कूटनीति अगर एक खेल होता, तो भारत निस्संदेह इसका विशिष्ट विशेषज्ञ होता। कोई माने न माने, परंतु भारत में कूटनीति का एक अलग ही महत्व है। परंतु स्वतंत्रता के पश्चात के कुछ वर्षों तक ऐसा नहीं था, और हमने कई ऐसी भूल की, जिसका दुष्परिणाम आज तक भुगतना पड़ता है।
इस लेख में पढिये कि नेपाल एक समय में भारत से जुडने को कैसे उद्यत था, और कैसे इस प्रस्ताव को ठुकराकर भारत को आज भी इसके भौगोलिक एवं सांस्कृतिक दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं।
नेपाल और भारत की सांझी विरासत
नेपाल का प्रशासन भले ही अलग धुन में चलता हो, परंतु भारत और नेपाल की सांझी विरासत को कोई चाहकर भी नहीं नकार सकता। आज भी यहाँ सनातन संस्कृति के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। चूंकि नेपाल और भारत में रोटी पानी का रिश्ता है, इसलिए यहाँ की सीमाएँ भी पाकिस्तान जितनी restricted नहीं है। हर वर्ष यहाँ लोग भगवान शिव के एक अनोखे रूप, पशुपतिनाथ के दर्शन करने आते हैं।
नेपाल की सीमाएँ भारत के दो महत्वपूर्ण राज्य, उत्तर प्रदेश और बिहार से जुड़ी हुई है, और जिस प्रकार से बिहार का नेपाल से सांस्कृतिक नाता रहा है, वह भी अनूठा है। कहते हैं मिथिला प्रांत के कई क्षेत्र वर्तमान नेपाल में भी स्थित थे, और कुछ लोग सांस्कृतिक रूप से नेपाल को “मिथिलाँचल” का ही एक भाग भी मानते हैं। परंतु इस बारे में फिर कभी।
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नेपाल का वो प्रस्ताव, जो इतिहास बदल सकता था
परंतु क्या आपको पता है कि नेपाल एक समय स्वतंत्र भारत का भाग बनना चाहता था? अंग्रेज़ों ने अधिकांश भारत पर नियंत्रण स्थापित था, परंतु नेपाल का भौगोलिक रूप ऐसा था कि अंग्रेज़ चाहकर भी यहाँ सम्पूर्ण नियंत्रण नहीं जमा सके। ऐसे में उन्होंने संधि का प्रस्ताव रखा, जिसे नेपाल ने मान लिया।
परंतु क्या आपको पता है कि एक समय नेपाल भारत में विलय हेतु तैयार था? ये सत्य है कि कोई भी अपनी आज़ादी और पहचान छोड़ना नहीं चाहता था। परंतु नेपाल के तत्कालीन राजप्रमुख का ख्याल था कि भारत के साथ विलय नेपाल के लिए हितकारी रहेगा। इंस्टिट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज़ एंड एनालिसिस यानी IDSA के सदस्य और जेएनयू में प्रोफेसर एसडी मुनि ने इस बार पर प्रकाश भी डाला है। भले ही उन्होंने भारत की प्रतिक्रिया पर कोई ठोस राय नहीं रखी, परंतु उन्होंने ये अवश्य के हवाले से क्विंट की रिपोर्टमें यह बात कही गई है. मुनि ने यह भी कहा :
उस समय भारत के प्रतिनिधि चंद्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह और तत्कालीन नेपाली प्रधानमंत्री मोहन शमशेर जंग बहादुर राणा के बीच शांति और मैत्री संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे। इस संधि को दोनों देशों के बीच राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक संबंधों को स्पष्ट करने वाला दस्तावेज़ माना गया। तबसे यानी राणा के समय से अब तक नेपाल में कई राजनीतिक बदलाव हो चुके हैं और अब भारत के प्रति नेपाल की विदेश नीति भी बदली है।
गिने चुने लोगों यानी राणाओं के शासन और राजा त्रिभुवन के उदय के समय में नेपाल में सियासी उठापटक मची हुई थी, जिसमें सैन्य तरीके भी शामिल थे। त्रिभुवन को नेपाली कांग्रेस के साथ ही उन असंतुष्ट राणाओं का भी समर्थन मिला, जो लोकतंत्र के पक्ष में थे। वहीं, 1950 में नेपाली कांग्रेस ने राणाओं के तख्तापलट के लिए क्रांति की घोषणा की। 1951 में त्रिभुवन नेपाल के प्रमुख बने और फिर उन्होंने अंतरिम संविधान के तहत सीमित लोकतंत्र की बहाली की।
परंतु नेहरू ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया , ये जानते हुए भी कि ये उनके अंतरराष्ट्रीय छवि को और सशक्त बना सकती है। इस पीछे JNU के प्रोफेसर मुनि का दावा था,
“नेहरू जानते थे कि उस समय अंतर्राष्ट्रीय गठबंधनों की राजनीति किस तरह चीन के खिलाफ थी और गोवा के विलय से भारत के खिलाफ कितना विरोध था इसलिए तकनीकी कारणों से नेपाल को भारत में मिलाने को नेहरू ने संभव नहीं माना था लेकिन नज़दीकी रिश्तों की बात 1950 की संधि में ज़रूर थी, जो राणा के समय में हुई थी” ।
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आज भी झेलना पड़ता है दुष्परिणाम
ये बात द क्विंट के एक लेख में भी प्रकाशित हुई, परंतु उसने साथ में ये भी कहा कि त्रिभुवन भारत के साथ बेहद करीबी रिश्ते रखने के पक्ष में थे, यह सही है लेकिन दूसरी तरफ, नेहरू चाहते थे कि नेपाल आज़ाद रहे क्योंकि विलय जैसे किसी कदम से फिर अंग्रेज़ों और अमेरिकियों की दखलंदाज़ी से समस्याएं खड़ी हो सकती थीं। इसी बात का कुछ वर्ष पहले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी अनुमोदन किया था।
परिणामस्वरूप आज भी भारत को नेपाल की ओर से उग्रवाद एवं कम्युनिस्टों का प्रकोप झेलना पड़ता है, जिन्हे चीन बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ता। कल्पना कीजिए अगर नेपाल भी भारत में होता, तो फिर सांस्कृतिक एवं भौगोलिक दृष्टिकोण से भारत को उतनी समस्याएँ नहीं होती, जितना आज उसे झेलनी पड़ती है। केवल यूएन सुरक्षा परिषद में एक स्थाई सीट ही नहीं, नेहरू की अनेक ऐसी भूल थी, जिसके कारण आज भी इतिहास उन्हे क्षमा नहीं कर सकेगा।
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