नीतीश कुमार का बिहारी LSE बंद!

अरे ये दुःख काहे ख़त्म नहीं होता!

किसी युग में “सुशासन बाबू” ने सोचा था, बिहार को पुनः उसका खोया गौरव दिलाएंगे! उनका कहना था कि बिहार में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की तर्ज पर पाटलिपुत्र स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स बनाएँगे। देश-दुनिया से छात्र आएँगे, अर्थशास्त्र की पढ़ाई करेंगे और नए-नए ज्ञान दुनिया को सिखाएँगे। वो अलग  बात है कि ६ वर्षों में ही ये संस्थान ठप पड़ चुका है!

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, नीतीश कुमार के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट ‘पाटलिपुत्र स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स’ पर ताला लग गया है। ये वही संस्थान है, जिसकी घोषणा साल 2018 में खुद नीतीश कुमार ने अपने वैचारिक एवं राजनीतिक गुरु लोकनायक जयप्रकाश की जयंती के अवसर पर की थी।

इस दौरान नीतीश कुमार ने कहा था कि इस संस्थान में पढ़ने वाले छात्रों को लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के सिलेबल की तरह का सिलेबस मिलेगा। जो यहाँ से पढ़ेगा, वो दुनिया को ज्ञान सिखाएगा। हालाँकि, अब पता चल रहा है कि नीतीश कुमार तो मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उनका वैश्विक संस्थान का सपना पटरी से उतर चुका है।

परन्तु हुआ ठीक उल्टा! उस जगह पर पहुंचना तो छोड़िये, ६ वर्ष में एक भी विद्यार्थी ने इस संसथान में पंजीकरण तक नहीं किया. दैनिक भास्कर से बातचीत में आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय के प्रभारी वीसी सुरेंद्र प्रताप सिंह की प्रतिक्रिया छपी है। चूँकि ये संस्थान अब उन्हीं के विश्वविद्यालय में समाहित कर दिया गया है। भले ही उस विश्वविद्यालय में तीन साल से स्थाई कुलपति की नियुक्ति नहीं हो पाई है। वो कहते हैं कि संस्थान पर स्थाई रूप से ताला नहीं लगाया गया है। ये व्यवस्था अस्थाई तौर पर की गई है।

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वर्तमान में, पाटलिपुत्र स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स खुद को अस्थायी रूप से बंद  पाता है, जो स्थायी रूप से बंद हो सकता है। यह गंभीर दुर्दशा संस्थान की प्रामाणिकता और अंतर्निहित उद्देश्य के बारे में महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है। क्या यह एक नेक पहल थी जो किसी तरह अप्रत्याशित परिस्थितियों के कारण भटक गई, या क्या इसमें लवासा के रहस्यमय भूतिया शहर के समान एक गुमराह उद्यम के लक्षण दिखाई देते हैं?

असफलता की गाथा न केवल छात्रों की कमी के इर्द-गिर्द घूमती है, बल्कि शिक्षकों की नियुक्ति के लिए संसाधनों के आवंटन तक भी फैली हुई है। अचानक बंद होने से संस्थान की स्थापना के पीछे के सच्चे इरादों पर संदेह की छाया पड़ गई है। क्या अनुदान और नियुक्तियाँ महज़ दिखावा थीं, या उनमें सचमुच शैक्षणिक परिदृश्य को ऊपर उठाने की क्षमता थी? ये प्रश्न, दुर्भाग्य से, नीतीश कुमार के प्रयासों से जुड़े रहस्यों की बढ़ती सूची में शामिल हो गए हैं।

वैसे, पाटलिपुत्र स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की ऊपर बताई गई टाइमलाइन को देखेंगे तो पता चलेगा के चार महीने पहले मई में शिक्षकों और कर्मचारियों की वैकेंसी निकाली गई है। बाकी ये सीटें कब भरेगी, कब इस संस्थान के डायरेक्टर की नियुक्ति होगी, कब सिलेबस बनेगा, कब एडमिशन शुरू होगा, ये सब भविष्य के गर्भ में छिपा है।

अंततः, नीतीश कुमार के महत्वाकांक्षी प्रयासों का इतिहास सफलताओं और असफलताओं की एक टेपेस्ट्री के रूप में काम करता है, जिनकी मंशा भले ही बुरी न हो, परन्तु कार्यान्वयन, रहने ही दीजिये। पाटलिपुत्र स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स का बंद होना इस बात का सूचक है कि नीतीश बाबू का भाग्य अलग ही स्याही से लिखा गया है!

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