केरल शिक्षा: भारत का शैक्षिक परिदृश्य वर्तमान में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है, जिसमें पूरे देश में बदलाव और सुधार हो रहे हैं। इस विकास के बीच, कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने टकराव का रास्ता चुना है, और केंद्र सरकार के अधिकार को खुलेआम चुनौती दी है.
केरल की सरकार ने केंद्र सरकार द्वारा NCERT के पाठ्यक्रमों से हटाए गए कई चैप्टरों को अपने शिक्षा बोर्ड की पाठ्यपुस्तकों में शामिल करने का निर्णय लिया है। इनमें गुजरात दंगे, गोडसे द्वारा महात्मा गाँधी की हत्या और जवाहरलाल नेहरू के काल का भारत जैसे चैप्टर शामिल हैं। कक्षा 11 और 12 की ये किताबें सप्लीमेंट्री होंगी। इन्हें स्कूलों में बाँटा जाएगा।
राज्य के शिक्षा मंत्री वी शिवनकुट्टी ने शनिवार (12 अगस्त 2023) को इसकी पुष्टि की। उन्होंने कहा, “करिकुलम समिति ने केंद्र सरकार द्वारा स्कूली पाठ्यक्रम से हटाए गए प्रमुख चैप्टरों पर चर्चा की थी और इसकी विस्तार से जाँच करने के लिए एक उप-समिति का गठन किया था।”
उन्होंने आगे कहा, “इस समिति ने केरल में सामान्य शिक्षा विभाग के तहत स्कूलों में इन सभी अध्यायों को पढ़ाने की सिफारिश की है। इन चैप्टरों वाली पाठ्यपुस्तकें तैयार की जा रही हैं। ओणम की छुट्टियों के बाद छात्रों को संशोधित पाठ्यपुस्तकें मिलने लगेंगी। परीक्षाओं के लिए भी संशोधित पाठ्यक्रम का पालन किया जाएगा।”
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निस्संदेह ये कदम निर्लज्जता से परिपूर्ण है, परन्तु ये कोई प्रथम घटना नहीं है। अप्रैल 2023 में ही, केरल राज्य शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एससीईआरटी) ने पाठ्यक्रम के उन हिस्सों को पढ़ाने का संकल्प लिया, जिन्हें एनसीईआरटी ने शुरू में कक्षा 11 और 12 की पाठ्यपुस्तकों से हटा दिया था। यह निर्णय एससीईआरटी के भीतर एक पाठ्यक्रम समिति से पैदा हुआ था।
इसके साथ ही हमें समझना होगा कि ये बीमारी केवल केरल तक सीमित नहीं है. पिछले ही वर्ष, 2022 में, DMK के नेतृत्व वाली तमिलनाडु सरकार ने प्रथम वर्ष के छात्रों को पारंपरिक पश्चिमी हिप्पोक्रेटिक शपथ के बजाय चरक संहिता की शपथ लेने की अनुमति देने के लिए एक कॉलेज के खिलाफ रुख अपनाया। DMK प्रशासन कॉलेज प्रवेश के लिए क्षेत्रीय मूल्यांकन का पक्ष लेते हुए, NEET और CUET जैसी राष्ट्रीय स्तर की प्रवेश परीक्षाओं की प्रमुखता को कम करने के प्रयासों में सबसे आगे रहा है। यह रुख शिक्षा नीतियों पर अनुचित प्रभाव डालने के क्षेत्रीय नेतृत्व के संकल्प को रेखांकित करता है।
अब कहने को राज्य की स्वायत्ता कोई पाप नहीं, परन्तु उसके नाम पर फेडरलिज़्म के मूलभूत सिद्धांतों को चुनौती देना है, और केंद्र सरकार को खुलेआम चुनौती देना कहाँ की समझदारी है? ऐसे लोग अपनी कुंठा में एनसीईआरटी जैसे राष्ट्रीय शैक्षिक निकायों द्वारा निर्धारित समरूपीकरण प्रयासों और पाठ्यक्रम निर्देशों को बेशर्मी से चुनौती देते हैं।
इतना ही नहीं, ये कारनामे एक गहरे मुद्दे की ओर इशारा करती हैं – औपनिवेशिक खुमारी के अवशेष जो शिक्षा सहित भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित कर रहे हैं।स्वतंत्रता के पश्चात् भी कई ऐसे लोग अथवा इकाई है, जिनके लिए औपनिवेशिक मानसिकता को त्यागना कम्युनिज़्म की निंदा करने से भी बड़ा पाप है।
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क्षेत्रीय स्वायत्तता और शिक्षा में केंद्रीकृत नियंत्रण के बीच यह टकराव निस्संदेह देश की पहचान, विविधता और इतिहास को कठघरे में खड़ा करेगा। यह संघर्ष एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है जो एक सामंजस्यपूर्ण राष्ट्रीय पहचान को बढ़ावा देने में केंद्रीकृत शैक्षिक ढांचे की भूमिका को स्वीकार करते हुए क्षेत्रीय संवेदनशीलता का सम्मान करता है।
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