भारतीय खेलों के वह ७ अभूतपूर्व क्षण, जिन्होंने देश का भाग्य बदल दिया!

इस क्षण के बाद इन्होने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा!

गए वो दिन, जब ताने लगते थे, “पढोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे, बनोगे ख़राब!” आज खेल केवल शौक तक सीमित नहीं है, ये अभूतपूर्व उपलब्धियों का वो मंच है, जहाँ अनेक भारतीय अपना भाग्य आजमाने को लालायित हैं. पिछले कुछ वर्षों में, कुछ घटनाओं ने भारतीय खेलों के परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ी है, न केवल इतिहास के पाठ्यक्रम को बदल दिया है, बल्कि देश भर में महत्वाकांक्षी एथलीटों के लिए प्रेरणा के प्रतीक के रूप में भी काम किया है। यहां 7 ऐसे महत्वपूर्ण क्षण हैं जिन्होंने भारतीय खेलों में जुनून और उत्कृष्टता की लौ जलाई है:

1) Kapil Dev’s Unforgettable 175*:

कपिल देव के नेतृत्व में 1983 क्रिकेट विश्व कप में भारतीय क्रिकेट टीम की अप्रत्याशित जीत ने देश में क्रिकेट क्रांति को प्रज्वलित कर दिया। इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका थी कपिल देव के उस पारी की, जिसे उन्होंने ज़िम्बाब्वे के विरुद्ध खेला, और १७५ रन बनाकर नाबाद रहे. इस जीत ने प्रदर्शित किया कि भारत वैश्विक क्रिकेट मंच पर दबदबा बना सकता है, जिससे कई क्रिकेटर प्रेरित हुए!

2) Leander Paes’ “Atlanta Glory”:

1996 तक, भारत का ओलंपिक गौरव फील्ड हॉकी तक ही सीमित था. हेलसिंकी 1952 में केडी जाधव की उपलब्धि एकमात्र अपवाद थी! हालाँकि, 1996 में, एक गैर वरीयता प्राप्त खिलाड़ी, लिएंडर एड्रियन पेस ने पूरी दुनिया को चौंका दिया, जब उन्होंने 3-6 से पिछड़ने के बावजूद ब्राज़ील के फर्नांडो मेलिगेनी को हराकर कांस्य पदक जीता। १६ वर्षों बाद भारत को ओलम्पिक के किसी वर्ग में पदक प्राप्त हुआ था, और ४४ वर्ष बाद किसी भी भारतीय के लिए ये पहला व्यक्तिगत पदक था। मजे की बात, इनके अपने पिता, डॉ. वेस पेस, उस भारतीय हॉकी टीम के सदस्य थे जिसने म्यूनिख ओलंपिक 1972 में कांस्य पदक जीता था।

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3) Dingko Singh’s Historic Gold:

1998 में, एक नौसेना कैडेट, एन. डिंग्को सिंह को अंतिम समय में भारतीय मुक्केबाजी दल से बाहर कर दिया गया था। परन्तु उनकी वापसी भी कम नाटकीय नहीं थी. कहते हैं कि उन्होंने कुछ ज़्यादा ही मदिरा का सेवन कर लिया था, और जाने क्या हुआ, कि उन्हें पुनः भारतीय टीम में सम्मिलित किया गया. डिंको ने इस मौके को बिलकुल नहीं गंवाया, और उनके गहन प्रयासों का फल 1998 के बैंकॉक एशियाई खेलों में मिला, जहां उन्होंने आश्चर्यजनक रूप से स्वर्ण पदक जीता, जो पिछले 28 वर्षों में एशियाई खेलों में मुक्केबाजी में भारत के लिए पहला स्वर्ण था! डिंग्को के प्रयासों ने हजारों युवा मुक्केबाजों को प्रेरित किया, जिनमें से एक एमसी मैरी कॉम बनीं, जो ओलंपिक पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला मुक्केबाज थीं। निस्संदेह हवा सिंह की भी अपनी भूमिका थी, परन्तु डिंको सिंह के उपलब्धियों का बॉक्सिंग पर जो प्रभाव पड़ा, उससे आज भी कई लोग अपरिचित हैं!

4) Sushil Kumar and his journey to the Podium:

आज भले ही वह अपने कर्मों का फल भोगते हुए सलाखें गिन रहे हों, परन्तु एक समय वह भी था, जब सुशील कुमार ने भारत के कुश्ती में खोये गौरव को पुनर्जीवित करने में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया था. जिस बीजिंग ओलम्पिक में अभिनव बिंद्रा ने स्वर्ण पदक जीता था, तो सुशील ने कुश्ती में ६६ किलो वर्ग में आश्चर्यजनक रूप से कांस्य पदक जीता। 56 साल बाद कोई कुश्ती में भारत के लिए ओलंपिक पदक जीतने में कामयाब हुआ था। यह उस खेल के लिए अत्यंत आवश्यक बूस्टर था जिसके उस समय तक बहुत कम प्रशंसक थे.

5) The rise of Saina Nehwal:

बीजिंग ओलंपिक को निस्संदेह एक खेल राष्ट्र के रूप में भारत के पुनरुत्थान का मंच कहा जा सकता है। इस संस्करण की सबसे बड़ी खोजों में से एक साइना नेहवाल थीं।
उन्होंने कोई पदक नहीं जीता था, फिर भी ओलंपिक बैडमिंटन के क्वार्टर फाइनल तक का उनका सफर किसी प्रेरणा से कम नहीं था। पूर्व खिलाडी पुलेला गोपीचंद ने जिस तरह से उन्हें और पीवी सिंधु, पी कश्यप आदि को स्टारडम के लिए प्रेरित किया, वह किसी अभूतपूर्व उपलब्धि से कम नहीं है।

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6) Mirabai Chanu’s “Ticket to Glory”:

भारत में भारोत्तोलन में उतार-चढ़ाव का अपना हिस्सा है। वही खेल जिसने भारत को पहली महिला ओलंपिक पदक विजेता दी, वह डोपिंग नियमों के उल्लंघन के लिए भी कुख्यात हुआ!


हालाँकि, 2017 में, एक महिला ने सभी को चौंका दिया: सैखोम मीराबाई चानू। अपनी उपलब्धियों से भारत पर लगे डोपिंग के दाग को कम करते हुए उन्होंने न केवल पिछले २२ वर्षों में पहला विश्व चैंपियनशिप स्वर्ण जीता, बल्कि टोक्यो ओलंपिक 2020 में ऐतिहासिक रजत पदक जीतकर भारत के लिए ओलंपिक भारोत्तोलन के सूखे को भी समाप्त किया।

7) Neeraj Chopra’s “Glory Throw”!

भारत को ओलम्पिक एथलेटिक्स में एक पदक के लिए १२१ वर्ष का सूखा झेलना पड़ा, और एक स्वतंत्र देश के रूप में ७४ वर्ष। परन्तु जब मेडल मिला भी, तो कोई ऐसा वैसा नहीं, सीधा स्वर्ण पदक!


ऐसे ही तो हैं अपने सूबेदार नीरज चोपड़ा! जूनियर विश्व चैम्पियनशिप २०१६ में 86.48 मीटर के अपने थ्रो से दुनिया को चौंका देने वालेनीरज चोपड़ा ने भारतीय खेलों में एथलेटिक्स की लुप्त होती शैली को पुनर्जीवित किया है। मेजर ध्यानचंद के बाद, वह यकीनन सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों में से एक हैं, जिसकी बराबरी भारतीय क्रिकेटर भी नहीं कर सकते। आप स्वयं सोचिये, भारत में कौन सा खिलाड़ी एक ओलंपिक पदक, एक एशियाई खेल पदक, एक विश्व चैम्पियनशिप पदक और एक डायमंड लीग चैम्पियनशिप का दावा निस्संकोच कर सकता है?

इन अभूतपूर्व क्षणों ने खेल की सीमाओं को पार कर लाखों लोगों के दिलों को छू लिया है। अपने समर्पण, जुनून और उत्कृष्टता की निरंतर खोज के माध्यम से, इन एथलीटों ने बाधाओं को तोड़ा, इतिहास रचा और भावी पीढ़ियों के लिए इसका अनुसरण करने का मार्ग प्रशस्त किया है। जैसे-जैसे भारत एक खेल महाशक्ति के रूप में विकसित हो रहा है, ये घटनाएं देश के खेल समुदाय के भीतर मौजूद उल्लेखनीय क्षमता के प्रमाण के रूप में काम करती हैं।

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