सुप्रीम कोर्ट में पतंजलि के प्रोडक्ट से जुड़े एक भ्रामक विज्ञापन मामले की सुनवाई चल रही है। इस मामले की सुनवाई जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ कर रही है। मामले की पिछली सुनवाई में योग गुरु रामदेव और पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड के प्रबंध निदेशक (एमडी) आचार्य बालकृष्ण की तरफ से बिना शर्त माफी मांगने के लिए दायर किए गए हलफनामों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।
मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस अमानुल्लाह ने सख्त टिप्पणी की। जस्टिस अमानुल्लाह ने इस मामले पर निष्क्रियता बरतने के लिए उत्तराखंड के राज्य लाइसेंसिंग प्राधिकरण के प्रति भी कड़ी नाराजगी जताते हुए कहा कि ‘हम आपकी बखिया उधेड़ देंगे।’ अब इस कड़ी टिप्पणी को लेकर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व सीजेआई, जजों ने नाराजगी जताई है।
जस्टिस अनानुल्लाह की टिप्पणी से अब पूर्व जज नाराज हैं। उनका कहना है कि अदालती कार्यवाही ने संयम के मानदंड स्थापित किए हैं, लेकिन जो भाषा जस्टिस ने सुनवाई के समय प्रयोग की वो सड़क पर मिलने वाली धमकी जैसी है।
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क्या कह रहे पूर्व जज?
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जजों का कहना है कि अदालत की कार्यवाही संयम और संयम के मानक स्थापित करती है। शीर्ष अदालत वैधता, संवैधानिकता और कानून के शासन के इर्द-गिर्द घूमती निष्पक्ष बहस के लिए एक मंच के रूप में कार्य करती है।
अदालत की अवमानना के डर का मतलब कानून का शासन, अदालतों की गरिमा और उनके आदेशों की पवित्रता को बनाए रखना है। पूर्व जजों का कहना है कि ‘बखिया उधेड़ देंगे’ धमकी जैसी है। यह कभी भी संवैधानिक न्यायालय के जज के उस बयान का हिस्सा नहीं हो सकता है, जिसे आगे चल कर मानक माना जाए या उसकी नजीर दी जाए।
बूटा सिंह मामले की दिलाई याद
जस्टिस अमानुल्लाह की डांट ने 24 अक्टूबर, 2005 को जस्टिस बी एन अग्रवाल की अगुवाई वाली पीठ के समक्ष कार्यवाही की यादें ताजा कर दीं। उस समय बिहार के तत्कालीन राज्यपाल, वरिष्ठ राजनेता बूटा सिंह, बार-बार बेदखली के आदेशों की अनदेखी करते हुए, दिल्ली में एक सरकारी बंगले पर अनधिकृत रूप से कब्जा कर रहे थे।
तब जज ने कहा था, ‘बिहार के राज्यपाल दिल्ली में बंगला लेकर क्या कर रहे हैं? उन्हें यहां बंगला आवंटित नहीं किया जा सकता। उन्हें बाहर फेंक दीजिए।’ पूर्व जजों और पूर्व सीजेआई ने सुझाव दिया कि खुद को आवश्यक न्यायिक आचरण से परिचित कराने के लिए जस्टिस अमानुल्लाह को सुप्रीम कोर्ट के दो निर्णयों को देखना अच्छा होगा। ये कृष्णा स्वामी बनाम भारत संघ (1992) और सी रविचंद्रन अय्यर बनाम जस्टिस ए एम भट्टाचार्जी (1995) ) केस हैं।
कृष्णा स्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संवैधानिक अदालत के जजों का आचरण समाज में सामान्य लोगों से कहीं बेहतर होना चाहिए। न्यायिक व्यवहार के मानक, बेंच के अंदर और बाहर दोनों जगह, सामान्य रूप से ऊंचे होते हैं।
ऐसा आचरण जो चरित्र, अखंडता में जनता के विश्वास को कमजोर करता है या जज की निष्पक्षता को कम बनाता है, उसे त्याग दिया जाना चाहिए। जज से यह अपेक्षा की जाती है कि वह स्वेच्छा से उच्च जिम्मेदारियों के लिए उपयुक्तता की पुष्टि करते हुए आचरण के संपूर्ण मानक स्थापित करेगा।
दूसरा मामला, रविचंद्रन केस का है जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “न्यायिक कार्यालय मूलतः एक सार्वजनिक ट्रस्ट है। इसलिए, समाज यह उम्मीद करने का हकदार है कि एक न्यायाधीश उच्च निष्ठावान, ईमानदार व्यक्ति होना चाहिए और उसके पास नैतिक शक्ति, नैतिक दृढ़ता और भ्रष्ट या द्वेषपूर्ण प्रभावों के प्रति अभेद्य होना आवश्यक है।
उससे न्यायिक आचरण में औचित्य के सबसे सटीक मानक रखने की अपेक्षा की जाती है। कोई भी आचरण जो अदालत की अखंडता और निष्पक्षता में जनता के विश्वास को कमजोर करता है, न्यायिक प्रक्रिया की प्रभावकारिता के लिए हानिकारक होगा।”