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कैसे एक अमेरिकी महिला ने हमारा सिक्किम लगभग छीन लिया!

भारतीय थलसेना को साधुवाद!

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
8 September 2023
in इतिहास
कैसे एक अमेरिकी महिला ने हमारा सिक्किम लगभग छीन लिया!
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सिक्किम, जिसका सनातन धर्म एवं बौद्ध पंथ में समान महत्त्व है, शनै शनै भारतीय परिदृश्य में अपना स्थान मजबूत कर रहा है. भारत के पूर्वोत्तर में स्थित ये अनोखा राज्य सांस्कृतिक एवं राजनैतिक रूप से काफी महत्वपूर्ण है.

परन्तु अगर आपको पता चले कि सिक्किम एक समय अफगानिस्तान / सीरिया बनने के मुहाने पर खड़ा था, तो? हाँ, ये बात आपको विचलित करने के लिए पर्याप्त है. परन्तु ऐसा ही कुछ होने वाला था, जब एक अमेरिकी महिला, केवल एक अमेरिकी महिला के कारण हमारे भारत का एक महत्वपूर्ण अंग विनाश के मुहाने पर आ खड़ा हुआ!

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तो आइये जानते हैं उन ऐतिहासिक क्षणों के बारे में, जब सिक्किम में राजनीतिक अस्थिरता का कुछ लोग अनुचित लाभ उठाना चाहते थे, और कैसे राजनीतिक एवं सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण सिक्किम को कुछ दृढ निश्चयी भारतीय सैन्य अफसरों ने अमेरिका और चीन के चंगुल से छुड़ाया!

सिक्किम का महत्त्व

भारत में सिक्किम का अपना अलग महत्त्व है. सांस्कृतिक रूप से ये धरती हिन्दुओं और बौद्धों के लिए समान रूप से पावन मानी जाती है. हमारे सनातन शास्त्रों के अनुसार जब अर्जुन की तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव एक जनजातीय प्रमुख के रूप में आये थे, तो जिस स्थान पे वे प्रकट हुए, वहीँ पर किराटेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण हुआ. कहते हैं कि इसी क्षेत्र में भगवन शिव ने अर्जुन को अपना अति महत्वपूर्ण पाशुपतास्त्र प्रदान किया था!

कुछ लोगों का ये भी मानना है कि सिक्किम की सबसे प्राचीन जनजाति किराति इन्ही के नाम पर पड़ी थी. इतिहासकार डॉक्टर ए सी सिंह के अनुसार आदिकाल से सिक्किम किराति जनजाति का मूल निवास रहा है.

६ठी शताब्दी के पश्चात यहाँ लेप्चा और भूटिया जनजातियां भी बसने लगी. इनके पंथ समान नहीं थी. कुछ किरातियों की भांति भोलेनाथ के उपासक थे, तो कुछ बौद्ध भी थे, और कुछ को अपने स्थानीय कुलदेवी / कुलदेवता पर पूर्ण विश्वास था. ब्रिटिश साम्राज्य के आगमन तक सिक्किम एक स्वतंत्र राजशाही था.

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नेपाल के प्रभाव से मुक्त रहने हेतु सिक्किम ने अंग्रेजों से हाथ तो मिलाया, परन्तु ये दांव उन्ही पर भारी पड़ा. भारत के १९४७ में स्वतंत्र होने पर स्वतंत्र सिक्किम की मांग उठने लगी, परन्तु तत्कालीन चोग्याल [सम्राट] ताशी नामग्याल के प्रयासों से सिक्किम भारत का “protectorate state” बनने को तैयार हो गया. ताशी चाहते थे कि सिक्किम, भारत और तिब्बत के बीच सम्बन्ध सशक्त हो! इसीलिए १९५० में भारत सिक्किम Treaty पर वे हस्ताक्षर करने को सहमत भी हुए!

कैसे सिक्किम बना CIA का प्लेग्राउंड

१९६० के प्रारंभिक दशक तक सिक्किम में कुछ उथल पुथल नहीं थी. परन्तु 1962 के भारत चीन युद्ध के बाद काफी कुछ बदल गया.

परन्तु प्रश्न तो अब भी व्याप्त है: CIA सिक्किम में इतनी रूचि क्यों ले रहा था? 1950 के दशक में तिब्बती बागियों को सहायता देने एवं चीन के प्रभुत्व को कम करने के उद्देश्य से CIA ने सिक्किम में अपना डेरा जमाया. इसी से सिक्किम का महत्त्व धीरे धीरे राजनीतिक विशेषज्ञों को समझ में आने लगा.

जब दलाई लामा तिब्बत से भागकर भारत आये, तो वे सिक्किम के माध्यम से भारत में प्रविष्ट हुए. स्वयं जवाहरलाल नेहरू तक सिक्किम एवं उसके आसपास के क्षेत्र के महत्त्व से पूर्णतया अपरिचित नहीं थे.

परन्तु १९६३ तक काफी कुछ बदलने लगा था. ताशी नामग्याल कैंसर के कारण परलोक सिधार गए. उनकी जगह ली उनके पुत्र, पाल्डेन थोंडुप नामग्याल, परन्तु न तो वे ताशी जितने लोकप्रिय थे, और न ही वे उनके जितने भारत को समर्पित थे.

पिता की मृत्यु को पूर्ण हुए छह माह भी नहीं हुए थे, कि पाल्डेन के विवाह ने बवाल मचा दिया. उसने अपने से कहीं छोटी, २२ वर्षीय अमेरिकी सोशलाइट होप कुक से विवाह किया. धीरे धीरे होप केवल राजशाही के रखरखाव तक सीमित न रहकर सिक्किम एवं भारत के आतंरिक मामलों में  भी दखल देने लगी! कुछ का मानना था कि ये विशुद्ध सीआईए एजेंट थी, परन्तु इसके समर्थन में पर्याप्त साक्ष्य मिलना अभी बाकी है.

इसके अतिरिक्त सिक्किम में परिस्थिति बद से बदतर हो रही थी. प्रवासी नेपालियों के बढ़ते प्रभुत्व से स्थानीय लेप्चा और भूटिया जनजातियों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा. इसके अतिरिक्त किसानों पर अनुचित कर अधिनियम लगाए जाने लगे, जिससे अब स्थानीय निवासी धीरे धीरे भारत की ओर स्वत: ही आकृष्ट होने लगे.

ऐसी राजनीतिक अस्थिरता का लाभ फिर किसे मिलता? अमेरिका और चाइना को, और किसे? दोनों ही अपने लाभ के लिए सिक्किम को अपना बनाना चाहते थे, और दोनों भारत के साथ इसके विलय के सख्त विरुद्ध थे. परन्तु ईश्वर की कृपा कहें, स्थानीय जनता इन दोनों देशों जितनी मंदबुद्धि नहीं थी!

कैसे मेजर जनरल सगत सिंह ने बिगाड़ा चीन और अमेरिका का खेल!

परन्तु केवल सिक्किम की जनता ही नहीं थी, जो चाहती थी कि भारत में इनका अविलम्ब विलय हो.

ये खेल प्रारम्भ हुआ था 1963 में, जब चीन ने भारत को जेलेप ला और नाथु ला छोड़ने का फरमान सुनाया. जेलेप ला पर स्थित भारतीय अफसर तुरंत मान गए, पर नाथु ला की कथा कुछ और ही थी.

नाथु ला के रणनीतिक एवं भौगोलिक महत्त्व को समझते हुए वहां के डिविजनल कमांडर, मेजर जनरल सगत सिंह राठौड़ ने स्पष्ट कर दिया कि चाहे जो हो, वे नाथु ला से टस से मस नहीं होने वाले. चीनियों द्वारा निरंतर तौर पर सीमारेखा पार करने की उनकी खुजली देखते हुए मेजर जनरल सगत सिंह एवं उनके मातहतों ने नाथु ला एवं उसके आसपास के क्षेत्रों की सीमा सुरक्षा को सशक्त करने का निर्णय लिया.

वैसे भी मेजर जनरल सगत सिंह राठौड़ कोई कच्चे खिलाड़ी नहीं थे. 1961 में इन्होने गोवा के स्वाधीनता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इनके नेतृत्व में भारतीय सैनिकों ने पुर्तगालियों का मार मारके भूत बना दिया, और इससे कुपित होकर पुर्तगालियों ने इनके नाम से पोस्टर तक छपवा दिया, कि जो भी इन्हे जीवित या मृत अवस्था में पुर्तगाल लाएगा, उन्हें १०००० डॉलर का पुरस्कार दिया जायेगा! खौफ बड़ी चीज़ है!

और पढ़ें: जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर: कैसे समरकन्द का भगोड़ा बना मुगल साम्राज्य का संस्थापक

परन्तु बहुत कम लोगों को पता है कि मेजर जनरल सगत सिंह के तत्कालीन सिक्किम राजशाही के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे. स्वयं होप कुक भी काफी प्रभावित थी. परन्तु वह इसका अनुचित लाभ उठाने को उद्यत थी. लेकिन जब “सख्ती” का सिद्धांत कूल भी नहीं हुआ था, उससे पूर्व ही सगत सिंह अपने आदर्शों पर अडिग रहे. उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि था.

शीघ्र ही मेजर जनरल सगत सिंह के प्रयास रंग लाये. जब 1967 में चीन ने नाथु ला और चो ला पर आक्रमण किया, तो उन्हें अप्रत्याशित रूप से भारतीयों सेज़बरदस्त प्रत्युत्तर मिला. चो ला में गोरखा योद्धाओं एवं जम्मू एन्ड कश्मीर राइफल्स के योद्धाओं ने मिलकर चीन की ऐसी कुटाई की कि आज भी उस स्थान से आक्रमण करने से पूर्व वे भी हज़ार बार सोचते हैं.

भारत में सिक्किम का विलय केवल माओवादी चीन के लिए नहीं, अपितु अमेरिका के लिए भी १००० वोल्ट के झटके समान था! परन्तु मेजर जनरल सगत सिंह जैसे जुझारू सैनिकों के कारण ही आज सिक्किम भारत का हिस्सा है, और आज भारत पर आक्रमण करना मच्छर मारने जितना सरल तो बिलकुल नहीं!

Sources:

Watershed 1967, India’s Forgotten Victory over China, by Probal Dasgupta

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