दक्षिण अफ्रीका का “क्रिकेट आरक्षण” जिसने उन्हें वैश्विक मीम बनाया

सब "क्रिकेट साउथ अफ्रीका" की कृपा है!

कल्पना करें कि अगर हमारी क्रिकेट टीम में चयन प्रतिभा, कौशल या प्रदर्शन के आधार पर नहीं, अपितु आपके अंतिम नाम या जिस समुदाय में आप पैदा हुए हैं, उसके आधार पर हो। जैसा बिहार में जातिगत जनगणना हो रही है, उसी आधार पर भारतीय क्रिकेट टीम का चयन हो!

अब आप भी सोच रहे होंगे, “क्या बकवास है?” परन्तु यही सत्य है, वो अलग बात है कि ये नीति भारत में नहीं, दक्षिण अफ्रीका में लागू है! उनकी चयन प्रक्रिया पक्षपात में इतनी उलझ गई है कि इसका असर टीम की दमदार प्रतिष्ठा पर पड़ रहा है।

दक्षिण अफ़्रीका, जो कभी अपनी अद्वितीय क्षमता और के लिए जाना जाता था, अब भयावह गिरावट का साक्षी बन रहा है। जिस पराजित करने में ऑस्ट्रेलिया तक के पसीने छूट जाए, अब वो नीदरलैंड्स जैसे कम अनुभवी टीमों से पिट रहा है। तो आइये, दक्षिण अफ़्रीकी क्रिकेट को वैश्विक मीम में बदलने के लिए क्रिकेट दक्षिण अफ़्रीका को बधाई दे, और जाने कि कैसे ‘शोषण’ के आधार पर दक्षिण अफ्रीकी टीम अब ज़िम्बाब्वे की भांति विनाश के राह पर चल पड़ी है।

 ये टीम नहीं, मज़ाक है!

जब कोई दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट का उल्लेख करता है, तो आपके दिमाग में किसकी छवि उभरती है? ऐसी टीम की, जो लगभग हर पिच पर खेलने में सक्षम हो, बस दुर्भाग्य की मारो हो! दक्षिण अफ्रीका का उल्लेख मात्र से हर्शल गिब्स, शॉन पोलक, जैक्स कैलिस, डेल स्टेन, फाफ डु प्लेसिस और मखाया एंटिनी जैसे दिग्गजों की छवि उभरती है।

ये वे प्रतीक हैं जिन्होंने दक्षिण अफ़्रीकी क्रिकेट के समृद्ध ताने-बाने को बुना, ऐसे खिलाड़ी जिन्होंने गर्व के साथ अपनी Proteas कैप पहनी और अपने राष्ट्र को गौरव दिलाया। दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट ने अपने करिश्माई सितारों और रोमांचक मुकाबलों से क्रिकेट इतिहास के सुनहरे पन्नों में अपनी जगह बनाई। लेकिन हाल ही में, इस कहानी में एक निराशाजनक मोड़ आया है, जिसने इस विरासत को एक ट्रेजिकॉमेडी में बदल दिया है।

परन्तु ये सब हुआ कैसे? इसके पीछे का प्रमुख कारण है दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट बोर्ड यानी क्रिकेट साउथ अफ्रीका की वर्तमान चयन नीति, जहाँ योग्यता के स्थान लगभग नगण्य है! विविधता और समावेशन की अपनी खोज में, क्रिकेट दक्षिण अफ्रीका ने ऐसे नियम बनाए हैं जो अंतिम ग्यारह में गैर-श्वेत पृष्ठभूमि के कम से कम छह खिलाड़ियों की मांग करते हैं, जिसमें दो अश्वेत खिलाड़ियों का अनिवार्य कोटा होता है। ऐतिहासिक असंतुलन को दूर करने के इस सराहनीय प्रयास पर, दुर्भाग्य से, अनपेक्षित प्रभाव पड़ा है।

परिणाम? मैदान पर खिलाड़ियों की गुणवत्ता में गिरावट आई है, और यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट है। उदाहरण के लिए, टेम्बा बावुमा को लीजिए, एक ऐसा व्यक्ति जिसका क्रिकेट रिकॉर्ड बहुत उज्जवल नहीं है। एक उत्कृष्ट खिलाड़ी तो छोड़िये, इनके अंदर टीम प्लेयर की छवि भी नहीं दिखती, परन्तु फिर भी, ये दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट टीम की कमान सँभालते हैं, योग्यता गई तेल लेने!

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आइए, एक पल के लिए मान लें कि ये नीतियां समान अवसर पैदा करने के लिए शानदार ढंग से तैयार की गई हैं। फिर भी, एक प्रश्न तो बनता है – अन्य प्रतिभाशाली खिलाड़ी दक्षिण अफ्रीका छोड़कर अन्य देशों का प्रतिनिधित्व करना क्यों पसंद कर रहे हैं?

इसका उत्तर भी कहीं न कहीं दक्षिण अफ्रीका और नीदरलैंड्स के बीच हुए मैच में ही छुपा है! विजयी डच क्रिकेट टीम के पांच सदस्यों की जड़ें दक्षिण अफ़्रीकी हैं। रिलोफ वान डेर मर्व, कॉलिन एकरमैन, साइब्रांड एंगेलब्रेक्ट, तेज गेंदबाज रयान क्लेन और रिजर्व विकेटकीपर वेस्ले बर्रेसी सभी दक्षिण अफ्रीका से नाता रखते हैं। यह लगभग वैसा ही है जैसे दक्षिण अफ्रीका की हानि दुनिया का लाभ बन गई है, क्योंकि इन खिलाड़ियों को कहीं और बेहतर अवसर मिलने लगे हैं।

कहाँ चली गई वो साउथ अफ्रीकी टीम?

जब आपका क्रिकेट कप्तान अपने कौशल की तुलना में अपनी निंदासी प्रवृत्ति के लिए चर्चा का केंद्र बने, तो आप जानते हैं कि सब कुछ ठीक नहीं। अरे नहीं, हम यहां पाकिस्तान के पूर्व कप्तान सरफराज खान की बात नहीं कर रहे हैं, हमारी चर्चा टेम्बा बावुमा के स्वभाव एवं इसके भावी दुष्परिणामों पर है।

अब ऐसा भी नहीं है कि टेम्बा बावुमा में पूरी तरह से प्रतिभाहीन है, लेकिन उनका आचरण, क्या ही कहें। कुछ मामलों में इनकी नीतियों को देख आप उन्हें दक्षिण अफ्रीका का ‘मोहम्मद अज़हरुद्दीन’ कह सकते हैं। अंतर बस इतना है कि अज़हरुद्दीन को कभी भी उनकी सांप्रदायिक पृष्ठभूमि के कारण स्पष्ट रूप से नहीं चुना गया था, और वे बावुमा की तुलना में प्रतिभा के भी धनी थे।

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अज़हरुद्दीन और बावुमा में कुछ अजीबोगरीब समानताएं भी हैं, जिन्हे चाहकर भी अनदेखा नहीं किया जाता! दोनों के लिए टीम जाये तेल लेने, उनका व्यक्तिगत रिकॉर्ड और आराम सर्वोपरि था! अज़हरुद्दीन के रहते भारत का रिकॉर्ड ऐसा था कि अगर ज़िम्बाब्वे भी उन्हें कूट दे, तो कोई चकित नहीं होता!

अब दक्षिण अफ़्रीकी क्रिकेट टीम भी कुछ ऐसी ही राह पर चलती दिख रही है. यह एक असंबद्ध ऑर्केस्ट्रा को बेमेल वाद्ययंत्रों के साथ सिम्फनी बजाने की कोशिश करते हुए देखने जैसा है। क्विंटन डी कॉक जैसी सबसे प्रतिभाशाली प्रतिभाओं को भी समय से पहले रिटायरमेंट के लिए मजबूर किया जाता है,।

यदि आप टेम्बा के आंतरिक क्लब का हिस्सा नहीं हैं, तो आप चयन प्रक्रिया में अदृश्य भी हो सकते हैं। क्रिकेट का मैदान सपनों का रंगमंच है और ऐसा लगता है जैसे दक्षिण अफ्रीका का सपना एक-एक विकेट के साथ धूमिल होता जा रहा है।

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