किसी ने सही कहा था, लोग समय के साथ बदल जाते हैं। कुछ ही दिन पूर्व, लगभग अधिकतम एक्ज़िट पोल कांग्रेस के पक्ष में होने के बाद भी असहजता बनी हुई थी, और जेडीएस के हाईकमान के साथ पार्टी की कुछ गुप्त बैठकों की खबरें भी वायरल होने लगी। तो अचानक क्या बदला कि अब कांग्रेस इन्हे घास भी नहीं डाल रही।
ऐसी बेचैनी और कहाँ?
किसी महापुरुष ने एक समय कहा था, “सत्य कल्पना से भी परे हैं”। शायद वह राजनीति को एड करना भूल गया था। कुछ ही दिन पूर्व जितनी असहजता तत्कालीन भाजपा सरकार, उससे अधिक कर्नाटक के चुनाव के एक्ज़िट पोल के पश्चात कांग्रेस को थी।
स्वाभाविक तौर पर जेडीएस और कांग्रेस के बीच गुप्त बैठकों की व्यवस्था की गई थी, ताकि 2018 को दोहराया जा सके, जहां भाजपा की तुलना में कम सीटें होने के बावजूद दोनों पार्टियां सत्ता प्राप्त करने में सफल रही। हालांकि दोनों ने आधिकारिक तौर पर इसका खंडन किया, परंतु अपने भय को कैसे छुपाते।
विपक्षी एकता खत्म, टाटा, गुडबाय!
हालांकि जैसे ही परिणाम इनके पक्ष में आए, कांग्रेस में एक अजब ऊर्जा का सृजन हुआ। ये सत्य है कि उन्होंने हर सीट के लिए जी-जान से लड़ाई लड़ी, और शायद काफी हद तक जो प्रशंसा इन्हे मिल रही, उसके अधिकारी भी हैं, परंतु अब कर्नाटक की जीत को ऐसे पेश किया जा रहा है जैसे 2024 के चुनाव में कांग्रेस की विजय सिर्फ एक कदम दूर हैं।
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हम मजाक नहीं कर रहे हैं। अगर हम राजदीप के छीछालेदर को एक तरफ रख दें, तो लगभग हर दूसरा मीडिया चैनल दावा कर रहा है कि कांग्रेस सभी को कुचल देगी, चाहे वह मध्य प्रदेश हो, छत्तीसगढ़ हो, या राजस्थान और तेलंगाना भी हो। शायद ये माने या नहीं, परंतु आशावाद एक बात है, और एक राजनीतिक गुट के लिए नतमस्तक हो जाना एक और बात है। कहीं गोदी मीडिया ऐसे ही लोगों के लिए तो नहीं अस्तित्व में आया?
यह कैसे संभव है? कांग्रेस की प्रचंड जीत के बाद से दोनों गुटों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई है। इसके अलावा, जेडीएस ने जिस तरह की हार का सामना किया है, यह लगभग तय है कि पार्टी कर्नाटक के लिए वही है जो समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश के लिए है, खासकर उत्तर प्रदेश के नगरपालिका चुनावों में हालिया हार के बाद।
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हालाँकि, यह एक तरह से एक अप्रत्यक्ष वरदान भी है। ऐसे कैसे? वो ऐसे क्योंकि जिस क्षण कांग्रेस में श्रेष्ठता की भावना विकसित हो जाती है, इसका अर्थ है कि वह 2024 के चुनावों से पहले दब्बू नहीं होगी। आखिरी बार 1996 के चुनावों में कांग्रेस ने कनिष्ठ सहयोगी की भूमिका निभाई थी, ताकि भाजपा को सत्ता से दूर रखा जा सके।
हालाँकि, चूंकि इस बार मोर्चा राहुल गांधी ने संभाला है, और इनके अतिरिक्त पार्टी में किसी की शायद ही सुनी जाती है, तो इस प्रकार का स्टंट शायद ही सोचेंगे। अब भले ही इनके अनुयाई न माने, परंतु इस विजय के बाद नीतीश कुमार और अखिलेश यादव जैसे महानुभाव, जो ये स्वप्न पाले थे कि तीसरे मोर्चे के माध्यम से सरकार बनाएंगे, कर्नाटक चुनाव के बाद शीघ्र ही उन्हें भी गहरा झटका लगेगा , चूंकि ‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ ये बिल्कुल नहीं चाहेगी कि वह दब्बू के रूप में दिखाई दे, और अपनी सभी खामियों के लिए, और राहुल गांधी में कम से कम ये तो गुण है कि वह किसी की इच्छाओं के आगे नहीं झुकते, भले ही वह अपनी ही पार्टी का सफाया कर दे।
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