काँवड़ यात्रा के वह आर्थिक लाभ जो कोई वामपंथी आपसे साझा नहीं करना चाहता!

ऐसी भी क्या ईर्ष्या?

काँवड़ यात्रा वैसे भी कमज़ोर हृदय वालों, यानि प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों के लिए नहीं है। नंगे पैर बांस के घड़े (कांवड़) ले जाना, बिन थके, बिन रुके आगे बढ़ते जाना एसी में बैठे बैठे उपदेश देने वाले मूर्खों के बस की बात कहाँ?

स्वागत है आपका काँवड़ यात्रा की अद्वितीय, परंतु अनकही क्षमताओं के जगत में! किसी को ये उपद्रव लगे, तो किसी को हिंसा का प्रदर्शन, परंतु इस अमूल्य उत्सव के उन लाभों से परिचित कराना हमारा दायित्व है, जिसके बारे में ध्यान देने को किसी भी आर्थिक विशेषज्ञ ने प्रयास तक नहीं किया है।

एक यात्रा, अनेक लाभ!

पता है आपको भारत पे कोई बड़ी आर्थिक विपदा क्यों नहीं आ पाएगी? क्यों यहाँ त्योहारों की कोई कमी नहीं है! ये कोई उपहास का विषय नहीं है, एक अकाट्य सत्य है, जिसकी क्षमताओं पर बहुत समय बाद ध्यान दिया जा रहा है। इन्ही में कांवर यात्रा का भी अपना महत्व है। जब कैलेंडर उत्सवों से भरा हो, तो मंदी से क्या डरना?

परंतु कुछ लोगों का तिरस्कारी स्वभाव जाता ही नहीं। ये न केवल हमारे देसी संस्कृति के प्रति हीन भावना रखते हैं, अपितु हर उत्सव से विशेष घृणा रखते हैं। काँवड़ यात्रा को हेय की दृष्टि से देखने वाले इन भूरे साहबों का यहाँ तक कहना है कि ये उपद्रवियों और दंगाइयों का त्योहार है, और अगर बच्चों को काँवड़ के बजाए पुस्तक दी जाती, तो देश की यह हालत न होती। वाह, वाह वाह, तालियाँ बजाते रहिए!

परंतु हम भी एक बात भूल जाते हैं। काँवड़ यात्रा वैसे भी कमज़ोर हृदय वालों, यानि प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों के लिए नहीं है। नंगे पैर बांस के घड़े (कांवड़) ले जाना, बिन थके, बिन रुके आगे बढ़ते जाना एसी में बैठे बैठे उपदेश देने वाले मूर्खों के बस की बात कहाँ? इन्हे अगर मेट्रो पकड़ने को कह दो तो चहरे पे हवाइयाँ उड़ने लगे! परंतु काँवड़ यात्रा तो शिव भक्तों के लिए भक्ति की सच्ची परीक्षा है। वे अपनी यात्रा पूरी करने और भगवान शिव द्वारा उनकी प्रार्थनाओं का उत्तर पाने से कम किसी भी चीज़ पर सहमत नहीं होंगे। ऐसी सांस्कृतिक यात्रा आपको ढूँढे से भी न मिलेगी।

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पैसा ही पैसा मिलेगा!

परंतु क्या आपने कभी सोचा कि अपनी काँवड़ यात्रा एक आर्थिक बूस्टर डोज़ भी हो सकता है, जिसकी शक्तियों से हम परिचित हैं? परंतु अगर ये हमको पता चल जाए, तो इन दिल्ली प्रेस क्लब वालों का रोटी पानी नहीं बंद हो जाएगा? फिर हमारे देश को गरीब और असहिष्णु कैसे दिखाएंगे?

परंतु ये संभव कैसे है?

काँवड़िया बनने हेतु आपको सर्वप्रथम कांवरिया बनने के लिए आपको बस भगवा वस्त्रों और पवित्र गंगाजल ले जाने के लिए बांस से बनी कांवर की आवश्यकता होती है। ये कांवर कौन बनाता है? निस्संदेह, बढ़ई! उदाहरण के तौर पर वाराणसी को लीजिए। इस वर्ष अनुमानित 5 करोड़ कांवरियों के साथ, प्रत्येक 1 या 2 कांवर ले जा रहा है, जिनका बेसिक मूल्य 300 के आसपास पड़ेगा। अब 10 करोड़ काँवड़ के आर्थिक मूल्य की कल्पना करें! यह केवल हरिद्वार के आँकड़े हैं बंधु।

आइए एक और उदाहरण के लिए मेरठ को लें। सिर्फ इस एक शहर से, हम कांवर यात्रा से संबंधित उत्पादन के माध्यम से अर्जित 500 करोड़ रुपये की भारी भरकम कमाई के बारे में बात कर रहे हैं। और यह केवल हरिद्वार जाने वाले यात्रियों के लिए है, हमने अभी तक देवघर या वाराणसी जैसे स्थानों को भी नहीं छुआ है। यह एक ऐसा त्योहार है जो आर्थिक पहियों को घुमाता रहता है।

एक अद्वितीय आर्थिक उपलब्धि

परंतु बात इतने तक सीमित नहीं रहती। यात्रा के दौरान कांवरियों को सुविधाओं और जलपान की आवश्यकता होती है। इससे सड़क किनारे ढाबे, धर्मशालाएं और भोजनालय को भी अतिरिक्त राजस्व मिलेगा। अकेले बिहार से भी हर महीने 2000 करोड़ रुपये का भरपूर राजस्व मिलता है! और यह सब बिना किसी आकर्षक योजना या सब्सिडी के। कुछ महीनों का उत्सव और जेब में करोड़ों का राजस्व! सोचिए, अगर ऐसे किसी आकर्षक उद्योग की भांति प्रोत्साहन मिले, तो?

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ये तो प्रारंभ, अभी बहुत कुछ है! यह सिर्फ बांस और लकड़ी नहीं है जो कांवर को जादुई बनाते हैं। अलीगढ़ और एटा में, कांवर पर बजने वाली घंटियों और घुंघरुओं का उत्पादन लाखों लोगों की आजीविका का समर्थन करता है। कौन कहता है कि अलीगढ केवल तालों के लिए जाना जाता है? तनिक घंटों और घुँघरुओं की झंकार को भी सुनने का कष्ट करें!

जब हम भगवा वस्त्रों की बिक्री, जलपान और अन्य संबंधित उद्योगों को ध्यान में रखते हैं, तो कांवर यात्रा एक आत्मनिर्भर आर्थिक चमत्कार बन जाती है। यह लाखों कुशल और अकुशल श्रमिकों को रोजगार प्रदान करता है। जो कोई भी इस यात्रा का विरोध करता है या उसका मजाक उड़ाता है वह मूलतः हमारे देश की आर्थिक प्रगति के खिलाफ है। ऐसे लोगों का स्वयं भोलेनाथ भी भला न कर पाएँ।

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