“राणा सांगा अपनी वीरता और तलवार के बल पर अत्यधिक शक्तिशाली हो गया है। वास्तव में उसका राज्य चित्तौड़ में था। मांडू के सुल्तानों के राज्य के पतन के कारण उसने बहुत-से स्थानों पर अधिकार जमा लिया। उसका मुल्क 10 करोड़ की आमदनी का था, उसकी सेना में एक लाख सवार थे। उसके साथ 7 राव और 104 छोटे सरदार थे। उसके तीन उत्तराधिकारी भी यदि वैसे ही वीर और योग्य होते, तो मुगलों का राज्य हिंदुस्तान में जमने न पाता”
जब बाबर जैसा आक्रांता किसी के बारे में अपने संस्मरणों में ऐसे लिखे, तो सोचिए वह योद्धा वास्तव में कितना शक्तिशाली रहा होगा। इस लेख में पढिये राणा सांगा के अद्वितीय गौरव को.
मेवाड़ का गौरव
जब राणा कुम्भ की हत्या हुई, तो कुछ समय के लिए उदय सिंह प्रथम ने शासन संभाला। परंतु जिसने अपने पिता की ही हत्या की हो, वो मेवाड़ की पवित्र भूमि पर कैसे टिकता? शीघ्र ही उसे रायमल सिसोदिया ने मार भगाया, और उन्होंने अपने पिता के आदर्शों पर चलते हुए मेवाड़ को राजपूताना का सबसे शक्तिशाली एवं समृद्ध राज्य बनाया।
अब जब राणा रायमल वृद्ध होने लगे, तो प्रश्न उठा कि इनके बाद मेवाड़ का शासन कौन संभालेगा? उनके तीन पुत्र थे : पृथ्वीराज, जयमाल और संग्राम, और तीनों ही एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते। कहते हैं कि जब वे एक योगिनी के शरण में गए, तो उन्होंने संग्राम को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बताया। क्रोधित पृथ्वीराज ने संग्राम पर हमला किया, परंतु वे बच गए, वो अलग बात थी कि उन्हे अपने एक आँख का बलिदान देना पड़ा। जल्द ही पृथ्वीराज और जयमाल आपस में लड़ मरे, और अजयमेरु प्रांत [अब अजमेर] की सहायता से संग्राम सिंह को मेवाड़ की राजगद्दी प्राप्त हुई। यही संग्राम सिंह बाद में राणा सांगा के नाम से प्रसिद्ध हुए।
खानवा का वो विश्वासघात….
जब मुगलों का भारत में आगमन हुआ, तो राणा सांगा के नेतृत्व में मेवाड़ भारत का सबसे शक्तिशाली प्रांत बन चुका था। उसका प्रभुत्व ऐसा था कि राणाजी के एक आह्वान पर एक लाख से अधिक राजपूत इकट्ठा हो सकते थे। उनके पराक्रम का प्रताप था कि लोदी साम्राज्य को कभी दिल्ली और आगरा के क्षेत्र से आगे ही नहीं बढ़ने दिया गया, और मेवाड़ लगभग समस्त उत्तर भारत का अधिकारी था।
80 हज़ार घोड़े, उच्चतम श्रेणी के 7 राजा, 9 राव और 104 सरदारों व रावल, 500 युद्ध हाथियों के साथ युद्ध लडे। अपने चरम पर, संघ युद्ध के मैदान में 100,000 राजपूतों का बल जुटा सकते थे। मालवा, गुजरात और लोधी सल्तनत की संयुक्त सेनाओं को हराने के बाद और मुसलमानों पर अपनी जीत के बाद, वह उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली राजा बन गए। कहा जाता है कि सांगा ने 100 लड़ाइयां लड़ी थीं और विभिन्न संघर्षों में उनकी आँख तथा हाथ और पैर खो गए थे। यूं ही नहीं इन्होंने इब्राहिम लोदी को दो दो बार पराजय का स्वाद चखाया था।
ऐसे ही जब पानीपत के युद्ध में बाबर ने इब्राहिम लोदी को पराजित किया, तो अब अन्य आक्रान्ताओं की भांति मुगलों ने भी भारतवर्ष पर अपना दावा ठोंका। कथित इतिहासकारों के दावों के विपरीत राणा सांगा ने पानीपत में कोई हस्तक्षेप नहीं किया, क्योंकि उन्हे लगा कि बाबर लुटेरा है, अपना लूटपाट करके काबुल वापस चलाया जाएगा।
परंतु जब ऐसा नहीं हुआ, तो राणा सांगा ने बाबर के बढ़ते खतरे को मिट्टी में मिलाने की ठानी। इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए फरवरी 1527 ई. में खानवा के युद्ध से पूर्व बयाना के युद्ध में राणा सांगा ने मुगल सम्राट बाबर की सेना को परास्त कर बयाना का किला जीता | खानवा की लड़ाई में हसन खां मेवाती राणाजी के सेनापति थे। युद्ध में राणा सांगा के कहने पर राजपूत राजाओं ने पाती पेरेवन परम्परा का निर्वाहन किया।
बयाना के युद्ध से प्रेरित होकर राणा सांगा ने बाबर के समूल नाश की ठानी। 16 मार्च,1527 ई. में खानवा की रणभूमि में मुगलों और राजपूतों में भीषण युद्ध हुआ। मुगल संख्याबल में राजपूतों के आधे भी नहीं थे, परंतु उन्हे अपने तोपखाने और बंदूकों पर पूर्ण विश्वास नहीं था। परंतु प्रारंभ में ये सब निष्फल पड़ रहा था।
इतिहास कुछ और ही होता….
दो बार मुगलों ने राजपूतों को पीछे धकेल दिया, लेकिन राजपूत घुड़सवारों के अथक हमलों के कारण वे अपने मोर्चे से पीछे हटने के लिए मजबूर हो गए। परंतु इसी समय कुछ ऐसा हुआ, जिसने भारत का इतिहास बदल दिया। रायसेन के सिल्हदी उर्फ शिलादित्य ने राणा की सेना ने विश्वासघात करते हुए बाबर की सेना का समर्थन किया। राणा क्रोधित हुए, परंतु उन्हे पराजय स्वीकार न थी। वे लड़ते रहे, परंतु राणा को एक गोली लगी और वह अचेत हो गए, जिससे राजपूत सेना में भ्रम पैदा हो गया और वे तितर बितर होने लगे। ऐसी अवस्था में राणा सांगा जी को युद्धभूमि से बाहर निकलना पडा। ओर उनकी जगह उनके परम मित्र राज राणा अजा झाला ने ली । उन्होंने अपनी वीरता से दूसरों को प्रेरित किया। इनके शासनकाल में मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊँचाई पर था। एक धर्मपरायण राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की रक्षा तथा उन्नति की।
राणा सांगा इस विश्वासघात और राजपूतों की पराजय से तिलमिला गए थे। उन्होंने सौगंध ली कि जब तक वे बाबर को मिट्टी में नहीं मिला देते, वे चित्तौड़ में कदम तक नहीं रखेंगे। परंतु ये सौगंध पूर्ण होता, उससे पूर्व ही जनवरी 1528 में राणा सांगा की असामयिक मृत्यु हो गई।
अब प्रश्न ये उठता है कि अगर राणा सांगा अचेत न हुए होते, और ये युद्ध जीता होता तो?
अगर बाबर वास्तव में उतना ही शक्तिशाली थे, तो अकबर के आने तक मुगल दिल्ली और आगरा समेत कुछ प्रांतों से आगे क्यों नहीं बढ़ पाए? इसके अतिरिक्त, यदि राणा सांगा के पास भी मुगल जैसे शस्त्र होते, तो? कहीं न कहीं इसका उत्तर उनके प्रपौत्र ने दे ही दिया, जब अकबर ने अधिकांश भारत को अपने नियंत्रण में लिया, परंतु महाराणा प्रताप के समक्ष उसकी एक न चली।
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