सनातन धर्म में शादियाँ अनुबंध और दिखावे से परे होती हैं। हाल ही में इस मामले पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अहम रुख अपनाते हुए ज़ोर दिया कि हिंदू विवाह सिर्फ माला और अंगूठियों के आदान-प्रदान के बारे में नहीं है। उन्होंने समझाया कि इसका महत्त्व कितना अनूठा है, और किसी विवाह को वैध और कानून द्वारा मान्यता प्राप्त होने के लिए, उसे उचित समारोहों, विशेषकर सप्तपदी अनुष्ठान का पालन करना चाहिए।
उच्च न्यायालय के फैसले ने इन अनुष्ठानों के महत्व पर प्रकाश डाला। जजमेंट में एक बात स्पष्ट थी: इन अनुष्ठानों के बिना सनातनी विवाह को “संपन्न” या कानूनी रूप से वैध नहीं माना जा सकता है।
जुड़िये हमारे साथ इलाहबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के महत्त्व और हिंदू विवाह के वास्तविक सार का पता लगाने के लिए। हम यह भी जानेंगे कि कैसे सनातन धर्म में विवाह का अर्थ प्राचीन परंपराओं का अनुसरण करना है, न कि शोबाज़ी एवं स्टेटस सिंबल जैसे तुच्छ टैग तक सीमित करना।
ऐसे निर्णय की आशा किसी को नहीं थी
आम तौर पर वर्तमान समाज, विशेषकर कुछ प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों को इस बात की बड़ी खुजली मची रहती है कि वे ‘मार्ग दिखाएं’ कि सनातनियों को कैसे जीवन जीना चाहिए। ऐसे कुछ महानुभाव हमें कोर्ट में भी दिखते हैं, परन्तु इलाहबाद हाईकोर्ट के निर्णय ने न केवल हमें सोचने पर विवश किया, अपितु हमें इनके बुद्धिमता से भी परिचित कराया।
सनातनी / हिन्दू विवाहों पर गहरा प्रभाव डालने वाले एक वर्तमान फैसले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अटूट अधिकार और स्पष्टता के साथ बात की है। यह मामला एक विवाह विवाद के इर्द-गिर्द घूमता है, जहां एक व्यक्ति ने अपने पूर्व पत्नी की कथित ‘दूसरी शादी’ को अमान्य सिद्ध करने की मांग की थी। इस कानूनी संकट से जो निकला वह हिंदू वैवाहिक परंपराओं की पवित्रता की प्रमाणिकता से कम नहीं थी।
ठोस साक्ष्यों के अभाव में पुरुष याची के दलीलों को रद्द करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अस्पष्टता के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी। उन्होंने अपने निर्णय में बताया कि कैसे हिंदू विवाह पवित्र ‘सप्तपदी’ समारोह के बिना अधूरे हैं, जिसे हिंदी में ‘सात फेरे’ भी कहा जाता है, और जहाँ वर और वधू पवित्र अग्नि के चारों ओर सात फेरे लेते हैं। अदालत ने कहा कि यह प्राचीन अनुष्ठान वैध सनातनी विवाह का मूलभूत स्तंभ है।
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अपने आधिकारिक फैसले में, अदालत ने विवाह के संदर्भ में ‘अनुष्ठान’ शब्द के सार को स्पष्ट किया। इसमें इस बात पर जोर दिया गया कि विवाह को ‘संपन्न’ करने का मतलब इसे उचित समारोहों और उचित तरीके से मनाना है। निर्धारित तरीके से किए गए इन अनुष्ठानों के बिना, किसी विवाह को कानून के तहत ‘संपन्न’ नहीं माना जा सकता है।
अदालत ने आगे कहा कि यदि कोई विवाह संबंधित पक्षों पर लागू कानून द्वारा निर्धारित कानूनी आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं है, तो यह कानून की नजर में विवाह नहीं माना जायेगा। उक्त मामले में ‘सप्तपदी’ समारोह की अनुपस्थिति वो कमी थी जिसने विवाह को अमान्य बना दिया।
माननीय उच्च न्यायालय ने अपने रुख को मजबूत करने के लिए हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 7 का भी उल्लेख किया। यह खंड स्पष्ट रूप से निर्धारित करता है कि हिंदू विवाह को संपन्न करने के लिए पारंपरिक अनुष्ठानों और समारोहों का पालन किया जाना चाहिए। इन संस्कारों के दौरान, दूल्हा और दुल्हन पवित्र अग्नि के चारों ओर एक साथ सात पवित्र कदम उठाते हैं। अंतिम चरण के साथ, विवाह को संपन्न और बाध्यकारी घोषित कर दिया जाता है।
सनातनी विवाह अलग है
देखिये, आप मानो या न मानो, परन्तु सनातन धर्म में विवाह केवल अनुबंध या स्टेटस सिंबल के तत्व नहीं हैं। वे उससे कहीं अधिक हैं।
प्रारंभिक दृष्टिकोण से, यदि हमें स्वयं जानवरों की श्रेणी में रखना है, तो विवाह विवाह न होकर प्रजनन और आनुवंशिक रेखा के संरक्षण के आसपास केंद्रित हो जाता है। फिर भी, जब हम सामाजिक चेतना के दायरे में आते हैं, तो यह कहीं अधिक गहन चीज़ में बदल जाता है – एक ऐसी संस्था जिसमें परिवार, साहचर्य और अटूट भावनात्मक समर्थन शामिल है।
विवाह के लिए प्रेरणाओं का दायरा चरम सीमाओं तक फैला हुआ है। एक छोर पर गोल्ड डिगर होते हैं, अर्थात धनोपार्जन के लिए विवाह का मार्ग अपनाने वाले। दूसरी ओर, कुछ ऐसे भी महानुभाव हैं जिनका एक विवाह से मन नहीं भरता, और ये एक स्वस्थ समाज के लिए शुभ संकेत नहीं।
अब हमारे शास्त्र और हमारे ऋषियों का विवाह पर क्या कहना है? प्राचीन काल में पत्नी सिर्फ एक जीवनसाथी नहीं बल्कि एक ‘सहधर्मिणी’ थी, जो धर्म के पथ पर सहयात्री थी। हालाँकि, जैसे-जैसे समय नदी की तरह बहता गया, इस ज्ञान की पवित्रता धूमिल होती गई, अभ्यास, समझ और यहाँ तक कि जागरूकता के क्षरण से इसकी चमक फीकी पड़ गई।
सनातन धर्म की शिक्षाओं में, वे यह स्पष्ट करते हैं: इच्छा, अहंकार, ईर्ष्या, लालच और घमंड जैसी चीजों का विवाह में कोई स्थान नहीं है। विवाह एक पवित्र बंधन है जहां आप इन सभी बुनियादी इच्छाओं को छोड़ देते हैं। सनातन धर्म में विवाह या शादी एक धार्मिक यात्रा है। यह एक जोड़े के बारे में है जो निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा करते हुए एक साथ विकसित हो रहे हैं।
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एजेंडा ही एजेंडा
यदि हम ऋषियों के इस संदेश की भावना को आत्मसात करें और उस पर अमल करें, तो हर विवाह सफल होगा, समाज समृद्ध होगा और भावी पीढ़ियों के लिए मानक ऊंचा होगा। इस तथ्य को देखते हुए कि विनाशकारी परिणामों को देखने के बावजूद, हम पश्चिमी मॉडल के नशे में धुत हैं, यह एक आसान काम नहीं होगा। हालाँकि, सही दृष्टिकोण के साथ, इस मार्ग पर चलना असंभव भी नहीं लगता।
अब, यह महत्वपूर्ण क्यों है? क्योंकि आज की दुनिया में, जहां अहंकार, वोकवाद और सांस्कृतिक टकराव अक्सर हावी रहते हैं, इलाहाबाद उच्च न्यायालय का हालिया फैसला एक मार्गदर्शक प्रकाश की तरह चमकता है। यह हमें सनातन धर्म में विवाह के गहरे अर्थ की याद दिलाता है, आशा प्रदान करता है कि सभी अराजकता के बीच, हमारा प्राचीन ज्ञान अभी भी हमें सामंजस्यपूर्ण और धार्मिक जीवन का मार्ग दिखा सकता है।
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