मेवाड़ और मारवाड़ के बीच का शीत युद्ध : राजपुताना का सबसे बड़ा दुर्भाग्य

एक प्रतिद्वन्दिता ऐसी भी!

मेवाड़ और मारवाड़

अगर GOT देखी हो, तो आपको अंदाज़ा होगा कि सत्ता के लिए लोग किस स्तर तक जा सकते हैं, और कभी कभी साझी संस्कृति कोई मायने नहीं रखती। अपने भारत में भी एक ऐसा क्षेत्र है, जहां युगों पूर्व श्रेष्ठता के पीछे दो प्रांत एक दूसरे से भिड़ने को भी आतुर होते थे, परंतु इसमें हानि केवल राजपूताना की होती थी। इस लेख में जानिये मेवाड़ और मारवाड़ के बीच की प्रतिद्वन्दिता को , जिसने भारतीय इतिहास को एक अलग ही मोड़ दिया, और जिसने कई समय राजपूताना के वर्चस्व को भी प्रभावित किया।

राजपूताना की उत्पत्ति

वर्तमान राजस्थान का इतिहास बेहद समृद्ध रहा है। “वीर भोग्य वसुंधरा” इनके जीवन का मूल मंत्र है। इसमें भी दो राज्यों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही है : मेवाड़ और मारवाड़, जिनका नाम आज भी लोग सम्मान से लेते हैं।

इस स्थान के बारे में एक कहावत भी प्रचलित है, “गेहूं छोड़ के मक्की खाना पण मेवाड़ छोड़ कहीं न जाना!”, अर्थात परिस्थितियाँ कैसी भी हो, मेवाड़ को त्यागना किसी पाप से कम न होगा।

मेवाड़ और मारवाड़ का अन्तरयुद्ध

तो मारवाड़ की स्थापना कैसे हुई? इनका नाता प्रतिहार वंश से अधिक था, और ये अपने आप को राष्ट्रकूट वंश के वंशज बताते हैं। 6 वीं शताब्दी में मंडोर में एक राजधानी के साथ कुछ प्रतिहारों ने मारवाड़ में एक राज्य स्थापित किया, वर्तमान जोधपुर से 9 कि.मी. जोधपुर से 65 किमी, प्रतिहार काल का एक महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र था।

जोधपुर का शाही राठौर परिवार प्रसिद्ध राष्ट्रकूट वंश से वंश का दावा करता है।राष्ट्रकूट वंश के पतन पर वे उत्तर प्रदेश के कन्नौज चले गए। जब पृथ्वीराज चौहान की पराजय हुई, तो राठौड़ परिवार यहीं स्थानांतरित हुआ।

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उधर मेवाड़ का इतिहास बहुत ही समृद्ध और गरिमामयी रहा है। इनके लगभग हर योद्धा पर आप उपन्यास से लेकर फिल्म और वेब सीरीज़ बना सकते है। जब अरबियों ने आक्रमण किया था, तो सम्राट नागभट्ट और सम्राट ललितादित्य मुक्तपीड़ के साथ मिलकर यहाँ के सम्राट कालभोजादित्य ने उन्हे छठी का दूध याद दिलाया, और तब तक नहीं रुके, जब तक अरबी उनके प्रकोप से भाग खड़े नहीं हुए। सम्राट कालभोजादित्य को ही बप्पा रावल के नाम से भी जाना जाता है, और इन्होंने मेवाड़ के प्राथमिक परिवार, गुहिल वंश की स्थापना की।

अब गुहिल वंश का अंत रावल रत्नसिंह की पराजय एवं उनकी मृत्यु के साथ हुआ। परंतु उनके कुछ दूर के रिश्तेदार भी थे, जो सिसोद ग्राम में रहते थे। इन्ही में से एक थे अजय सिंह सिसोदिया, जो अलाउद्दीन खिलजी के साथ हुए युद्ध में बच गए थे, और गंभीर रूप से घायल हुए थे। परंतु उनके मन में कुछ और ही था, और वे तब तक नहीं रुके, जब उन्होंने अपने वंश के अंतिम अंश, हम्मीर सिंह को ढूंढ नहीं निकाला।

इन्ही हम्मीर सिंह ने न केवल चित्तौड़ के गौरव को पुनर्स्थापित किया, अपितु राजपूताना में मेवाड़ की एक अद्वितीय पहचान स्थापित की। इन्ही के नेतृत्व में सन 1336 में समस्त राजपूताना एक हुआ और मुहम्मद बिन तुगलक को पराजित कर राजपूताना को स्वतंत्र कराया।

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कहने को मेवाड़ और मारवाड़ वैसे ही हैं, जैसे एक सिक्के के दो पहलू। तो ऐसा क्या हुआ, जिसके पीछे ये दो राज्य एक दूसरे के शत्रु बन गए? जब राणा मोकाल की हत्या हुई, तो युवा कुम्भ सिंह को उनका राज्य दिलाने में उनके मारवाड़ी काका, राव रणमल ने खूब सहायता की। कुम्भ सिंह राणा कुम्भ बने, और उनके नेतृत्व में मेवाड़ अपने शिखर पर पहुंचा। परंतु जाने क्या हुआ, कि दोनों के बीच काफी भ्रम उत्पन्न हुए, और राव रणमल की हत्या कर दी गई। मारवाड़ ने मेवाड़ को इसके लिए दोषी माना, और लगभग दो शताब्दियों तक एक अलग ही गृहयुद्ध चला। यह अंतर्कलह भी एक कारण था जिसके पीछे महाराणा प्रताप को चाहकर भी वह समर्थन नहीं मिला, जिसके बल पर वह मुगलों का विध्वंस कर सके।

अगर एक होते तो….

मेवाड़ और मारवाड़ के बीच जो हुआ, वो रोका जा सकता था। परंतु ऐसा भी नहीं था कि ये कभी एक ही नहीं हुए। शताब्दियों बाद एक अवसर आया, जब औरंगज़ेब ने सम्पूर्ण राजपूताने का इस्लामिकरण कराना चाहा। इसका मेवाड़ और मारवाड़ ने जबरदस्त विरोध किया, और उन्होंने औरंगज़ेब को चुनौती देने की ठान ली।

इसका प्रारंभ महाराणा राज सिंह ने किया था, जिन्होंने किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति को मुगलों के चंगुल से छुड़ाकर औरंगज़ेब को चुनौती दी। उनका साथ आगे चलकर दुर्गादास राठौड़ जैसे योद्धाओं ने दिया, जो मारवाड़ के सबसे प्रभावशाली योद्धाओं में से एक थे। इन्ही के प्रयासों से राजपूताना ने पुनः अपनी स्वतंत्रता पाई। काश ये एकता पूर्व में आई होती।

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