यूपी निकाय चुनाव: यूपी बनाम कर्नाटक: बात नेतृत्व की!

अब भी समय है, कुछ नहीं बिगड़ा है

यूपी निकाय चुनाव

यूपी निकाय चुनाव: 13 मई को दो अलग अलग घटनाएँ हुई। दो विभिन्न राज्यों में दो अलग प्रकार के चुनाव हुए। लेकिन दोनों को जो कवरेज मिली, उसी से मीडिया की प्राथमिकताएँ भी पता चलती है, और वास्तविकता भी। कर्नाटक में कांग्रेस ने असंभव को संभव क्या कर दिखाया, पार्टी से पूर्व चाटुकार मीडिया ने राहुल गांधी को 2024 का “युवराज” घोषित कर दिया। परंतु वे भूल गए कि उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव के परिणाम भी घोषित हुए हैं, और ये केवल दोनों राज्यों के समीकरणों तक ही सीमित नहीं है, अपितु इसका सत्य जानना राष्ट्रीय राजनीति के दृष्टिकोण से आवश्यक है।

इस लेख में पढिये क्यों यूपी के निकाय चुनाव के परिणाम अपने आप में भाजपा की कई समस्याओं का रामबाण इलाज हो सकता है।

लीडरशिप मैटर्स

2023 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में सब कुछ झोंक दिया गया : देशभक्ति से लेकर हिन्दुत्व तक। परंतु अपरिपक्व नेतृत्व का इलाज तो स्वयं कांग्रेस पार्टी के पास भी नहीं, कर्नाटक के भाजपा इकाई के पास क्या खाक होगा?

यद्यपि भाजपा का वोट प्रतिशत अक्षुण्ण रहा, परंतु शायद जनता सीएम बोम्मई से संतुष्ट न थी। इसके अतिरिक्त कांग्रेस का क्षेत्रवाद एवं तुष्टीकरण कार्ड काफी हद तक काम आया, जो परिणाम में परिलक्षित होता है।

परंतु यही बात होती, तो इस लॉजिक से सपा को यहाँ के निकाय चुनावों में प्रचंड बहुमत प्राप्त करना चाहिए था, नहीं? यहाँ तुष्टीकरण से लेकर मुफ्तखोरी, सब प्रकार से जनता को लुभाया गया। परंतु 17 के 17 नगर निगम पर भाजपा का ध्वज ज़ोर शोर से लहराया। इससे पूर्व 2017 में भी भाजपा को काफी अप्रत्याशित सफलता मिली थी, परंतु इस बार तो चमत्कार हो गया। सपा के काटो तो खून नहीं, और कांग्रेस, छोड़िए, इस बारे में फिर बात करेंगे।

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ये अवसर हाथ से नहीं जाने देना है!

परंतु इसमें भाजपा के लिए क्या अवसर है? यहाँ अवसर एक नहीं, अनेक है। अब सब को सूचीबद्ध करना लगभग असंभव होगा, परंतु इन निकाय चुनावों से तीन महत्वपूर्ण संदेश भाजपा को अविलंब अपने रणनीति में सम्मिलित करना होगा।

सर्वप्रथम है स्थानीय नेतृत्व। जो यूपी में हुआ, वो कर्नाटक में भी हो सकता था, यदि “पैराशूट नेताओं” को प्राथमिकता नहीं दी जाती। यदि स्थानीय नेतृत्व सशक्त नहीं हो, तो पीएम मोदी का प्रभाव भी नगण्य रहेगा। ज़्यादा दूर जाने की आवश्यकता नहीं, तेलंगाना ही देख लीजिए। जो लोग इस बात पर आह्लादित हो रहे हैं कि “दक्षिण भारत” ने भाजपा को लात मारकर भगाया है, उन्हे इस वर्ष 1000 वोल्ट का झटका लग सकता है, यदि तेलंगाना के भाजपा नेता अपना सब कुछ दांव पे लगाने को तैयार हो।

द्वितीय है अपनी मूल नीति से टस से मस न होना। इसके दो लाभ है: मूल वोटरों में आपका विश्वास बना रहेगा, और आप असंभव को भी संभव कर सकते हो। अतीक अहमद वाले मामले को अलग रखें, तो अराजकतावादियों के लिए अब यूपी स्वर्ग नहीं, नर्क से भी बदतर है। सशक्त नेतृत्व का प्रभाव क्या है, ये आप देवबंद के निकाय चुनाव के परिणामों में देख सकते हैं। जो स्थान इस्लामिक कट्टरपंथ की नींव रखने वाले दारुल उलूम के लिए बदनाम है, जहां सनातनी चैन से रह भी नहीं सकते, वहाँ वर्षों में पहली बार एक हिन्दू मेयर होगा। परिवर्तन इसी को कहते हैं।

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यह सीख बहुत आवश्यक

अभी ये हाल है तो अगर आगामी लोकसभा चुनाव में केवल यूपी से 75 सीट मिल जाए तो चकित मत होइएगा। ऐसे में भाजपा के लिए कर्नाटक की पराजय झटका कम, सीख अधिक है। जब आपके पास अच्छे नेता उपलब्ध हैं, तो तिकड़मबाज़ी की क्या आवश्यकता? यूपी और असम ने ये सिद्ध कर दिया है कि अगर शक्तिशाली नेतृत्व स्थानीय स्तर पर हो, तो पीएम मोदी के बिना भी धूम धड़ाके से चुनाव जीता जा सकता है। गुजरात, और लगभग समस्त पूर्वोत्तर भारत भी इसी पद्वति पर आगे बढ़ रहा है, और तेलंगाना के भाजपा नेता भी पीछे नहीं है।

हम बंगाल, बिहार और अब कर्नाटक इसलिए नहीं हारे क्योंकि भाजपा के प्रचार प्रसार में कोई कमी थी, हम इसलिए पराजित हुए क्योंकि सशक्त नेतृत्व की कमी थी। अब भाजपा को चाहिए कि यूपी के निकाय चुनाव में जो सफलता प्राप्त हुई, उसे देशभर में लागू करे, और विश्वास मानिए, विजय इन्हे ही मिलेगी!

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