी का परिणाम है।
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फरहाद सामजी, जितनी तत्परता से फिल्म का शीर्षक बदले थे, उतनी तत्परता से तनिक स्क्रिप्ट भी देख लेते। बच्चन पांडे से तनिक बेहतर स्क्रिप्ट बनाना रीटच है, इम्प्रूवमेन्ट नहीं। इसके गाने तो इतने हैं कि आप कन्फ्यूज हो जाओगे कि गानों में फिल्म है, कि फिल्म में गाना। अगर आपको रवि बसरूर के कान फोडू BGM से समस्या है, तो तनिक “किसी का भाई, किसी की जान” का अनुभव कीजिए। विश्वास मानिए, रवि भाई आपको देव माणूस लगने लगेंगे।
बॉलीवुड में एक अलग ही कॉम्पिटिशन चल रहा है
आम तौर पर लोग सोचते हैं कि दूसरों से बेहतर फिल्में कैसे बनाएँ। लेकिन “किसी का भाई किसी का जान” देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि बॉलीवुड में एक अलग ही कॉम्पिटिशन चल रहा है: कौन कितनी घटिया फिल्में बना सकता है। जब “इंसानियत में है दम : वंदे मातरम” जैसे डायलॉग हों, तो समझ जाइए कि क्रिन्ज आर्ट की एक परिभाषा गढ़ी जा रही है।
हमें नहीं पता था कि “सेलमोन भोई वार्षिक रोजगार योजना” फिल्मों में भी लागू होती है। लेकिन अगर यही करना था, तो थोड़ा बेहतर डायरेक्टर चुनते, फरहाद सामजी ही क्यों। निर्देशक किसी अभिनेता से बेहतर निकलवाने का भरपूर प्रयास करते हैं, परंतु फरहाद सामजी का एकमेव लक्ष्य दिखता है : कैसे किसी भी सुपरस्टार से उसका सबसे खराब एक्टिंग करवा सकता हूँ, और वेंकटेश अन्ना भी इस प्रकोप से बच न पाए। अब दो बातों पर पर प्रश्न उठता है : जगपति बाबू ने क्या इसलिए “तान्हाजी” छोड़ी थी? दूसरा, आखिर अजय देवगन और श्रेयस तलपड़े इसके प्रकोप से बच कैसे गए?
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इसे फिल्म नहीं, वास्तव में सेलमोन भोई का जिम रूटीन कहना चाहिए। रोज़ सुबह उठो, नहाओ, एक्टिंग के नाम पर जितना हो सके, उतना कसरत करो, दो चार घूंसे लात चलाओ, नाचो और सो जाओ। न मैं सेलमोन भोई का प्रशंसक हूँ, न उसका कट्टर विरोधी, पर भाई अगर अपने चहेते प्रशंसकों से लात नहीं खानी, तो कृपया फरहाद सामजी की संगत न पालें। अक्षय कुमार को ले डूबे ही हैं, अब आपका नंबर है!
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