गीताप्रेस और गांधीजी के बीच कई बातें समान है!

कभी 10 जनपथ के आगे भी सोचिए जयराम रमेश!

भारत की राजनीति हो और विवाद न हो, ऐसा हो सकता है क्या? इस बार विवाद के केंद्र में और कोई नहीं, बहुचर्चित प्रकाशन केंद्र गीता प्रेस है, जिसने देशभर को सनातन धर्म की महिमा से अवगत कराया, और जिसके पीछे अब कांग्रेस हाथ धोके पीछे पड़ी हुई है। कारण : इस संस्थान को गांधी शांति पुरस्कार प्राप्त हुआ है, जिससे कई कांग्रेसी कुपित हुए हैं, विशेषकर जयराम रमेश।

हालाँकि, श्री रमेश का असंतोष और जिस तरह से उन्होंने इसे व्यक्त किया है, वह एक बीते युग में फंसे इनकी सुई को चित्रित करता है। इस लेख के जरिये हम श्री जयराम रमेश से गीता प्रेस की उत्पत्ति पर बकवास करने से पूर्व अपने अध्ययन कक्ष में वापस जाने और वास्तविक इतिहास पढ़ने के लिए अनुरोध करते हैं।

“गीताप्रेस को पुरस्कृत करना सावरकर या गोडसे को सम्मानित करने जैसा!”

ऐसा लगता है कि श्री रमेश पूर्व-सोशल मीडिया युग में निहित मानसिकता के साथ डिजिटल युग में जीने का प्रयास कर रहे हैं। एक समय वो भी था जब गांधी परिवार को निर्विवाद अधिकार प्राप्त थे, जब सूचना तक पहुंच कुछ लोगों का विशेषाधिकार था और डिजिटल साक्षरता एक दुर्लभ वस्तु थी। यह धारणा तब स्पष्ट हो जाती है जब हम गीता प्रेस को दिए गए पुरस्कार के संबंध में उनके हालिया ट्वीट को देखते हैं।

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अपने ट्वीट में जनाब फरमाते हैं, “2021 के लिए गांधी शांति पुरस्कार गोरखपुर में गीता प्रेस को प्रदान किया गया है, जो इस वर्ष अपनी शताब्दी मना रहा है। अक्षय मुकुल द्वारा इस संगठन की 2015 की एक बहुत ही बेहतरीन जीवनी है जिसमें वह महात्मा के साथ इसके तूफानी संबंधों और उनके राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक एजेंडे पर उनके साथ चल रही लड़ाइयों का पता लगाता है। फैसला वास्तव में अन्याय समान है, और ऐसा लगता है कि गांधी शांति पुरस्कार से सावरकर या गोडसे को पुरुसकृत किया गया है…”

बिड़ला उद्योग से नाता

अब का बोले, जाने क्यों ऐसा लगता है कि कांग्रेस में प्रविष्टि के लिए इतिहास में डब्बा गोल होना अवश्यंभावी लगता है। अगर ऐसा न होता, तो जयराम रमेश के मुख से ये अनर्गल प्रलाप न निकलता। जैसे-जैसे हम इतिहास में गहराई से जाते हैं, हम पाते हैं कि गीता प्रेस और उस व्यक्ति के बीच एक मजबूत, निर्विवाद संबंध है जिसका नाम पर पुरस्कार है – बैरिस्टर मोहनदास के. गांधी। ऐसा लगता है कि श्री रमेश ने एक कड़ी को याद किया है या शायद अपनी भावुक भर्त्सना में अनदेखी करने के लिए चुना है।

1923 में स्थापित गीता प्रेस ने सनातन धर्म, उसी संस्कृति और मूल्यों को बढ़ावा देने और संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसे गांधी ने स्वयं संजोया था। गीता प्रेस और गांधी के बीच का कॉमन लिंक है बिड़ला समूह। बिड़ला समूह के पितामह घनश्याम दास बिड़ला न केवल एक दुर्जेय उद्योगपति थे, बल्कि एक उत्साही राष्ट्रवादी और संस्कृति के भक्त संरक्षक भी थे। यह उनका अटूट समर्थन था जिसने गीता प्रेस के विकास और प्रभाव को उत्प्रेरित किया। अपनी सांस्कृतिक गतिविधियों के समानांतर, बिड़ला गांधी के करीबी सहयोगी और समर्थक भी थे, जिन्होंने एक आपसी बंधन बनाया, और जिसने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की गति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

गीता प्रेस और गांधी दोनों के साथ बिड़ला के जुड़ाव का यह महत्वपूर्ण विवरण अक्षय मुकुल की जीवनी में भी दर्ज किया गया है, वही स्रोत श्री रमेश अपनी आलोचना को प्रमाणित करने के लिए उपयोग करते हैं। आइरनी हो रही बहुत भयंकर!

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जयराम रमेश चाहते क्या हैं?

ऐसे में गीता प्रेस का गांधी शांति पुरस्कार दिया जाना स्वाभाविक भी है और तार्किक भी। जयराम रमेश की कुंठा के इतर गांधी जी भी गीता प्रेस के कार्य के प्रशंसक थे। क्या इसे आज के कांग्रेसी स्वीकार कर पाएंगे? यह एक ऐसी संस्था को सम्मानित करती है, जिसने हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने और बढ़ावा देने के लिए अथक रूप से सेवा की है, ठीक वैसे ही जैसे गांधी ने किया था।

ऐसे में जयराम रमेश की आलोचना इतिहास पर उनके सीमित और कुंठित ज्ञान की परिचायक है। वह जिस वाक्पटुता का प्रयोग करते हैं, निस्संदेह भावपूर्ण होते हुए भी अनजाने में ही कांग्रेस पार्टी की विरासत को आगे बढ़ाने के बजाय उससे अलग कर देते हैं। ये कहना गलत नहीं होगा कि जितना फायदा वे कांग्रेस को नहीं पहुंचाते, उससे अधिक वे भाजपा को पहुंचाते हुए दिखाई देते हैं।

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