किरण राव का डर बिल्कुल वास्तविक है, और इसकी बहुत जरूरत है!

ये डर होना ही चाहिए!

“बाज़ार के संदर्भ में बहुत कुछ बदल गया है; दर्शकों के पास बहुत सारे विकल्प हैं, और जब आप एक फिल्म बना रहे होते हैं तो आप हर तरह के दर्शकों का ध्यान आकर्षित कर रहे होते हैं। परन्तु जब, मेसेजिंग नकारात्मक होती है, और ऐसी फिल्में सैकड़ों करोड़ बनाता है, तो दुख होता है। क्योंकि आपके पास सुई को किसी दिशा में धकेलने का अवसर था और आपने ऐसा नहीं किया। ये वो चीजें हैं जो कभी-कभी मुझे परेशान करती हैं। पर हर फिल्म निर्माता के अपने लक्ष्य होते हैं”।

कुछ स्मरण हुआ? यदि नहीं, तो समय का चक्र तनिक और पीछे घुमाइए.

ग़दर २ की सफलता पर मियां नसीरुद्दीन शाह उबल पड़े थे! उनके अनुसार, ऐसे ‘कुत्सित विचारधारा’ की फिल्मों का सफल होना देश के लिए चिंताजनक है। इनके ऐसे बयानों के बाद किरण राव की आशंकाओं को महज संयोग कहकर खारिज नहीं किया जा सकता।

तो प्रश्न स्पष्ट है: उक्त फिल्म की सफलता से ऐसे ‘बुद्धिजीवी’ इतने असहज / इनसेक्योर क्यों है? क्या वे इसकी सफलता से जलते हैं, या फिर इन्हे आभास हो चूका है कि जनता की प्राथमिकताएं बदल रही हैं, और इनकी दुकानों पर शीघ्र ही ताला लगने वाला है? आइये इसी पर चर्चा करते हैं!

बदलाव दिख रहा है!

हाल ही में किरण राव ने फिल्म कम्पैनियन से एक साक्षात्कार में अपना दुखड़ा रोया, कि कैसे ‘रिग्रेसिव’ सन्देश वाली फिल्में पैसा बटोर रही हैं, और ‘अच्छी फिल्मों’ को लोग इग्नोर कर रहे हैं! किसी फिल्म का इन्होने नाम नहीं लिया, परन्तु बड़ी फिल्मों में ‘बेहतर मेसेजिंग’ पर इन्होने ज़ोर दिया!

बेहतर मेसेजिंग माने क्या? अगर किरण राव और नसीरुद्दीन शाह के बयानों को देखे, तो बेहतर मेसेजिंग माने वो फिल्म, जो भारतीय संस्कृति का उपहास उड़ाए, देश की अखंडता एवं सम्प्रभुता पे प्रश्न उठाये, और कुछ काले पन्नों को उजागर करने से दूर रहे! शास्त्रों में इसे ही ‘गंगा जमुनी तहज़ीब’ का नाम दिया गया है!

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परन्तु अगर ये मियां नसीरुद्दीन की बकैती होती, तो इसपे शायद ही कोई ध्यान देता! लेकिन किरण राव की एंट्री से सारा खेल रोटी पानी पे आ जाता है! वो कैसे? सर्वप्रथम, वे भले ही आमिर खान से अलग हो चुकी हो, परन्तु बतौर निर्माता वे आमिर खान प्रोडक्शंस का भाग भी हैं! पिछले ही वर्ष इनकी फिल्म भी आई थी, “लाल सिंह चड्ढा”, जिसे उसके ख़राब स्क्रीनप्ले और आमिर खान की निकृष्ट एक्टिंग के पीछे जनता ने पानी तक न पूछा! ऊपर से करोड़ों का नुक्सान हुआ वो अलग! जिस आमिर खान की फिल्म के राइट्स के लिए विभिन्न कंपनियां लड़ मरने को तैयार हो जाती थी, वो नेटफ्लिक्स पर कब  रिलीज़ हुई, किसी को पता ही नहीं चला!

सच कहें तो इन लोगों के पास डरने का एक कारण है। लोगों द्वारा “कैंसिल कल्चर” की अवधारणा के बारे में सुनने से भी बहुत पहले, भारतीय सिनेमा, विशेष रूप से बॉलीवुड, के पास ‘कैंसिल कल्चर’ का अपना संस्करण था। एक समय था जब उद्योग में कुछ प्रभावशाली शख्सियतों के पास अपार शक्ति होती थी और वे किसी भी ऐसी फिल्म को दबा सकते थे जो उनकी विचारधारा से थोड़ा भी अलग हो। कई फिल्मों को इतने प्रभावी ढंग से दबा दिया गया कि वे मुश्किल से ही सिनेमाघरों तक पहुंच पाईं। अधिक जानकारी के लिए ‘1971’ के निर्माताओं से संपर्क करें।

ऐसे में जब जब कुछ फिल्म निर्माताओं ने ‘बुद्धा लाइक ए ट्रैफिक जाम’, ‘द ताशकंद फाइल्स’ और ‘इंदु सरकार’ जैसी फिल्मों के साथ वैकल्पिक रास्ता अपनाने का साहस किया, तो उन्हें उद्योग प्रतिष्ठान के लगातार विरोध का सामना करना पड़ा। दिक्कत तो ये भी थी कि अधिकतम फिल्में औसत कहलाने योग्य भी नहीं थी, और अपने चित्रण से वामपंथियों का ही कार्य सुलभ बना रही थी।

पैसा बोलता है!

सिनेमा की दुनिया में, परिवर्तन को अक्सर प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है, खासकर जब यह इस्टैब्लिशमेंट के लिए खतरा हो। किरण राव जैसी शख्सियतों की आशंकाएं बहुचर्चित ब्लॉकबस्टर “ओपेनहाइमर” के एक मार्मिक संवाद में प्रतिध्वनित होती हैं: “नौसिखिये सूरज की तलाश करते हैं, सत्ता छाया में रहती है।”

2018 तक, सिनेमाई कथा में बदलाव की संभावना लगभग अकल्पनीय लग रही थी। हालाँकि, एक फिल्म की रिलीज के साथ परिदृश्य बदल गया। “तेरे बिन लादेन” के लिए प्रसिद्ध अभिषेक शर्मा ने वर्षों से लंबित जॉन अब्राहम अभिनीत फिल्म “परमाणु” को मई 2018 के अंत में रिलीज़ कराया। यह 1998 में पोखरण में ऐतिहासिक परमाणु परीक्षणों पर केंद्रित थी। फिल्म को स्व-घोषित आलोचकों से कठोर आलोचना का सामना करना पड़ा और उद्योग के दिग्गजों से बहुत कम समर्थन मिला।

लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ, जो किसी ने नहीं सोचा था । दर्शकों के प्रचार ने क्रिटिक्स के अनर्गल प्रलाप को उपहास का विषय बना दिया ।मुंह से बात फैल गई, जिससे आलोचकों की नकारात्मक समीक्षाओं को प्रभावी ढंग से नकार दिया गया। 35 करोड़ रुपये के मामूली बजट पर बनाया गया “परमाणु” दुनिया भर में 91.38 करोड़ की कमाई के साथ एक आश्चर्यजनक हिट के रूप में उभरी। । इस सफलता ने भारतीय फिल्म उद्योग की गतिशीलता में बदलाव का संकेत दिया।

फिर उरी हमलों के बाद हुए सर्जिकल स्ट्राइक्स पर आधारित “उरी” ने वामपंथियों के रातों की नींद उड़ा दी। परन्तु कोविड महामारी अप्रत्याशित रूप से भारतीय कॉन्टेंट स्पेस के लिए वरदान सिद्ध हुई। इस बदलाव में कई कारकों ने योगदान दिया, जिनमें लॉकडाउन के दौरान विविध सामग्री तक बेहतर पहुंच, बहुभाषी सिनेमा का उदय और सुशांत सिंह राजपूत की दुखद और रहस्यमय मृत्यु सम्मिलित है, जिसके कारण बॉलीवुड के मठाधीशों के प्रति जनता का क्रोध बढ़ने लगा।

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लेकिन उद्योग जगत के दिग्गज, खासकर बॉलीवुड के लोग जिस चीज को भूल रहे हैं या स्वीकार करने में अनिच्छुक हैं, वह है दर्शकों की पसंद में बड़ा बदलाव। जैसा कि प्रमुख व्यापार विश्लेषक तरण आदर्श कहते हैं, “यह दर्शकों का फैसला है जो मायने रखता है।” अपने पक्षपाती रिव्यू के पीछे विवादों के केंद्र में रहने वाले तरण तक मानते हैं कि कि अगर कोई फिल्म दर्शकों को पसंद आती है, तो क्रिटिक्स का रोना कोई नहीं सुनता।

इस प्रवृत्ति के ठोस प्रमाण के लिए, किसी को केवल “द केरल स्टोरी,” “द कश्मीर फाइल्स,” “कार्तिकेय 2,” और “कांतारा” जैसी फिल्मों के बॉक्स ऑफिस आंकड़ों को देखने की जरूरत है। जब कोई फिल्म वास्तव में दर्शकों से जुड़ती है, तो ‘बेहतर संदेश’ और ‘मानवीय चित्रण’ जैसी अवधारणाएं महज बकवास लगती हैं। फिर न PR की आवश्यकता, और न ही करोड़ों रुपये के कॉर्पोरेट बुकिंग की, क्योंकि कॉन्टेंट और जनता से बड़ा कोई नहीं!

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