प्रिय अंग्रेज़ों, ये 2023 है, 1943 नहीं!

इस कलोनियल हैंगओवर की कोई दवा नहीं!

“अगर ये लोग चाँद पर जा सकते हैं, तो हम इन्हे सहायता क्यों भेज रहे हैं?”

“ये इंडियंस जानते भी नहीं है कि इसका प्रभाव दुनिया के गरीबों पर क्या पड़ेगा , क्योंकि FAO और UN के वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम द्वारा चिन्हित १८ “हंगर हॉटस्पॉट्स” में स्थिति बद से बदतर होती जा रही है.”

सात दशक हो गए हैं इन्हे हमारी धरती छोड़े, फिर भी मजाल है कि अपने काम से काम रखे. आज भी इनका पनियल भोजन बिना भारत को उपदेश दिए नहीं पचता.

आज हमारा ब्रिटेन से केवल इतना कहना है, “कृपा करके ये उपदेश किसी और को दें! ये २०२३ है, १९४३ नहीं!”

कुछ आदतें जाती ही नहीं!

“India have landed on the Moon. £2.3 billion in UK aid went to India between 2016 and 2021. We don’t live in a serious country.”

‘Taxpayers are sending money to India, they are!’

इन शब्दों से ही अंग्रेज़ों की कुंठा स्पष्ट झलकती है, मानो भारत में पैसा भेजकर ये कोई विश्व कल्याण का कार्य कर रहे हैं. वो धन, जिसका उपयोग भारतीयों के लिए कदापि नहीं किया जाता. परन्तु हद तो तब हो गई, जब भारत द्वारा खाद्य सुरक्षा को लेकर किये गए कुछ बदलावों के लिए ब्रिटिश मीडिया ने भारत पर वैश्विक महंगाई और भुखमरी को बढ़ावा देने का आरोप लगाया!

ये कोई मज़ाक नहीं है. बीबीसी नामक एक मीडिया संस्था ने अपने लेख का शीर्षक रखा, “Why India’s soaring inflation is a global problem?”  अगर ये पर्याप्त नहीं था, तो इसे शेयर करते हुए सोशल मीडिया पर पोस्ट किया, “Is India exporting food inflation to the world?”

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चलिए, क्रिया प्रतिक्रिया से इतर इस लेख पर ध्यान देते हैं. कहने को ये लेख भारत की आर्थिक स्थिति पर टिप्पणी कर रही है. परन्तु भारत द्वारा आतंरिक महंगाई को रोकने के लिए उठाये गए क़दमों को लेकर ऐसा बवाल मचाया जा रहा है, मानो भारत विश्व को महंगाई एक्सपोर्ट कर रहा हो. कुछ समय पूर्व यही अंग्रेज़ हमारे वैक्सीन उत्पादन एवं हमारे स्पेस मिशन्स पर सवाल उठाते हुए कहते थे कि हमारे पास दो वक्त की रोटी भी नहीं उपलब्ध है, और अब कहते हैं कि  हम दुनिया को महंगाई एक्सपोर्ट करते हैं. भाई किसी एक के तो हो लो!

इनकी कुंठा इसीलिए भी व्यक्त हो रही है, क्योंकि भारत ने केवल प्याज़ पर एक्सपोर्ट ड्यूटी नहीं बधाई, अपितु गैर बासमती चावल के एक्सपोर्ट भी रोक लगाईं है. हमें नहीं पता था कि यूरोपीय, विशेषकर अँगरेज़ हमारे चावल के इतने शौक़ीन है.

परन्तु बात यहीं पर ख़त्म नहीं होती। International Food Policy Research Institute (IFPRI) के वरिष्ठ शोधक जोसफ डब्ल्यू ग्लोबर के अनुसार भारत संसार भर के लिए समस्याएं बढ़ा रहा है. इनकी माने तो भारत के प्रतिबन्ध के कारण थाइलैंड में चावल का भाव २० प्रतिशत तक बढ़ गया है. FAO के अनुसार भारत का बन विश्व के लिए हानिकारक है. मतलब हम मोलाराम से भी खतरनाक हो चुके हैं, और ये संगठन इंडियाना जोन्स के रूप में संसार को इस संकट से बचाना चाहते हैं? क्या यूके हमें वास्तव में इतना भोंदू समझता है?

पर छोड़िये, इन अंग्रेज़ों से तार्किक उत्तर की आशा करने माने विराट कोहली से आशा करना कि भारत को फीफा वर्ल्ड कप जिताना!

उल्टा चोर भारत को डांटे!

इन अंग्रेज़ों की कुंठा देखकर क्रोध कम, कुछ प्रश्न पहले उभर आते हैं. जिनसे अपना घर, अपना प्रशासन न सम्भल रहा हो, वो किस अधिकार से हमें उपदेश दे दे रहे हैं?

ज़्यादा दिन की बात नहीं है: एक तकनीकी खराबी आ गई. इसके कारण यूके का परिवहन बाधित हुआ. आप सोच रहे होंगे कि इसमें क्या बड़ी बात हुई? भैयाजी, एक तकनीकी खराबी के कारण पूरा का पूरा ब्रिटिश एविएशन प्रणाली ठप पड़ गया! शेड्यूल की ऐसी की तैसी हो गई, फ्लाइट्स के फ्लाइट्स अटक गए. और यूके एक संप्रभु, समृद्ध, विकसित राष्ट्र है!

ये तो कुछ भी नहीं है. यूके अपना अंतिम अमोनिया प्लांट बंद करने जा रहा है. आपको लग रहा होगा कि ये ईको फ्रेंडली उत्पादों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है. परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं है. ये अब नाइट्रोजन फर्टिलाइज़र इम्पोर्ट करेंगे. बताओ, जिसने इंडस्ट्रियल रिवोल्यूशन के नाम पर पूरे जगत में उत्पात मचाया था, वो अब छोटे संसाधनों के लिए भीख मांगने जा रहा है.

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जिस देश में गरीबी नित नए आयाम छू रही हो, जहाँ बेघरों, अपराधियों की संख्या में ज़बरदस्त वृद्धि हो रही हो, जहाँ के हेल्थकेयर जीजस भरोसे हो, वो जब भारत को उपदेश दे, तो उसी को कलियुग की संज्ञा दी गई है. ये तो वही हुआ कि एक बाइसिकिल एक सुपरसॉनिक फाइटर जेट को उपदेश दे रहा है कि स्पीड कैसे बढ़ाएं!

अभी तो हमने इनके आव्रजन नीति और इनके भारत पर बकाये पे प्रकाश भी नहीं डाला है, अन्यथा यही यूके कहीं मुंह दिखाने योग्य न होता. इन अंग्रेज़ों ने अपनी संपत्ति हमसे और कई अन्य देशों से लूटी हुई संपत्ति से बनाई है, जिसमें अकेले भारत से लूटे गए संसाधनों की कीमत लगभग 45 ट्रिलियन डॉलर है। अब, वे हमें गरीबी और विदेशी सहायता के बारे में समझाने की कोशिश कर रहे हैं।

इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे प्रिय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने ठीक ही कहा, “यूरोप को इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा कि यूरोप की समस्याएं दुनिया की समस्याएं हैं, लेकिन दुनिया की समस्याएं यूरोप की समस्याएं नहीं हैं।”

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