स्वामी प्रसाद मौर्य के अनुसार बद्रीनाथ बौद्ध धर्मस्थल है!

नारायण भी न भला कर पाए इन जड़बुद्धियों का!

राजनीति और धार्मिक आख्यानों की विचित्र दुनिया में, ऐसे पात्र अवश्य होते हैं जो हमें अविश्वास में अपना सिर खुजलाने पर मजबूर कर देते हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य एक क्लासिक टेस्ट केस हैं, जिनकी ऐतिहासिक ज्ञान की कमी और विचित्र दावों के प्रति रुचि ने इन्हे अजब फेम दिलाई है।

अब महोदय दावा करते हैं कि चार धामों में सबसे पवित्र धामों में से एक बदरीनाथ, असल में एक बौद्ध धर्मस्थल था, जिस पर सनातनियों ने कब्ज़ा कर लिया!

बौद्धस्थल था बद्रीनाथ!

कुछ दिनों पूर्व स्वामीजी को ब्रह्मज्ञान मिला कि बद्रीनाथ बौद्धों का था. एबीपी से इनके साक्षात्कार के अनुसार, “अगर एएसआई सर्वे हो ही रहा है तो वो सिर्फ ज्ञानवापी का ही नहीं होना चाहिए बल्कि जितने भी हिन्दू धार्मिक स्थल हैं, पहले उनकी भी जांच होनी चाहिए, क्योंकि जितने भी हिन्दू धार्मिक स्थल हैं उनसे से अधिकांश मंदिर पहले बौद्ध मठ थे, उन्हें तोड़कर हिन्दू तीर्थ स्थल बनाए गए हैं.

अगर गड़े मुर्दे उखाड़ने की कोशिश की जाएगी तो बात बहुत दूर तक जाएगी. हम ऐसा नहीं चाहते हैं. यही वजह है कि भाई-चारा बना रहे, आपसी सौहार्थ बना रहे इसलिए 15 अगस्त 1947 तक जो स्थिति थी उसे ही माना जाए.”

सपा नेता से जब उनके दावे का आधार पूछा गया तो उन्होंने कहा कि एएसआई जब जांच करेगी तो इस बात की भी जांच कर ली जाए. उन्होंने दावा किया कि “8वीं शताब्दी तक बदरीनाथ धाम भी बौध मठ था, आदि शंकराचार्य ने उसे हिन्दू मंदिर बनाया. ऐसे में अगर किसी एक की बात चलेगी तो फिर सभी की बात चलेगी. हम गड़े मुर्दे उखाड़ना नहीं चाहते हैं. मैं हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में सब भाई-भाई में यकीन करता हूं. हम भाईचारे में भरोसा करते हैं. हम समाज को बांटने में नहीं बल्कि जोड़ने पर यकीन करते हैं”

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वाह जी वाह, रोमिला थापर को उनका खोया हुआ भ्राता मिल गया! इनके अनुसार जो भी मंदिर है, वह बौद्ध मठ तोड़कर बनाये गए हैं. परन्तु आक्रोश से इतर, बद्रीनाथ की सच्चाई क्या है? जिसका उल्लेख स्कन्द पुराण से लेकर महाभारत तक में हो, जहाँ साधना के लिए आदि शंकराचार्य तक विचरण करे, तो वो स्थान बौद्ध कैसे है, इसका कोई प्रमाण है स्वामी प्रसाद मौर्य के पास?

बद्रीनाथ की उत्पत्ति

बद्रीनाथ का बड़ा ही जटिल और विविध इतिहास है. इसका सर्व्रप्रथम उल्लेख १७५० ईसा पूर्व के आसपास वैदिक संस्मरणों में हुआ था. इसके कई युग में कई नाम थे, जैसे सतयुग में “मुक्तिप्रदा”, त्रेता में “योग सिद्ध” और द्वापर में “मणिभद्र आश्रम”. अब इनमें कौन सा नाम बौद्ध संस्कृति का अवशेष है, कृपया स्वामी प्रसाद बताने का कष्ट करें!

कहते हैं कि एक बार देवर्षि नारद ने लक्ष्मी माता को नारायण के पैर दबाते देख लिया. इन्होने उत्सुकतावश भगवान विष्णु से पूछा कि इसका कारण क्या है, तो वे ग्लानिबोध से ग्रसित होकर हिमालय की और प्रस्थान कर गए. उन्होंने घनघोर तप किया, जिससे वह हिमपात से ढक गए. इससे द्रवित हो देवी लक्ष्मी ने बद्री वृक्ष का रूप धारण किया, और हिमपात से भगवान् विष्णु की रक्षा की. जब विष्णु जी को स्थिति का आभास हुआ, तो उन्होंने प्रसन्न होकर इस स्थान को बद्रीनाथ का नाम दिया, जहाँ उनकी और लक्ष्मी जी की एक साथ पूजा होगी.

अब बद्रीनाथ के ऐतिहासिक उत्पत्ति के बारे में विभिन्न विद्वानों के विभिन्न मत है. परन्तु सभी एक बात पर सहमत है : बद्रीनाथ की उत्पत्ति अलकनंदा नदी के तट पर हुई, और आदि शंकराचार्य की कृपा से इस धाम का उद्धार हुआ. जो व्यक्ति सनातन धर्म की महिमा बढ़ाने निकला हो, वो भला एक बौद्ध स्थल को अपना क्यों बनाएगा?

निर्लज्जता का दूसरा नाम स्वामी प्रसाद मौर्य!

देखिये, स्वामी प्रसाद मौर्य और लॉजिक एक लाइन में फिट नहीं बैठते. पर ये बिलकुल मत सोचियेगा कि ये इनकी प्रथम भूल है. सनातन धर्म के खिलाफ प्रदर्शन आयोजित करने और रामचरितमानस की प्रतियां जलाने के उनके इतिहास को देखते हुए ऐसा लगता है कि वह इस अवधारणा से अच्छी तरह परिचित हैं। उत्पीड़ितों को न्याय दिलाने के नाम पर धार्मिक पुस्तकें जलाना, क्या ये निर्लज्जता का प्रमाण नहीं?

लेकिन आइए यहां ज्यादा गंभीर न हों; आख़िरकार, स्वामी प्रसाद दरबारी विदूषक हैं, और उनकी हरकतों के कुछ निहित लाभ हो सकते हैं। वह अकेले ही अपनी समाजवादी पार्टी को, जो हिंदू विरोधी रुख के लिए बदनाम है, मीम मटेरियल बनाने के लिए पर्याप्त हैं। अगर कोई पूछेगा कि समाजवादी पार्टी के विनाश में सर्वाधिक योगदान किसका था, तो अखिलेश के बाद इन्ही का नंबर आएगा.

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बद्रीनाथ का वास्तविक इतिहास हिंदू परंपरा में गहराई से निहित है, और इसे बौद्ध स्थल के रूप में पुनः प्रस्तुत करने का प्रयास उतना ही हास्यास्पद है जितना यह दावा करना कि चंद्रमा मैदे से बना है। इसलिए,अगली बार जब आप स्वामी प्रसाद का दिव्य ज्ञान सुनें, तो स्मरण रखें कि ऐतिहासिक सत्य के दायरे में, आधे-अधूरे सच और राजनीतिक धूर्तता के लिए कोई जगह नहीं है!

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