लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे आ चुके हैं। बीजेपी की अगुवाई में एनडीए गठबंधन को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ है। हालांकि, चुनावी नतीजों में कुछ चौंकाने वाले परिणाम भी सामने आए हैं। पंजाब की दो और जम्मू-कश्मीर की एक लोकसभा सीट पर अलगाववादी नेताओं की जीत ने न केवल भारतीय राजनीति में हलचल मचाई है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं।
खडूर साहिब (पंजाब) से अमृतपाल सिंह, फरीदकोट (पंजाब) से सरबजीत सिंह खालसा और बारामूला (जम्मू-कश्मीर) से अब्दुल रशीद शेख की जीत ने भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को प्रदर्शित करने के साथ ही एक गहरे संकट का भी संकेत दिया है।
बारामूला: अलगाववादी नेता की जीत का संकेत
जम्मू-कश्मीर की बारामूला लोकसभा सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार अब्दुल रशीद शेख को 45.7 प्रतिशत मत मिले, जिससे उन्होंने जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला को पराजित किया। यह जीत एक ओर जहां लोकतंत्र की शक्ति को दर्शाती है, वहीं दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी भावनाओं की जड़ें कितनी गहरी हैं, यह भी बताती है।
अब्दुल रशीद शेख वर्तमान में गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद हैं। उनकी जीत इस बात का स्पष्ट संकेत है कि जम्मू-कश्मीर में भारत सरकार को अभी बहुत मेहनत करनी है ताकि वहां की जनता का विश्वास जीत सके।
फरीदकोट: खालिस्तानी भावना का पुनरुत्थान
फरीदकोट से सरबजीत सिंह खालसा की जीत ने पंजाब में खालिस्तानी आंदोलन की पुरानी जड़ों को पुनर्जीवित किया है। सरबजीत सिंह खालसा पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारे बेअंत सिंह का बेटा है। इस चुनाव में उन्हें 2,98,062 वोट मिले, जो 29.38% वोट शेयर के बराबर है। यह जीत न केवल उनकी व्यक्तिगत सफलता है, बल्कि यह भी बताती है कि पंजाब में खालिस्तानी भावनाएं अभी भी जीवित हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक गंभीर खतरा बन सकती हैं।
खडूर साहिब: अमृतपाल सिंह की चुनौती
खडूर साहिब में खालिस्तान समर्थक नेता अमृतपाल सिंह ने भारी मतों से जीत हासिल की। अमृतपाल सिंह को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत गिरफ्तार कर डिब्रूगढ़ जेल में रखा गया है। उन्हें 4,04,430 वोट मिले, जो 38.62% वोट शेयर के बराबर है।
अमृतपाल सिंह की जीत से यह स्पष्ट होता है कि पंजाब में खालिस्तानी समर्थक तत्व अभी भी प्रभावशाली हैं और इनका राजनीतिक प्रभाव बढ़ रहा है। अमृतपाल सिंह खुद को खालिस्तानी आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाले की तरह पेश करता है और उसका दावा है कि वह ड्रग्स के खिलाफ अभियान चला रहा है। लेकिन उसकी असली मंशा खालिस्तान आंदोलन को पुनर्जीवित करना है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरनाक संकेत है।
संवेदनशील संसदीय दस्तावेजों तक पहुंच का खतरा
सांसद बनने के बाद इन तीनों नेताओं को केंद्र सरकार के संवेदनशील दस्तावेजों तक पहुंच मिल जाएगी, जिन तक आम जनता की पहुंच नहीं होती। इन दस्तावेजों का उपयोग लंबे समय में जनता की भावनाओं को प्रभावित करने के लिए किया जा सकता है।
ऐसे में यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि इन नेताओं के पास संवेदनशील जानकारी तक पहुंच न हो। इससे पहले भी महुआ मोइत्रा के मामले में देखा गया था कि किस तरह से सांसदों ने अपने पासवर्ड अनधिकृत व्यक्तियों के साथ साझा किए थे, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो सकता है।
लोकतंत्र और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच संतुलन की जरूरत
स्वतंत्र उम्मीदवारों की सफलता निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया का प्रमाण है, लेकिन अलगाववादी नेताओं की जीत राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती है। इन नेताओं की अलगाववादी और खालिस्तान समर्थक विचारधाराएं देश की अखंडता और शांति को बाधित कर सकती हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बनाए रखते हुए सरकार को उन मुद्दों पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए, जिनके कारण अलगाववादी और चरमपंथी विचारधाराओं को बढ़ावा मिल रहा है।
अब्दुल रशीद शेख, सरबजीत सिंह खालसा और अमृतपाल सिंह की जीत राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति एक चेतावनी है। यह आवश्यक है कि लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए सुरक्षा उपायों को मजबूत किया जाए ताकि ऐसे तत्वों को नियंत्रित किया जा सके जो राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए खतरा बन सकते हैं।
इन चुनावी नतीजों से यह स्पष्ट होता है कि लोकतंत्र, स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण स्तंभ होते हुए भी सतर्कता और सुरक्षा के बिना एक दोधारी तलवार की तरह हो सकता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति सजग रहकर ही लोकतंत्र की सच्ची शक्ति को बनाए रखा जा सकता है।
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