महाराजा खारवेल: भारत के सबसे ओजस्वी सम्राट

महाराजा खारवेल की कीर्ति युगों युगों तक विद्यमान रहेगी!

महाराजा खारवेल: प्राकृत और ब्राह्मि में लिखित शिलालेख उनकी असाधारण गाथा का वर्णन करते हैं. तब चेदी वंश के राजसिंहासन पर अद्वितीय महामेघवाहन के अजेय सुपुत्र विराजमान हुए थे.
अपने शासनकाल में उन्होंने असाधारण कृत्य किये, प्रथम वर्ष में उद्यानों और शैलसेतुओं का निर्माण कर कलिंग का पुनरुद्धार किया, द्वितीय वर्ष में सतवाहनों को भीषण युद्ध में परास्त किया, तृतीय वर्ष उनकी कला रसिकता का साक्षी रहा, चतुर्थ वर्ष में उन्होनें “विद्याधरों के निलय” को पुनः स्थापित किया और रथिकों और भोजकों को कर देने पर विवश किया.

पंचम वर्ष में तन्सौलिया के नहर को राजधानी से संयोजित किया, सप्तम में उनकी रानी माता बनी. अष्टम वर्ष में गोरधागिरी और राजगह पर विजय अर्जित की. दशम वर्ष में भरतवास पर आधिपत्य स्थापित किया और त्रमिर प्रसन्धि का विच्छेद किया. द्वादशवें वर्ष में मगध का दर्पहरण किया, त्रयोदशवें वर्ष में धर्म का प्रचार प्रसार हुआ. उन्होंने अंग साहित्य का संकलन किया, ऋषि-मुनियों का सम्मान किया. वे राजर्षि वसु की संतति थे. वे शांति के ध्वजवाहक थे परन्तु रण में वीभत्स थे. वे मंदिरों के रक्षक थे, कला प्रेमी थे, वे महान थे, महानतर थे, महानतम थे. वे महाराजाधिराज खारवेल थे.

कलिंग के राजसिंहासन पर विराजमान होते ही महाराजा खारवेल के सम्मुख एक भीषण समस्या उत्पन्न हो गयी थी. राज्य समृद्ध था परन्तु अव्यवस्थित और असुरक्षित था. समीपस्थ राजाओं की महत्वाकांक्षा चरम पर थी और राज्य पर आक्रमण का संकट था. अंग्रेजी में कहावत है न – offence is the best form of defence, अर्थात आक्रम ही प्रतिरक्षा का सर्वश्रेष्ठ रूप है. इसी उक्ति को चरितार्थ करते हुए खारवेल ने प्रथम सतवाहन और अंततः मगध साम्राज्य के साथ युद्ध किया. कलिंग की सीमाओं को दृढ करने में, शक्ति के सङ्घनन में और खारवेल को एक भीमकर्मन राजा के रूप में स्थापित करने में इन अभियानों की प्रमुख भूमिका थी.

184 इसा पूर्व का कालखंड था, सतवाहन साम्राज्य कलिंग के लिए सबसे प्रबल शत्रु था. परन्तु सतवाहन साम्राज्य के साथ युद्ध यमराज के आलिंगन के सदृश था. परन्तु महाराजा खारवेल के ओजपूर्ण वचनों से उनकी सेना उच्छ्वसित थी और युद्ध को उत्सुक भी. यह युद्ध केवल धनुष-बाण और खड्ग का नहीं था वरन बुद्धि का भी था, तार्किकता का भी था, और सैन्यविन्यासविद्या का भी था.

सतवाहन साम्राज्य की सीमा दूर दूर तक फैली थी, और उनकी सेना प्रभूत थी. परन्तु दृढ इच्छाशक्ति से पूर्ण खारवेल के नेतृत्व में कलिंग की सेना भी कमतर न थी. गोदावरी के तट पर स्थित पैथन की युद्धभूमि मानों द्वितीय कुरुक्षेत्र में परिवर्तित हो गयी और ऐसा लोमहर्षणकारी युद्ध हुआ कि दिग दिगंत योद्धाओं के सिंहनाद, वाणों के सर सर शब्द, और खड्गों की शिञ्जनि से गूंज उठा.

भिन्न भिन्न वाहिनियों में विभक्त महाराजा खारवेल की सेना सैन्यविद्या का अभूतपूर्व प्रदर्शन करती हुई सतवाहन साम्राज्य की एकीकृत सेना पर अलग अलग दिशाओं से टूट पड़ी. सतवाहन वीरों की वीरता पर खारवेल का वीरतापूर्ण चातुर्य भारी पड़ा. परिणाम त्वरित भी था और निर्णायक भी. विजयोपरांत उत्सव मनाने की पुरातन रीति की अवहेलना करते हुए खारवेल रुके नहीं, वरन सीधे सतवाहन साम्राज्य के मर्मस्थल वैजयंती पर आक्रमण कर दिया. 180 इसापूर्व में वैजयंती का वीभत्स युद्ध हुआ. खारवेल ने भूमि के आलिन्द का व्यावहारिक उपयोग किया और उनकें योद्धाओं ने अपने भुजबल का. अभेद्य और अयोध्य वैजयंती पर कलिंग की सम्पूर्ण विजय हुई.

सतवाहन साम्राज्य के राजा, राजकुटुंब, मंत्री और योद्धा सब खारवेल के हाथों मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे. परन्तु किसी ज्ञानी व्यक्ति ने कहा है – क्षमा बलमशक्तानाम् शक्तानाम् भूषणम् क्षमा। क्षमा वशीकृते लोके क्षमयाः किम् न सिद्ध्यति॥ अर्थात – क्षमा निर्बलों का बल है, क्षमा बलवानों का आभूषण है, क्षमा ने इस विश्व को वश में किया हुआ है, क्षमा से कौन सा कार्य सिद्ध नहीं हो सकता है॥

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राजराणक की उपाधि देकर युद्ध में पराजित योद्धाओं को जीवनदान व राजा को राज्य पुनः दिया गया. भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि शांति के लिए युद्ध अनिवार्य होता है. सतवाहन साम्राज्य पर विजयोपरांत कलिंग में सर्वत्र शान्ति और समृद्धि का वास था. 175 इसा पूर्व का कालखंड था, कलिंग के पश्चिम में मगध वैभव की पराकाष्ठा पर था और उसकी सीमा दूर दूर तक किसी विशाल वटवृक्ष की जटों के सदृश फैली थी. मगध और कलिंग के महान साम्राज्यों के मध्य शान्ति वार्ता असफल सिद्ध हो चुकी थी, और उनके मध्य अभिस्कंद निश्चित था.

प्रथम युद्ध 174 इसा पूर्व में गिरिनगर के दुर्ग पर हुआ. इतिहासकार पतंजलि के लेख बताते हैं कि कलिंग की वेगवती सैन्यनदी के समक्ष मगध की सेना किसी जठर प्रस्तरशिला के सदृश खड़ी थी. परन्तु महाराजा खारवेल ने सन्दंश व्यूह की स्थापना की और मगध सेना को दोनों ओर से घेर लिया. मगध के योद्धा युद्धकौशल में कदाचित कम न थे. परन्तु वास्तविक युद्ध तो मस्तिष्क में लड़ा जाता है. घोर संग्राम के पश्चात मगध के चमूनायकों को भान हो गया की कलिंगसेना का मर्दन असंभव है और उनकी गति को रोकना अशक्य. गिरिनगर के युद्ध में किसी रूपवती प्रेयसी के सदृश विजयश्री ने खारवेल के अधरों का चुम्बन किया. पुनः विजयोपरांत उत्सव मनाने की पुरातन रीति की अवहेलना करते हुए खारवेल ने सीधे राजगृह की ओर प्रस्थान किया. दुर्गम पर्वतों के मध्य स्थित राजगृह मगध साम्राज्य की मर्मस्थली थी.

173 इसा पूर्व में राजगृह का भीषण युद्ध हुआ. मगध की गजसेना को परास्त करने के लिए महाराजा खारवेल ने भी गजसेना का सम्यक उपयोग किया. तीव्रता से संचालित होती कलिंग की गजसेना की लघु इकाइयां, मगध की विशाल परन्तु एकीकृत और धीमी गजसेना से श्रेयस्कर सिद्ध हुई. गजों के साथ, घड घड नाद करती रथों की पृतन्या, अश्वारोहियों की तीव्र सेना और पृष्ठभाग में धनुर्धारियों के निर्बाध वाण प्रवाह ने मगधसेना को निरुत्साह कर दिया. विजयश्री ने पुनः खारवेल का वरण किया.
अब केवल मगध की वैभवशालिनी राजधानी पाटलिपुत्र ही शेष थी. 171 इसा पूर्व में पाटलिपुत्र के युद्ध में मगध की पराजय हुई और गंगा की लहरों ने मानों हाथ उठा खारवेल का अभिवाद किया.

176 इसापूर्व में कलिंग की नौसेना ने अपना गौरवशाली पदार्पण किया. युद्धपोतों के ध्वज पर विशाल गज का चित्र अंकित था. वरुण देवता की पूजा अर्चना के पश्चात कलिंग ने जल पर भी अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए तरंगों का रोहण किया. सर्वप्रथम लंका को शान्ति सन्देश प्रेषित हुआ परन्तु शान्तिदूत के अपमान के पश्चात लंका का दोहन हुआ. इतिहासकार मेगास्थनीज बताते हैं की दोहन के पश्चात लंका ने खारवेल का आधिपत्य स्वीकार किया व कलिंग से व्यापक सामरिक और व्यापारिक संबध बनाएं.

174 इसा पूर्व में जावा का द्वीप कलिंग के अधीन हुआ. कलिंग का राजकोष जावा की मुद्रा और रत्नों से भर गया. तत्पश्चात 171 इसा पूर्व में खारवेल की नौसेना ने सुवर्णभूमि अर्थात तात्कालिक थाईलैंड की ओर दृष्टि उठायी. भीषण युद्ध हुआ, परन्तु अब तक समुद्री युद्धों में दक्षता प्राप्त कर चुके खारवेल की नौसेना के समक्ष सुवर्णभूमि ने अपना मस्तक नत कर दिया. तत्पश्चात महाराजा खारवेल ने सुवर्णभूमि को सामंत की पदवी दी. महान नौसेना इतिहासकार पेरिप्लस के अनुसार, सुवर्णभूमि विजय के पश्चात, खारवेल का नाम समुद्र में पोत लेकर विचरते योद्धाओं के लिए भगवान् के नाम के सदृश हो चुका था.

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जब कलिंग की नौसेना पुनः कलिंग पहुंची तब उसके पृष्ठ में स्वर्ण, रत्न, और चित्र विचित्र भेंटों से भरी अनेक नौकाएं थी और साथ था खारवेल का न भूतो न भविष्यति यश.
महाराजा खारवेल का शासन केवल युद्ध में विजय के लिए प्रसिद्ध नहीं था. महाराज खारवेल कला और संस्कृति रसिक थे. वीणा और बांसुरी बजाने में सिद्धहस्त महाराज खारवेल का राज्य कलाकारों की काशी था. कलिंग की वायु कवियों की ऋचाओं, संगीतज्ञों के वाद्यध्वनियों, गायकों के राग से सिंचित थी. चित्रकारों की तूलिकायें और मूर्तिकारों की तक्षनी कभी स्थिर न रहती थी. कलिंग विश्व का सबसे वृहत सांस्कृतिक केंद्र बन कर उभरा.

विशाल मंदिरों का निर्माण हुआ, गगनचुम्बी अट्टालिकाएं उठ खड़ी हुईं. महाविजय प्रासाद का निर्माण हुआ. अंग, संस्कृत, वज्जी और प्राकृत के विश्वविद्यालय उस कालांश के विद्वानों, साधुओं और आचार्यों की प्रमुख स्थली बनी. महाराज खारवेल ने कलिंग के सांस्कृतिक परिवेश पर अपनी अक्षर छाप छोड़ी, उनके अंतर्गत एक ऐसे कलिंग का निर्माण हुआ जहाँ कला, साहित्य और आध्यात्मिकता फली फूली. कालरेणुका पर महाराज खारवेल ने एक ऐसी रेखा खिंचित की जिसके समान रेखा कोई अन्य राजा न खींच पाया. परन्तु भारत के इतिहासकारों ने इस महान राजा की महान गाथा को इतिहास के पुस्तकों के किसी अध्याय के किसी अनुच्छेद के किसी पंक्ति में सीमित कर दिया.

महाराज खारवेल की कथा भारत के तथाकथित शांतिपूर्ण स्वाभाव पर कुठाराघात करती है.
महाराज खारवेल की कथा यह सिद्ध करती है कि राज्य विस्तार राजा का प्रमुख कार्य रहा है.
महाराज खारवेल की कथा यह सिद्ध करती है कि भारत भीरु इंडिया नहीं वरन वीर भारत रहा है.
कदाचिद्, यही कारण है महाराज खारवेल और उनके जैसे अन्य राजाओं की कथा को लोकमानस से विलुप्त कर दिया गया. पर अग्नि को कब तक सूखे पत्ते से ढकोगे, अग्नि है, जलाकर पुनः प्रज्वलित होगी.

यह थी कथा एक चक्रवर्ती सम्राट की, यह कथा थी शांति के लिए युद्ध लड़ने वाले धर्मयोद्धा की, यह कथा थी एक महान शासक की, यह कथा थी महाराज खारवेल की.

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