गोपीनाथ बोरदोलोई : असम के रक्षक!

आज भी इनके ऋणी हैं असम के वासी!

हमारे देश का इतिहास बड़ा विचित्र है। जब बात आती है देश के नायकों को उचित सम्मान देने की, तो उन्हे अखबार का एक स्तम्भ भी प्राप्त नहीं होता। परंतु जब बात आती है देश का अहित चाहने वालों, तो उनके लिए तो दिल खोलकर “सम्मान” लुटाया गया है। परंतु कुछ नायक ऐसे भी हैं, जिन्हे चाहकर भी वामपंथी भारतीय इतिहास से नहीं मिटा पाए। गोपीनाथ बोरदोलोई ऐसे ही एक महानायक है।

इस लेख में पढिये कि कैसे गोपीनाथ बोरदोलोई के प्रयासों से असम और लगभग समस्त पूर्वोत्तर पूर्वी पाकिस्तान का भाग बनने से बच गया, और कैसे उनके प्रयासों की गूंज धीरे धीरे अब समस्त भारत में सुनाई दे रहे हैं।

पूर्वोत्तर में कांग्रेस की आवाज़ थे गोपीनाथ

गोपीनाथ का जन्म 6 जून 1890 को रहा नामक स्थान में हुआ था। जब ये मात्र 12 वर्ष के थे, तो इनकी माता का देहांत हो गया। परंतु हिम्मत न हारते हुए इन्होंने अपने आप को और समस्त परिवार का हौसला बढ़ाया। 1907 में मेट्रिक पास करने के बाद इनको कॉटन कॉलेज में प्रविष्टि मिली।

उन्होने 1907 में प्रथम श्रेणी में आई. ऐ. पास किया और उसी स्कॉटिश चर्च कॉलेज, कोलकाता में प्रवेश लिया, जिससे कभी नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपनी स्नातक की शिक्षा पूर्ण की, और गोपीनाथ ने 1911 में स्नातक की डिग्री ली। 1914 में इन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से ए॰ ऐ. किया। इन्होने तरुण राम फुकन के कहने पर सोनाराम हाई स्कूल में प्रिसिपल की अस्थाई नौकरी कर ली। उसी दौरान इन्होने क़ानून की परीक्षा दी और पास भी हुए, 1917 में गुवाहाटी में प्रक्टिस शुरू कर दी।

गोपीनाथ मोहनदास करमचंद गांधी के विचारों से बहुत प्रभावित हुए, और शीघ्र ही उन्होंने कांग्रेस पार्टी जॉइन की। 1937 में जब असम में कांग्रेस की राजकीय सरकार बनी, तो उन्होंने 1 वर्ष तक मुख्यमंत्री का पद संभाला।

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नेहरू की बेरुखी इन्हे न भाई

तो फिर ऐसा क्या हुआ कि कभी कांग्रेस के प्रिय रहे गोपीनाथ ने कांग्रेस के ही विरुद्ध मोर्चा खोल दिया? असल में जब INA के ट्रायल्स ने ब्रिटिश प्रशासन को स्पष्ट करा दिया कि अब उनका भारत में टिके रहना असंभव है, तो उन्होंने अपनी कैबिनेट के कुछ सदस्यों को सत्ता के हस्तांतरण हेतु भेजा। 1946 के कैबिनेट मिशन ने राज्यों की ग्रुपिंग का प्रस्ताव दिया, जिसके आधार पर आगे चलकर भारत के विभाजन की नींव पड़ी।

इसी में असम समेत समस्त पूर्वोत्तर को पूर्वी पाकिस्तान से संबंधित प्रांतों के साथ एक ही ग्रुप में डाल दिया गया। गोपीनाथ इसके सख्त विरुद्ध थे, क्योंकि वे भली भांति जानते थे कि कट्टरपंथियों के हाथ में अगर असम का शासन आ गया। इससे अधिक उन्हे जवाहरलाल नेहरू की बेरुखी खटकी, जिन्हे पूर्वोत्तर में कोई विशेष रुचि नहीं थी। परंतु सरदार पटेल के यहाँ से गोपीनाथ खाली हाथ नहीं लौटे, और उन्होंने असम के भारत में बने रहने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अगर ये नहीं होते, तो आज असम और अधिकांश पूर्वोत्तर भारत बांग्लादेश [पूर्व में पूर्वी पाकिस्तान] का भाग होता।

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इन्होंने ही NRC की नींव रखी

गोपीनाथ बोरदोलोई का स्पष्ट मानना था : असम के सम्बन्ध में जो भी निर्णय किया जाएगा अथवा उसका जो भी संविधान बनाया जाएगा, उसका अधिकार केवल असम की विधानसभा और जनता को होगा। उनकी इसी दूरदर्शिता के कारण असम इस षड़यंत्र का शिकार होने से बच सका और भारत का अभिन्न अंग बना रहा।

योगदान भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में योगदान के अलावा गोपीनाथ बोरदोलोई ने असम की प्रगति और विकास के लिए अनेक कार्य किये। इन्ही के तुष्टीकरण विरोधी नीतियों के कारण NRC की नींव पड़ी थी।

विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान से आये लाखों निर्वासितों के पुनर्वासन के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की।  उन्होंने आतंक के उस माहौल में भी राज्य में धार्मिक सौहार्द कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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गुवाहाटी विश्वविद्यालय, असम उच्च न्यायालय, असम मेडिकल कॉलेज और असम वेटरनरी कॉलेज जैसे महत्वपूर्ण संस्थानों की स्थापना उनके प्रयासों के कारण ही हो पायी। एक राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ गोपीनाथ बोरदोलोई एक प्रतिभाशाली लेखक भी थे।

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