ज़ुबैर पत्रकार है, परंतु मनीष कश्यप राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा है

सेक्युलर भारत में आपका स्वागत है....

ये इंडिया है।

यहाँ उत्सव के लिए परमीशन लेनी पड़ती है, उपद्रव के लिए नहीं।

यहाँ राम का नाम जपना “लोकतंत्र के लिए खतरा”है, परंतु तुष्टीकरण “राष्ट्रीयता” है!

यहां एक राज्य के निवासी के ऊपर तमिलनाडु जैसे राज्यों में हो रहे शोषण को उचित बताया जाता है और उस शोषण के पीछे खड़े राक्षसों का पर्दाफास करने वाले को “राष्ट्रीय सुरक्षा” के लिए खतरा बताया जाता है।

यहां हिंदी थोपने का दर्द रोया जाता है और भाषायी आधार पे लोगों को पीडित किया जाता है और इन पीडितों के दुख को जन जन तक  पहुंचाने वाले को गिरफ्तार कर लिया जाता है।

इस लेख में पढिये कि कैसे मनीष कश्यप को “राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा” बताया जा रहा है, तो मोहम्मद ज़ुबैर जैसे अराजकतावादी आज भी खुलेआम घूम रहे हैं।

मनीष कश्यप पर रासुका

जब ऐसा लगा कि मनीष कश्यप के विरुद्ध कार्रवाई में निर्लज्जता की और कोई सीमा नहीं लांघी जाएगी तो तमिलनाडु प्रशासन ने इसे मानो चुनौती मान ली। और अब पत्रकार मनीष कश्यप के ऊपर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत मुकदमा चलाया जाएगा।

परंतु मनीष कश्यप का अपराध क्या था? उन्होंने बिहारी प्रवासियों के उपर तमिलनाडु में हो रहे शोषण पर प्रकाश डालते हुए बिहारी प्रशासन को घेरा था, परंतु इससे तमिलनाडु प्रशासन को क्या खुजली मची कि उन्होंने मनीष कश्यप को अपना निजी शत्रु मान लिया।

पहले उसे “अफवाह फैलाने के लिए” आरोपी बनाया, और फिर बिहार पुलिस पर उसे हिरासत में लेकर उसे तमिलनाडु पुलिस को सौंपने के लिए भी दबाव किया।

मोदी विरोध में बिहार प्रशासन भी इतनी निर्लज्ज बन गई कि मनीष कश्यप को बिना किसी ठोस साक्ष्य के हिरासत में ले लिया, और उसके साथ वैसा व्यवहार किया, जिसके लिए ब्रिटिश प्रशासन कुख्यात था।

चाहे हथकड़ी में ले जाना हो, या फिर एक भ्रष्ट प्रशासन की पुकार पर बिना स्थिति को जाँचे परखे मनीष कश्यप को सौंपना हो, तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाली बिहार सरकार ने मानो लोकतंत्र को खूँटे पर टांग दिया है।

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ये भेदभाव क्यों?….

परंतु ये सब ऐसे समय पर हो रहा है, जब एक तरफ रामनवमी की शोभायात्रा के विरोध के नाम पर बिहार और बंगाल में दंगे हो रहे हैं, और वहाँ का राज्य प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा है।

ममता बनर्जी तो खुलेआम हिंदुओं को ही धमकाने में लगी हुई थी, और कलकत्ता हाईकोर्ट की डांट का इनपे तनिक भी असर नहीं पड़ा है।

इसके अतिरिक्त जब कोई व्यक्ति इसका विरोध करता है, तो मीर फैसल और मोहम्मद ज़ुबैर जैसे स्वघोषित पत्रकार इन्हे “समाज के लिए खतरा” बताकर इस्लामिस्टों की फौज को इनके पीछे लगा देते हैं।

लोकतंत्र के ये स्वघोषित रक्षकों [चाहे न्यायिक हो या राजनीतिक] के लिए ये लोकतंत्र विरोधी नहीं प्रतीत होते। परंतु मनीष कश्यप जैसे लोग, जिन्होंने मात्र एक घटना की वास्तविकता को सामने लाने का प्रयास किया, वो “राष्ट्रीय सुरक्षा” के लिए खतरा देखने लगता और उसके विरुद्ध ‘कड़ी से कड़ी कार्रवाई’ होनी लगती।

लानत है इन दोगलों पर।

आप एक समय को केंद्र प्रशासन को कोस भी सकते हैं, परंतु जब सामाजिक न्याय की इस प्रकार धज्जियां उड़ाने पर न्यायपालिका ही मौन बैठी हो, तो आखिर सरकार भी कहाँ तक मामले को संभालेगी?

साक्ष्य होने के बाद भी मोहम्मद ज़ुबैर जैसे अराजकतावादी को “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” के नाम पर छोड़ दिया जाता है, जबकि बिना किसी साक्ष्य के मनीष कश्यप को “राष्ट्रीय सुरक्षा” के लिए खतरा रासुका लगाने पे खुली छूट दे दी जाती है।

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ये दीमक देश को खोखला कर देगा

एक समय था, जब 1994 में इसरो के शीर्ष वैज्ञानिकों में से एक, एस नम्बी नारायणन को यौन संबंध के बदले में गोपनीय दस्तावेज़ साझा करने के झूठे आरोप में केरल पुलिस ने हिरासत में लिया, और उन्हे इंटेलिजेंस ब्यूरो के अवसरवादी अधिकारियों को सौंप दिया।

अपना खोखला एजेंडा साबित करने के लिए इन्होंने नम्बी नारायणन और उनके परिवार का जीवन नारकीय बना दिए, जिसके लिए पहले सीबीआई और फिर सुप्रीम कोर्ट ने जमकर लताड़ा।

तो इसका मनीष कश्यप से क्या नाता है? इनपर भी लगभग ऐसे ही आरोप लगे हैं, और इन्हे मीडिया का एक धड़ा केवल अपने स्वार्थपूर्ति हेतु विलेन बनाने पर तुला हुआ है। उनका सत्य या तथ्यों से कोई वास्ता नहीं, होनी चाहिए तो बस  उनके एजेंडा की पूर्ति।

बाकी उनके “आका” काम पूरा कर ही देंगे। अंतर बस इतना है कि पहले ये बातें जनता को पता नहीं चलती थी, अब ये जनता के समक्ष भी होता है, और सब कुछ जानने समझने के बाद भी कुछ लोग सिर्फ इसलिए इसे बढ़ावा देते हैं, ताकि जनता में “उनका भय” बना रहे, जो कई मामलों में अब गायब हो चुका है।

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