सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतीक है भारत का नया संसद

अब होगा भारतवर्ष का पुनर्निर्माण

भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को पुनर्जीवित करने और उसका जश्न मनाने की प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की पहल को अक्सर वाम-उदारवादी तिमाहियों से प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है। परंतु, सेंट्रल विस्टा में नए भारतीय संसद के भारतीयकरण के हाल के घटनाक्रमों ने इन भारत विरोधियों को कहीं का नहीं छोड़ा है। सेंगोल समारोह सहित भारतवर्ष के गौरवशाली अतीत को दर्शाने वाले प्रतीकों और म्यूरल्स की स्थापना ने वामपंथियों को न घर का छोड़ा है, और न ही घाट का।

इस लेख में पढिये नए संसद परिसर के अनावरण और उक्त घटनाक्रमों के महत्व और आगामी 2024 के चुनावों पर उनके प्रभाव के बारे में।

संकलन से इतिहास का संरक्षण

भारत के मूल इतिहास को दस्तावेज और प्रदर्शित करने के पीएम मोदी के प्रयासों को अतीत में किस प्रकार से आलोचना का सामना करना पड़ा है, ये किसी से नहीं छुपा है। हालाँकि, प्रामाणिक ऐतिहासिक आख्यानों के संरक्षण और प्रसार के महत्व को अनदेखा भी नहीं किया जा सकता है। नए संसद परिसर के भारतीयकरण को बढ़ावा देकर, मोदी भारतवर्ष की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की व्यापक समझ और उत्सव की आवश्यकता का संकेत दे रहे हैं।

न्यू पार्लियामेंट कॉम्प्लेक्स के सांस्कृतिक जागरण के प्रतीक में परिवर्तन ने वाम-उदारवादी हलकों में हलचल फैला दिया है। समुद्र मंथन और अखंड भारत को चित्रित करने वाले भित्ति चित्रों की स्थापना से लेकर आचार्य चाणक्य जैसे श्रद्धेय संतों और विद्वानों को शामिल करने तक, नया संसद भवन भारत के सांस्कृतिक लोकाचार के पुन: जागरण को दर्शाता है, और इससे वामपंथियों के तन बदन में मिर्ची न लगे, ऐसा हो ही नहीं सकता।

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सेंगोल की प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित करना

मंत्रोच्चार और सम्पूर्ण अनुष्ठान सहित जिस प्रकार से नवीन संसद परिसर का अनावरण हुआ, और जिस प्रकार से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सेंगोल को गौरवशाली अतीत और समृद्ध भविष्य को जोड़ने वाले प्रतीक के रूप में स्थापित कराया, नए संसद परिसर के भारतीयकरण के लिए और महत्व जोड़ती है। यह इशारा सत्ता के हस्तांतरण और भारत की प्राचीन विरासत की निरंतरता का प्रतीक है।

पीएम मोदी के स्वयं के व्याख्यान अनुसार,

“अधीनम का ‘सेंगोल’ औपनिवेशिक शासन से भारत की स्वतंत्रता का प्रतीक बन गया, कि कैसे भारत भविष्य में उपनिवेशवाद के बोझ से छुटकारा पाने की दिशा में आगे बढ़ेगा। जिस क्षण सत्ता का हस्तांतरण हुआ, ‘सेनगोल’ स्वतंत्रता के बाद भारत के अतीत के गौरव और भविष्य की समृद्धि का एक संबंध बन गया”।

अब वामपंथियों का तिलमिलाना और सुलगना तो स्वाभाविक था, और हुआ भी वही। वामपंथी उदारवादियों ने शुरू से ही इन घटनाक्रमों का जोरदार विरोध किया, उन्हें बेकार की कवायद करार दिया। कोई आरफा खानुम शेरवानी कह रही थी की “रोज नया जख्म मिल रहा है”, तो कोई आरजेडी की भांति नवीन परिसर की तुलना ताबूत से कर रहे थे। टेलीग्राफ जैसे समाचार पत्र ने तो इस प्रकरण को भारत को पीछे ले जाने वाला करार कर अपने खबर का शीर्षक रखा “2023 BC में स्वागत है!”

परंतु बाकी भी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे थे। भारत के सबसे पुराने शैव मठों में से एक, तमिलनाडु में तिरुवदुथुराई अधीनम ने वाम-उदारवादियों द्वारा किए गए दावों का दृढ़ता से खंडन किया। अधीनम के द्रष्टाओं ने 1947 में अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता के दौरान सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में सेंगोल के उपयोग को मान्य किया। उनका ऐतिहासिक लेखा-जोखा सेंगोल के पीछे के प्रतीकवाद की प्रामाणिकता और नेहरूवादी युग से इसके संबंध की पुष्टि करता है।

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2024 के चुनावों पर प्रभाव!

भारत की सांस्कृतिक विरासत का उत्सव मनाने और भारतवर्ष के इतिहास को फिर से लिखने हेतु पीएम मोदी के वर्तमान रणनीतिक कदमों का आगामी 2024 के चुनावों पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। इन प्रतीकात्मक इशारों ने गर्व और राष्ट्रवाद की भावना का आह्वान करते हुए जनता की संवेदनाओं को भी परखा है। इन पहलों के साथ, मोदी ने जनता की सामूहिक इच्छा से जुड़ने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं, और आने वाले चुनावों के लिए खुद को मजबूती से तैयार किया है। जो कहते हैं कि दक्षिण भारत में भाजपा कभी अपनी पैठ नहीं जमा सकती, उन्हे अभी से अपने बीमा और उपचार की व्यवस्था कर लेनी चाहिए।

नवीन संसद परिसर का भारतीयकरण और सेंगोल की प्रतीकात्मक स्थापना भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को मनाने और संरक्षित करने में एक महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत देती है। वामपंथी गिरोह के प्रतिरोध के बावजूद, भारतवर्ष के इतिहास को फिर से लिखने के लिए पीएम मोदी के प्रयासों ने जनता को प्रभावित किया है। ये पहलें न केवल भारत के गौरवशाली अतीत का परिचायक है, अपितु आगामी 2024 के चुनावों में लोगों की सामूहिक इच्छा को आकार देने की क्षमता भी रखती हैं।

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