कभी केंद्र सरकार ने संसद में ये बात स्वीकार की थी कि भारत में सबसे ज्यादा खून लाल आतंक की वजह से बहता है। साल 2004 की 4 नवंबर को नए-नए प्रधानमंत्री बने डॉक्टर मनमोहन सिंह ने कहा था कि नक्सलवाद भारत की आतंरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती है। साल 2010 में दंतेवाड़ा में नक्सलियों के हमले में सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद हो गए थे और लगभग पूरी बटालियन का ही सफाया हो गया था।
नक्सलवाद उस दौर में देश के 220 जिलों में था, जिसमें 83 जिलों में उनका काफी प्रभाव था। अबूझमाड़ के जंगल कुछ सालों तक अबूझ ही थे। लेकिन पिछले कुछ महीनों में नक्सलियों की जिस तरह से कमर टूट रही है और सुरक्षा बल उनका एक के बाद एक सफाया कर रहे हैं, वो बदली हुई सरकार का, उसकी इच्छाशक्ति का और बदलती रणनीति का नतीजा है।
नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा नीत राजग सरकार ने भारत देश के सबसे बड़े दुश्मन यानी वामपंथी हिंसा से निपटने की जो रणनीति अपनाई है, वो बेहद कारगर होती दिख रही है। मोदी सरकार ने साल 2027 तक पूरे देश को लाल आतंक से मुक्ति दिलाने का लक्ष्य रखा है। ये लक्ष्य तभी पूरा हो सकता था, जब नक्सलियों को उनकी ही मांद में घुसकर न सिर्फ चुनौती दी जाए, बल्कि उनकी जड़ों पर भी करारा प्रहार किया जाए।
अब पिछले कुछ माह से नतीजे भी सामने आ रहे हैं। अकेले छत्तीसगढ़ में पिछले 4 माह में नक्सलियों के खिलाफ कई बड़े ऑपरेशन हुए हैं। इन ऑपरेशंस में सौ से ज्यादा नक्सली मारे जा चुके हैं, जिनमें शीर्ष कमांडर तक शामिल हैं, तो 400 से ज्यादा सरेंडर कर मुख्यधारा में लौट चुके हैं।
इस सफलता के पीछे क्या है वजह?
मोदी सरकार ने जब नक्सलवाद के सफाए का लक्ष्य निर्धारित किया, तब सबसे ज्यादा जिस बात पर चर्चा हुई, वो थी नक्सलियों के खिलाफ रणनीति बनाने की। ऐसे में गृह मंत्रालय ने ये तय किया कि सीमा की रखवाली के साथ ही कश्मीर में आतंकवाद का सामना कर चुके बीएसएफ और अन्य फ्रंटल अर्धसैनिक बलों को भी नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई में सामने लाया जाए।
अभी तक ये जिम्मेदारी सिर्फ सीआरपीएफ तक सीमित थी, बाकी कुछ हिस्सों में औद्योगिक इकाइयों की रक्षा के लिए सीआईएसएफ की टुकड़ियों की सहायता ली जाती थी। ऐसे में फ्रंट पर सीआरपीएफ के साथ ही बीएसएफ को भी नक्सलियों से निपटने का जब जिम्मा सौंपा गया, तब सवाल भी उठ रहे थे, लेकिन अब सभी सवालों के जवाब सामने हैं।
दरअसल, सीआरपीएफ की टीम एक निश्चित प्लानिंग के साथ ही आगे बढ़ती थी। सीआरपीएफ के साथ स्थानीय पुलिस और जंगलों में लड़ने के लिए ट्रेंड राज्यों की स्पेशल फोर्स पूरी प्लानिंग करती थी। फिर ऊपर से आदेश और लंबी सरकारी प्रक्रिया।
ऐसे में कई बार नक्सलियों को बच कर निकल जाने का मौका मिलता था। यही नहीं, नक्सलियों के जोन में न तो मोबाइल टॉवर होते थे और न ही सुरक्षा चौकियां। ऐसे में हमारे सुरक्षा बल नक्सलियों के जाल में अक्सर फंस जाते थे, लेकिन बीएसएफ को नक्सल विरोधी अभियान में शामिल करने से परिस्थितियाँ बदल गई।
फास्ट ट्रैक्ड एंटी नक्सल ऑपरेशन से सफलता
बीएसएफ को लालफीताशाही से मुक्त रखकर गृह मंत्रालय ने फास्ट ट्रैक्ड एंटी नक्सल ऑपरेशन चलाने की अनुमति दी है। ऐसे में पहले जहाँ किसी ऑपरेशन को अंजाम देने में सीआरपीएफ की टीम को काफी समय लग जाता था और नक्सलियों को संभलने का मौका मिल जाता था, वो मौका अब नहीं मिलता है।
अब बीएसएफ टारगेटेड ऑपरेशन को अंजाम देती है। बीएसएफ व अन्य सुरक्षा बलों को नए हथियारों और तकनीकी से लैस किया गया है। यही नहीं, नक्सलियों के गढ़ के आसपास भी अब सुरक्षा बलों की उपस्थिति है, खासकर अबूझमाड़ में नक्सलियों के सबसे बड़े केंद्र से महज 4 किमी की दूरी पर।
अब पहले के मुकाबले, संचार ही नहीं, यातायात की व्यवस्था और चप्पे-चप्पे पर तैनात पुलिस की चौकियाँ नक्सलियों के खात्मे में खासा योगदान दे रहे हैं। पिछले 4-5 माह में जो नतीजे सामने आए हैं, वो इन्हीं चार-5 माह की व्यवस्था नहीं है। दरअसल, गृह मंत्रालय और नक्सल प्रभावित राज्यों में साल 2022 से नई प्लानिंग के तहत जो पुलिस की चौकियाँ बनाई गई हैं, वो काफी काम आ रही हैं।
अब कॉर्डिनेटेड अटैक में नक्सलियों को संभालने का मौका नहीं दिया जा रहा है। कुछ दिनों पहले ही बीएसएफ ने एकदम तड़के नक्सलियों के एक शिविर पर धावा बोल दिया था, जिसमें 29 से ज्यादा नक्सली मार गिराए गए थे। उन नक्सलियों में ईनामी नक्सली भी शामिल थे।
उन्हें संभलने का मौका तक नहीं मिला था, हालांकि तीन तरफ से घिरे होने के बावजूद बड़ी संख्या में नक्सली भागने में सफल हो गए थे, लेकिन उस ऑपरेशन के बाद सुरक्षा बलों ने दो और बड़े ऑपरेशन चलाए, जिसमें 2 दर्जन से ज्यादा नक्सली ढेर किए जा चुके हैं।
नक्सलियों के खिलाफ चलाए गए ये बड़े अभियान
नक्सलवाद के खात्मे के लिए कभी सरकार ने स्थानीय लोगों को हथियारों से लैस करने का अभियान शुरु किया था, जिसमें सलवा जुडूम अभियान प्रमुख था। हालाँकि सरकार ने इसे कभी अपना अभियान नहीं माना, लेकिन कोर्ट से रोक लगने के बाद इस अभियान पर रोक लग गई। इसके अलावा साल 2009 में ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाया गया।
इस ऑपरेशन से नक्सलियों की घेरेबंदी में थोड़ी सफलता तो मिली, लेकिन नुकसान ज्यादा हुआ। हालांकि अब नक्सलियों के बारे में ज्यादा सूचनाएं उपलब्ध थी। ऑपरेशन ग्रीन हंट से मिले सबक के बाद ऑपरेशन प्रहार शुरू किया गया।
तीन हिस्सों में ऑपरेशन प्रहार को काफी सफलताएँ मिली, लेकिन नक्सली अपने गढ़ों में मजबूत बने रहे थे। मौजूदा समय में सुरक्षा बल नक्सली इलाकों में हॉट परस्यूट और ड्राइव फॉर हंट चला रहे हैं, जो नक्सल आतंकवाद के खिलाफ बड़ी सफलताएँ दिला रही है।
नक्सल आतंकवाद का खात्मा कब तक?
हॉट परस्यूट और ड्राइव फ़ॉर हंट के तहत अब सुरक्षा बल अलग तरीके से नक्सलियों का सफाया कर रहे हैं। पहले नक्सलियों के पास इतना समय होता था कि वो अपना पीछा कर रहे सीआरपीएफ के जवानों को घेरकर उनपर ही हमला कर देते थे, लेकिन अब सुरक्षा बल न सिर्फ उनका पीछा करते हैं, बल्कि बेहतरी मशीनरी के दम पर उनकी आईईडी से लेकर माइन्स तक का तोड़ निकाल रहे हैं।
ऐसे में माओवादियों का शिकार बनने की जगह अब सुरक्षा बल माओवादियों का थकाकर, उनका ही शिकार करते हैं। इसकी वजह से इस ऑपरेशन का सक्सेस रेट ज्यादा है। इसके अलावा जो बात इन ऑपरेशंस की सफलता में सबसे आगे आ रही है, वो है इन सुरक्षा बलों के हाथों में अत्याधुनिक हथियार, जिनको उन तक पहुँचाने का जिम्मा खुद गृह मंत्रालय उठा रहा है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय जल्द से जल्द राज्य से नक्सलियों के सफाए की बात कह रहे हैं, जिसमें दम भी नजर आता है। लेकिन नक्सलियों के लड़ने के तरीके और उनकी शैली को देखते हुए इसमें थोड़ा समय और लगने की उम्मीद है।
वैसे, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने इसी साल एक हाई-लेवल मीटिंग की थी, खासकर इस साल नक्सल आतंकवाद को कुचलने की शुरुआत से पहले की आखिरी बड़ी मीटिंग, जिसमें उन्होंने सुरक्षाबलों को पूरी छूट देते हुए नक्सलवाद के समूल नाश के लिए साल 2027 का समय फिक्स्ड कर दिया है।
ये मोदी सरकार का तीसरा कार्यकाल होगा, जब कमोवेश उसी समय भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन रहा होगा, तो दूसरी तरफ वो अपने अंदर मौजूद सबसे बड़े खतरे को भी खत्म कर चुका होगा।
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