वो कहते हैं “दुर्घटना से देर भली”। आज भारत की आक्रामकता से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। परंतु स्वतंत्रता के पश्चात प्रारम्भिक दो दशकों में ऐसा नहीं था। चीन ने हमारा क्या हाल बनाया, इससे कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। परंतु अगर अति आत्मविश्वास में पाकिस्तान ने एक षड्यन्त्र न बनाया होता, तो 1965 में भारत की 1962 से भी भयानक पराजय हुई होती। परंतु पाकिस्तान को इतना ओवर कॉन्फिडेन्स आया कहाँ से? लालबहादुर शास्त्री की बेवकूफी के कारण।
इस लेख में जानिये कच्छ के उस विवाद, जिसने लालबहादुर शास्त्री को लगभग नेहरू वाली गलतियाँ दोहराने पर विवश किया।
नेहरू की मृत्यु से देश में राजनीतिक संकट
जब 1964 में नेहरू की मृत्यु हुई, तो फिर देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो गई। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बनने को इच्छुक थे, परंतु के. कामराज के नेतृत्व में कांग्रेस कमेटी ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। चूंकि इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद संभालने को “इच्छुक” नहीं थी, इसलिए के. कामराज ने लाल बहादुर शास्त्री को चुना।
परंतु लाल बहादुर शास्त्री की इच्छाशक्ति पर अनेकों लोगों को संदेह था। मोरारजी देसाई तो मोरारजी देसाई, कई कांग्रेसी नेता भी उन्हे सशक्त प्रधानमंत्री नहीं मानते थे। शास्त्री जी चाहते थे कि भारत पर जो अनेक संकट के बादल मंडरा रहे थे, उनसे मुक्ति मिले, परंतु किसी को भी उनपर तनिक भी विश्वास नहीं था। उनके लिए प्रधानमंत्री का पद संभालना किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था।
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“ब्लीड इंडिया विद अ थाउजेंड कट्स” ….
आपने यह लाइन अवश्य सुनी होंगी, “ब्लीड इंडिया विद अ थाउजेंड कट्स”। पाकिस्तान की इस रणनीति से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है, पर इसकी नींव 1964 में अप्रत्यक्ष रूप से पड़ चुकी थी। एक वर्ष पूर्व पाकिस्तान ने अपने नियंत्रण वाले कश्मीर का कुछ भाग चीन को सौंप दिया, और चूंकि भारत ने कोई विरोध नहीं दर्ज किया, इसलिए उन्हे सम्पूर्ण विश्वास था कि उनके आगे की नीतियों पर भी कोई एक्शन या विरोध नहीं होगा।
इसलिए पाकिस्तानी सेना ने एक रणनीति रची : गजनवी रणनीति। यूं तो ये आधिकारिक नाम नहीं है, पर पाकिस्तान का प्लान ऑफ एक्शन सरल था : भारत को एक से अधिक मोर्चों पर घेरना। इसी के अंतर्गत उन्होंने 1965 में कच्छ मोर्चे से आक्रमण किया। परंतु पिछली बार की तुलना में भारतीय सेना सजग थी, और उन्होंने डटकर मुकाबला किया।
सेना उन्हे खदेड़ने वाली ही थी, कि बात यूएन तक पहुँचने की नौबत आ गई। इस डर से प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने एक विशिष्ट समझौता किया, जिसमें भारत को पाकिस्तान द्वारा दावा किये लगभग एक महत्वपूर्ण क्षेत्र को सौंपना पड़ा।
ओवरकॉन्फिडेन्स कभी नहीं फला
इस समझौते ने विरोधियों को आक्रामक होने का सुअवसर दे दिया। नेहरू के कारनामे को साइड में रखते हुए लालबहादुर शास्त्री को काफी उलाहने सुनने पड़े। वे बस युद्ध को टालना चाहते थे, परंतु उनका ये दांव लगभग भारत को ले ही डूबा। परंतु वो कहते हैं न, विपत्ति में ही असली लीडर की पहचान होती है, और शीघ्र ही ये सुअवसर भी आया।
लालबहादुर शास्त्री के इस दांव से पाकिस्तानी सेना इतना आह्लादित हुई कि उन्होंने अब कश्मीर के माध्यम से भारत पर कब्जा स्थापित करने हेतु एक षड्यन्त्र रचा। 8 वीं शताब्दी में जो अरबियों ने स्पेन के साथ किया, उसी के आधार पर सेनाध्यक्ष मुहम्मद मूसा खान की देखरेख में “ऑपरेशन जिब्राल्टर” की नींव रखी गई।
इसमें कश्मीरियों को भड़काकर पूरे प्रांत में अराजकता फैलाने और पहले एक कश्मीर, फिर पंजाब समेत उत्तर भारत के कई क्षेत्रों पर कब्जा जमाने का ब्लूप्रिंट सम्मिलित था। पाकिस्तान इतना विश्वस्त इसलिए भी था कि भारत प्रतिकार नहीं करेगा क्योंकि इंटेलिजेंस ब्यूरो [जो उस समय भारत की आंतरिक और बाह्य दोनों इंटेलिजेंस की देखभाल करता था] इतना सब कुछ होने पर भी घोड़े बेचकर सोच रहा था। इस ऑपरेशन का नेतृत्व पाकिस्तान के कुछ सैन्य अफसर स्वयं कर रहे थे, जिनमें इंडियन नेशनल आर्मी के पूर्व मेजर मालिक मुनव्वर खान आवान भी सम्मिलित थे।
परंतु भारतीय सेना की मिलिट्री इंटेलिजेंस चुप नहीं थे। अपने सीमित संसाधनों में भी उन्हे इस षड्यन्त्र की भनक लग गई, और जब जनरल जयंतो नाथ चौधुरी ने ये बात पीएम शास्त्री को साझा की, तो वे भी समझ गए कि अब युद्ध से मुंह नहीं मोड़ सकते।
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उन्होंने जो किया, उसका संक्षेप में उन्होंने एक रैली में उल्लेख भी किया, “सदर अयूब कहते हैं [पाकिस्तान के राष्ट्राध्यक्ष] कि दिल्ली कौन दूर है, हम चहलकदमी करते हुए पहुँच जाएंगे। हमने सोचा कि बड़े आदमी, वो क्यों यहाँ तक आने का कष्ट उठाएँ, हम ही लाहौर पहुंचकर उनका इस्तकबाल करते हैं”।
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