एक ओर जहां लोग 2000 के नोट का परिचालन बंद होने पर वाद विवाद में जुट गए, तो उससे पूर्व विधि मंत्री किरेन रिजिजू के ‘ट्रांसफर’ पर किसी ने कोई भाव नहीं दिया। विधि मंत्रालय से किरेन रिजिजू के हटाए जाने पर कुछ लोग स्तब्ध है, तो कुछ कुपित है। परंतु आप मानो या मानो, ये तो एक दिन होना ही था!
इस लेख में पढिये कि आखिर क्यों किरेन रिजिजू की वर्तमान अवस्था के लिए वे खुद ही दोषी है, और मोदी सरकार क्यों चाहकर भी उन्हे विधि मंत्री नहीं बनाए रख सकती थी।
काम कम, बातें ज्यादा
राजनीति में प्रभावी नेतृत्व और निर्णय लेना किसी भी सरकार के सुचारू कामकाज के लिए अति महत्वपूर्ण हैं। हालांकि, हाल ही में किरेन रिजिजू को उनके पद से हटाए जाने के पीछे कहीं न कहीं कॉलेजियम प्रणाली के साथ उनका बर्ताव भी शामिल है। हाल ही में, किरेन रिजिजू को कानून मंत्रालय से स्थानांतरित कर दिया गया, अर्जुन राम मेघवाल ने उनकी जगह ले ली।
कानून और न्याय मंत्री का पद संभालने वाले किरेन रिजिजू को कॉलेजियम को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने में विफल रहे। ये ध्यान रहे कि कॉलेजियम सिस्टम वर्तमान कानूनी प्रणाली के कामकाज पर महत्वपूर्ण शक्ति और प्रभाव रखता है। इस जटिल पहेली को सुलझाने में रिजिजू की अक्षमता अंततः उनके पतन का कारण बनी।
इसका सबसे प्रमुख कारण है रिजिजू द्वारा कॉलेजियम के सदस्यों के साथ एक सार्थक संवाद स्थापित करने में उनकी विफलता थी। गलत नहीं कहा गया है, “Action speaks louder than words”, यानि कार्य शब्दों से अधिक जोर से बोलता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि कॉलेजियम और कार्यपालिका यानि सरकार में तनातनी चिंता का विषय है, और मोदी सरकार ये बिल्कुल नहीं चाहेंगे कि उनका कार्य सरल होने के बजाए और जटिल हो। परंतु किरेन रिजिजू अपनी बकैती से इसी दिशा में जुटे हुए थे।
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ऐसा पहले भी हुआ है
परंतु अगर बकैती ही करवानी थी, तो बाबुल सुप्रियो, प्रकाश जावड़ेकर और रविशंकर प्रसाद कौन से बुरे थे? ये तीनों इसीलिए भगाए गए थे, क्योंकि इन्होंने प्रशासन के नाम पर ठेंगा दिखाया था। बाबुल सुप्रियो ने तो बंगाल में भाजपा की नैया डुबोने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यद्यपि सरकार ने इन परिवर्तनों के पीछे कारण के रूप में कायाकल्प और पुनर्गठन की आवश्यकता का हवाला दिया, फेरबदल के पीछे वास्तविक प्रेरणाओं के बारे में व्यापक अटकलें थीं। हालाँकि, वास्तविक कारण स्पष्ट था: कोई माने न माने, परंतु जी हुज़ूरी के लिए एनडीए II में कोई पुरस्कार नहीं मिलता।
इसके अतिरिक्त, न्यायपालिका के लिए एक सुसंगत और सुदृढ़ दृष्टिकोण पेश करने में भी किरेन रिजिजू फिसड्डी सिद्ध हुए। कॉलेजियम के दांव पेंच को समझना और इसके अतिरिक्त न्यायपालिका को दर्पण दिखाने में भी किरेन रिजिजू असफल रहे। इसी के कारण कई भाजपा समर्थकों में भी असंतोष और अविश्वास की भावना बढ़ गई।
यही नहीं, कॉलेजियम के फैसलों का न्याय प्रणाली पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है, और एक सामंजस्यपूर्ण कार्यप्रणाली सुनिश्चित करने के लिए कार्यपालिका के लिए रचनात्मक संवाद में संलग्न होना महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्य से, रिजिजू का ध्यान सक्रिय रूप से समाधान खोजने और एक सामान्य लक्ष्य की दिशा में काम करने के बजाय बकवास करने पे अधिक केंद्रित था। “जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं” शायद ऐसे ही लोगों के लिए कहा गया है।
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किरेन रिजिजू की बर्खास्तगी कॉलेजियम से निपटने के दौरान “काम कम, बातें ज्यादा” जैसे अप्रोच को उजागर करती है। प्रभावी संचार स्थापित करने, एक स्पष्ट दृष्टि को स्पष्ट करने और कॉलेजियम की चिंताओं को दूर करने में असमर्थता ने अंततः कानून और न्याय मंत्री के रूप में रिजिजू के नेतृत्व और प्रभावशीलता को कम करके आंका। यह एक रिमाइन्डर के रूप में कार्य करता है कि राजनीतिक नेताओं को भाषणबाज़ी पे कम, और अपने कार्यान्वयन को सशक्त करने पर ध्यान अधिक देना चाहिए।
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