“Quebec movement” में भारत की रूचि बढ़ा रही ट्रूडो की चिंता!

ये नया भारत है..

The Quebec movement: देखो, अगर आपको ये लगता है कि आप भारत की अखंडता को चुनौती दे सकते हैं, और ये सोचते हैं कि आपको कोई हाथ नहीं लगा पायेगा, तो या तो आप बहुत भोले हो, या फिर बुद्धि और आपका दूर दूर तक कोई नाता नहीं! अगर किसी को उकसाओगे, तो उत्तर में कुछ नहीं तो क्रोधित नेत्र आपकी ओर अवश्य ताकेंगे। कनेडा के वर्तमान करता धर्ता जस्टिन ट्रूडो को इसका कड़वा अनुभव प्राप्त हो रहा है।

मेन बात यह है कि भारतीयों ने कनाडाई लोगों की दुखती रग – Quebec movement – पर निशाना साधा है। यह एक ऐसा विषय है, जिसपर कनाडा नहीं चाहता की विश्व में चर्चा हो, और ट्रूडो तो बिलकुल नहीं चाहेंगे की इसके बारे में कोई सोचे भी, चर्चा तो दूर की बात रही।

तो सभी को सादर नमस्कार, और आज हम चर्चा करेंगे इसी Quebec movement पर, और क्यों इसके उल्लेख मात्र से कैनेडियाई प्रशासन के हाथ पाँव फूलने लगते हैं, और क्यों इस पर चर्चा कर भारत ने अपने निडर स्वभाव का परिचय दिया है!

क्यों है क्यूबेक कनाडा के लिए इतना महत्वपूर्ण?

यह “Quebec movement” क्या है और कनाडा को किस बात की चिंता है? ये बात है 1760 के दशक की, जब अंग्रेज़ों ने कनाडा में प्रवेश किया, फ्रांसीसी और इंडियन युद्ध के दौरान फ्रांसीसियों से संघर्ष किया और विजय प्राप्त  की। कनाडा दो भागों में बंट गया – ऊपरी कनाडा (जो कि पूरी तरह से ब्रिटिश था) और निचला कनाडा (जो फ्रांसीसी क्षेत्र था)। निचला कनाडा ही आधुनिक क्यूबेक है। 1867 तक तेजी से आगे बढ़ते हुए, कनाडा और ब्रिटिश उत्तरी अमेरिका अधिनियम के माध्यम से “एकीकृत” हो गए।

स्पष्ट रूप से कहें तो कनाडा के लिए क्यूबेक वही है जो पाकिस्तान के लिए बलूचिस्तान है या चीन के लिए ताइवान है। दोनों ही प्रांत अपने ‘मूल देश’ से अलग होना चाहते हैं और दोनों ही देश इस बात को संसार से छुपाना चाहते हैं!

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यही बात क्यूबेक प्रांत के लिए भी चरितार्थ होती है. इन्हे ये आपने को वास्तविक कनाडा मानते हैं, और चाहते हैं की आंग्लभाषी कनाडा इनसे दूर ही रहे! ब्रिटानिका इनसाइक्लोपीडिया के अनुसार, यह सब 1890 के दशक से क्यूबेक की अर्थव्यवस्था और समाज में बदलाव से उपजा है। उस समय, क्यूबेक में लोग मुख्य रूप से खेती और मौसमी लकड़ी के उत्पादन से जीवन यापन करते थे। परन्तु जैसे ही इनका परिचय आधुनिक तकनीक, विशेषकर हाइड्रोपावर से हुआ, सब कुछ बदल गया!

क्यूबेक में दो बार जनमत संग्रह भी हुआ, जिसमें अंतिम बार 1995 में ये प्रक्रिया संपन्न हुई। दोनों बार कनाडा बाल बाल बचा, क्योंकि क्यूबेक समर्थक के प्रयासों के बाद भी वे पूर्णतया बहुमत का आंकड़ा नहीं जुटा पाए । इसी कारण से क्यूबेक प्रांत कनाडा के लिए सरदर्द बना हुआ है, और ऐसे में इस विषय का ग्लोबलाइजेशन ट्रूडो प्रशासन के लिए किसी दुःस्वप्न से कम न होगा ।

क्यों हो रहा है भारत “Quebec movement” पर ‘आक्रामक’?

तो प्रश्न ये उठता है, भारत अचानक ‘क्यूबेक फ्रंट’ पर इतना सक्रिय हो रहा है? यह विचारणीय प्रश्न है, परन्तु इसका उत्तर भी श्रीमान जस्टिन ट्रूडो के पास ही है। उन्हें लगा था कि खालिस्तान पर दो शब्द बोलकर  वह भारत को या तो डरा देंगे , या फिर चुप रहने पर विवश करेंगे, और यही इन्होने सबसे बड़ी गलती की, क्योंकि भारत और भारतीय इतने भोले न जितना ट्रूडो चचा समझ रहे हैं!

वास्तव में, भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और पूर्व सांसद बैजयंत जय पांडा ने इसे बड़े करीने से समझाया है।  व्यंग्य से भरपूर अपने हालिया X अकाउंट के पोस्ट में, उन्होंने प्रस्तावित किया, “कनाडा के साथ मित्रता की भावना का सम्मान करते हुए, हमें भारत में क्यूबेक स्वतंत्रता मुद्दे पर एक ऑनलाइन जनमत संग्रह की सुविधा पर विचार करना चाहिए”

परन्तु ये तो मात्र प्रारम्भ था, क्योंकि पांडा महोदय ने आगे कहा, “शायद हमें क्यूबेक स्वतंत्रता आंदोलन के आयोजनों के लिए उनके बलिदानों (फिर से, जैसे कनाडा खालिस्तानियों को अनुमति देने के लिए इतना विचारशील रहा है) के लिए भारतीय मिट्टी की पेशकश भी करनी चाहिए। यह भी अलंकृत होगा हमारे दोनों देशों में मुक्त भाषण की भावना को बहुत महत्व दिया जाता है, और यह एक स्वतंत्र क्यूबेक के लिए बढ़ते समर्थन को स्पष्ट करने में मदद करेगा (जैसा कि इस साल की शुरुआत में मीडिया में बताया गया था)।” अरे पांडा जी, इतना भी सत्य नहीं बोलना था!

इसलिए, यदि अंकल ट्रूडो ने सोचा कि वह वैश्विक कूटनीति के पोस्टर बॉय बन सकते हैं, तो उन्हें पुनर्विचार करना चाहिए। हमारे देश ने दुनिया को दिखा दिया है कि समय आने पर  ‘शक्तिशाली अमेरिका’ भी हमारे पथ से हमें डिगा नहीं सकता, तो फिर कनाडा किस खेत की मूली ठहरी?

मजे की बात तो ये है कि क्यूबेक की आजादी के लिए प्रयासरत लोग भी भारत की हालिया रुचि की सराहना कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, इस पोस्ट को लें, जहां एक उपयोगकर्ता टिप्पणी करता है, “बड़े भारतीय मीडिया आउटलेट अब सहानुभूतिपूर्ण तरीके से क्यूसी स्वतंत्रता के बारे में रिपोर्ट कर रहे हैं, यह अतीत की तुलना में एक बड़ा बदलाव है जहां भारत या तो उदासीन था या इसके विरुद्ध था। ट्रूडो और कनाडा ने अनजाने में हमारी मदद की है, और मैं इसके लिए उन्हें धन्यवाद देता हूं।” ऐसे तो संभल चुके कनेडा ट्रूडो चचा!

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अब क्या होगा ट्रूडो का?

जब से ट्रूडो ने बिना किसी ठोस आधार के भारत पर हरदीप सिंह निज्जर की ‘हत्या’ का आरोप लगाया है, तभी से भारत ने ठान लिया है कि ट्रूडो महोदय को ऐसे ही न जाने देंगे! और ध्यान रखें, यह तो बस शुरुआत है, ये चर्चा अभी केवल मीडिया और सोशल मीडिया तक सीमित है। कल्पना करें अगर  हमारे राजनेता  आधिकारिक मोर्चे पर “फ्री क्यूबेक” आंदोलन को आगे बढ़ाने का निर्णय ले, तो?

एक भारतीय होने के नाते हम “सर्वे भवन्तु सुखिन:” की नीति में विश्वास रखते हैं, यानि सबका कल्याण हो। हमारे मन में किसी भी राष्ट्र के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। हम वैश्विक सद्भाव को युगों युगों से महत्व देते आये हैं।

हालाँकि, आवश्यकता पड़ने पर हम अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करेंगे। जस्टिन ट्रूडो के कनाडाई प्रशासन को इसका प्रत्यक्ष सबक मिल रहा है। कूटनीति एक दोतरफा मार्ग है और भारत इस मार्ग पर दृढ़ रुख के साथ आगे बढ़ा रहा है।

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