सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय विचार के जागरण का पर्व- गणेश चतुर्थी

सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक उत्सव और स्वतंत्रता आंदोलन में गणपति की महत्वपूर्ण भूमिका को जानना आवश्यक है

हिन्दू मान्यता के अनुसार हर अच्छी शुरूआत व हर मांगलिक कार्य का शुभारम्भ भगवान गणेश के पूजन से किया जाता है। गणेश शब्द का अर्थ होता है जो समस्त जीव जाति के ईश अर्थात् स्वामी हो। गणेश जी को विनायक भी कहते हैं। विनायक शब्द का अर्थ है विशिष्ट नायक। ऐसा व्यक्ति जो समाज को नयी दिशा देता है और लोगों को साथ लेकर चलता है। वैदिक मत में सभी कार्य के आरम्भ जिस देवता का पूजन से होता है वही विनायक है। गणेश चतुर्थी के पर्व का आध्यात्मिक एवं धार्मिक महत्त्व है। मान्यता है कि वे समस्त कष्टों के नाश करने और मंगलमय वातावरण बनाने वाले हैं।
भारत त्योहारों का देश है और गणेश चतुर्थी उन्हीं त्योहारों में से एक है। गणेशोत्सव को 10 दिनों तक बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। इस त्योहार को गणेशोत्सव या विनायक चतुर्थी भी कहा जाता है। गणेश चतुर्थी का त्योहार महाराष्ट्र, गोवा, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु सहित पूरे भारत में काफी जोश के साथ मनाया जाता है। किन्तु महाराष्ट्र में विशेष रूप से मनाया जाता है। पुराणों के अनुसार इसी दिन भगवान गणेश का जन्म हुआ था। गणेश चतुर्थी पर भगवान गणेशजी की पूजा की जाती है। कई प्रमुख जगहों पर भगवान गणेश की बड़ी-बड़ी प्रतिमायें स्थापित की जाती है। इन प्रतिमाओं का नौं दिन तक पूजन किया जाता है। बड़ी संख्या में लोग गणेश प्रतिमाओं का दर्शन करने पहुंचते है। नौ दिन बाद गणेश प्रतिमाओं को समुद्र, नदी, तालाब में विसर्जित किया जाता है।

गणेश चतुर्थी से जुड़ी कहानी – शिवपुराण में रुद्रसंहिता के चतुर्थ खण्ड में वर्णन है कि माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपने मैल से एक बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वारपाल बना दिया था। भगवान शिव ने जब भवन में प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया। इस पर भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर काट दिया। इससे पार्वती नाराज हो उठीं। भयभीत देवताओं ने देवर्षि नारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया।

भगवान शिवजी के निर्देश पर विष्णुजी उत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आए। मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड़ पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया। माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गजमुख बालक को अपने हृदय से लगा लिया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्र पूज्य होने का वरदान दिया।
गणेश चतुर्थी का स्वतन्त्रता आंदोलन में योगदान- देश की आजादी के आन्दोलन में गणेश उत्सव की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी। 1894 मे अंग्रेजों ने भारत मे एक कानून बना दिया था जिसे धारा 144 कहते हैं जो अब भारतीय न्याय संहिता मे धारा 187 कर दी गयी है । इस कानून मे किसी भी स्थान पर 5 से अधिक व्यक्ति इकट्ठे नहीं हो सकते थे और न ही समूह बनाकर कहीं प्रदर्शन कर सकते थे।
महान क्रांतिकारी बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1882 में वन्देमातरम नामक एक गीत लिखा था जिस पर भी अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंध लगा कर गीत गाने वालों को जेल मे डालने का फरमान जारी कर दिया था। इन दोनों बातों से लोगो मे अंग्रेजो के प्रति बहुत नाराजगी थी। लोगो मे अंग्रेजो के प्रति भय को खत्म करने और इस कानून का विरोध करने के लिए महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य तिलक ने गणपति उत्सव की स्थापना की और सबसे पहले पुणे के शनिवारवाड़ा मे गणपति उत्सव का आयोजन किया।

1894 से पहले लोग अपने अपने घरों में गणपति उत्सव मनाते थे। लेकिन 1894 के बाद इसे सामूहिक तौर पर मनाने लगे। पुणे के शनिवारवडा के गणपति उत्सव मे हजारों लोगों की भीड़ उमड़ी। लोकमान्य तिलक ने अंग्रेजों को चेतावनी दी कि हम गणपति उत्सव मनाएंगे और अंग्रेज पुलिस उन्हे गिरफ्तार करके दिखाये। कानून के मुताबिक अंग्रेज पुलिस किसी राजनीतिक कार्यक्रम मे एकत्रित भीड़ को ही गिरफ्तार कर सकती थी परंतु किसी धार्मिक समारोह मे उमड़ी भीड़ को नहीं।
20 अक्तूबर 1894 से 30 अक्तूबर 1894 तक पहली बार 10 दिनों तक पुणे के शनिवारवाड़ा में गणपति उत्सव मनाया गया। लोकमान्य तिलक वहां भाषण के लिए हर दिन किसी बड़े नेता को आमंत्रित करते थे। 1895 में पुणे के शनिवारवाड़ा में 11 गणपति स्थापित किए गए। उसके अगले साल 31 और अगले साल ये संख्या 100 को पार कर गई। फिर धीरे – धीरे महाराष्ट्र के अन्य बड़े शहरों अहमदनगर, मुंबई, नागपुर, थाणे तक गणपति उत्सव फैलता गया। गणपति उत्सव में हर वर्ष हजारों लोग एकत्रित होते और बड़े नेता उसको राष्ट्रीयता का रंग देने का कार्य करते थे। इस तरह लोगों का गणपति उत्सव के प्रति उत्साह बढ़ता गया और राष्ट्र के प्रति चेतना बढ़ती गई।
1904 में लोकमान्य तिलक ने लोगों से कहा कि गणपति उत्सव का मुख्य उद्देश्य स्वराज्य हासिल करना है। इसका लक्ष्य आजादी हासिल करना है और अंग्रेजों को भारत से भगाना है। आजादी के बिना गणेश उत्सव का कोई महत्व नहीं रहेगा। तब पहली बार लोगों ने लोकमान्य तिलक के इस उद्देश्य को बहुत गंभीरता से समझा। आजादी के आन्दोलन में लोकमान्य तिलक द्वारा गणेश उत्सव को लोकोत्सव बनाने के पीछे सामाजिक क्रान्ति का उद्देश्य था। लोकमान्य तिलक ने ब्राह्मणों और गैर ब्राह्मणों की दूरी समाप्त करने के लिए यह पर्व प्रारम्भ किया था जो आगे चलकर एकता की मिसाल बना।
गणेश चतुर्थी का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व- गणेश चतुर्थी समाज के सभी वर्गों के लोगों को साथ लाकर समाज में समरसता स्थापित करने का माध्यम है। यह एक ऐसा सामाजिक आयोजन है जहां ऊंच-नीच अमीर गरीब की भावना को छोड़कर लोग आपस में मिलजुल कर उत्सव में भाग लेते हैं। यही भारतीय समाज का स्वरूप है। इसी संस्कृति को जो सबको एक साथ लेकर आगे बढ़ती है को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दू संस्कृति कहता है। उसके अनुसार भारतवर्ष में पैदा हुआ हर व्यक्ति हिन्दू है चाहे वह जिस भी परंपरा या धर्म को मानने वाला हो। आरएसएस इसी माध्यम से समाज को आगे ले जाने की बात करता है। यही विचार महात्मा गांधी के सर्वोदय और दीनदयाल जी के अंतयोदय का है जो समाज के सभी लोगों के उत्थान की बात को प्राथमिकता देता है।

इस प्रकार गणेश चतुर्थी सिर्फ़ धार्मिक त्यौहार नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक और सामाजिक घटना भी है। यह भारत की विविधता और एकता को दर्शाता है, क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों, भाषाओं, जातियों, वर्गों और धर्मों के लोग इसे समान उत्साह और सम्मान के साथ मनाते हैं। यह लोगों की कलात्मक और रचनात्मक प्रतिभा को भी दर्शाता है, क्योंकि वे गणेश के विभिन्न रूपों को बनाते और प्रदर्शित करते हैं और संगीत, नृत्य और नाटक के माध्यम से अपनी भक्ति व्यक्त करते हैं। यह समुदाय और सद्भाव की भावना को भी बढ़ावा देता है, क्योंकि लोग अपने सुख और दुख साझा करते हैं, एक-दूसरे की मदद करते हैं और समाज में योगदान देते हैं। इस प्रकार गणेश चतुर्थी एक ऐसा त्योहार है जो न केवल भगवान गणेश के जन्म का उत्सव मनाता है, बल्कि एक नए भारत के जन्म का भी उत्सव मनाता है जो विविध, एकजुट, रचनात्मक, सामंजस्यपूर्ण और स्वतंत्र है।
गणेश चतुर्थी उत्सव का सांस्कृतिक महत्व
गणेश चतुर्थी पूरे भारत में मनाई जाती है तो इस प्रकार सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में बांधती है। गणेश चतुर्थी हिंदू समाज में महत्वपूर्ण सांस्कृतिक महत्व रखती है और पिछले कुछ वर्षों में यह धार्मिक सीमाओं से परे एक व्यापक रूप से मनाया जाने वाला त्योहार बन गया है। यहाँ इसके सांस्कृतिक महत्व के कुछ पहलू दिए गए हैं: 
⦁ एकता और सामाजिक बंधन को मजबूत करता है –  गणेश चतुर्थी को विभिन्न समुदायों, जातियों और पृष्ठभूमि के लोगों द्वारा उत्साह और जोश के साथ मनाया जाता है। यह लोगों को एक साथ लाता है, एकता और सांप्रदायिक सद्भाव की भावना को बढ़ावा देता है। सार्वजनिक समारोहों में अक्सर समाज के सभी वर्गों की भागीदारी होती है, जिससे सामाजिक बंधन को बढ़ावा मिलता है।
⦁ कला और रचनात्मकता को उचित अवसर प्राप्त होता है –  गणेश प्रतिमाओं का निर्माण और सजावट व्यक्तियों और समुदायों की कलात्मक प्रतिभा को प्रदर्शित करती है। मिट्टी, लकड़ी और अन्य सामग्रियों से बनी जटिल रूप से तैयार की गई मूर्तियाँ लोगों की रचनात्मक अभिव्यक्तियों को उजागर करती हैं।
⦁ पारंपरिक शिल्प को बढ़वा मिलता है –   मिट्टी की मूर्तियाँ और जटिल सजावट बनाने में पारंपरिक शिल्प कौशल शामिल है जो पीढ़ियों से चला आ रहा है। यह स्थानीय कारीगरों और शिल्पकारों को सहायता प्रदान करता है, तथा प्राचीन कौशल और तकनीकों को संरक्षित करता है।
⦁ पर्यावरण जागरूकता : हाल के वर्षों में, पर्यावरण के अनुकूल उत्सवों पर जोर बढ़ रहा है। कई समुदाय मिट्टी की मूर्तियों का चयन कर रहे हैं जो पानी में घुल जाती हैं और सजावट के लिए प्राकृतिक सामग्रियों का उपयोग करते हैं, जो पर्यावरण और टिकाऊ प्रथाओं के प्रति चिंता को दर्शाता है।
⦁ मूल्यों का प्रचार-प्रसार : भगवान गणेश के गुण – बुद्धि, विनम्रता, दयालुता और बाधाओं को दूर करने की क्षमता – व्यक्तियों के लिए प्रेरणा के स्रोत के रूप में काम करती है। यह उत्सव लोगों को अपने जीवन में इन मूल्यों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करता है।
⦁ गणेश चतुर्थी राष्ट्रीय एकता के प्रतीक का माध्यम है- : इस त्योहार को लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान प्रमुखता मिली, जिन्होंने इसे ब्रिटिश शासन के खिलाफ लोगों को एकजुट करने के लिए एक मंच के रूप में इस्तेमाल किया। राष्ट्रवाद और एकता का यह इतिहास, इस त्योहार के सांस्कृतिक महत्व को बढ़ाता है।
⦁ सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक उत्तम माध्यम है : यह त्योहार सांस्कृतिक आदान-प्रदान और समझ का एक साधन बन गया है, क्योंकि विभिन्न समुदायों और पृष्ठभूमि के लोग उत्सव में भाग लेने के लिए एक साथ आते हैं।
⦁ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुटुंब प्रबोधन योजना को मजबूत करता है –   गणेश चतुर्थी एक ऐसा समय है जब परिवार और समुदाय मिलकर जश्न मनाते हैं। यह पारिवारिक बंधनों को मजबूत करने, परंपराओं को साझा करने और स्थायी यादें बनाने का अवसर प्रदान करता है।
आयुर्वेद और स्वास्थ्य के अनुकूल – गणेश जी को हम मोदक आदि का प्रसाद अर्पण करते है। यह प्रसाद भाप में बना होता है जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए अति गुणकारी होता है। आयुर्वद में भी कहा गया है कि भाप में बना खाना सेहत के लिए अच्छा होता है। इसी तरह गुड़ जिसके अनगिनत लाभ है, भोग में ग्रहण करने से यह हमारे स्वास्थ्य के लिए बेहद अच्छा होता है। तिल जिसके अनेक गुण है वह भी प्रसाद में उपयोग होता है, जिससे दृष्टि को स्वस्थ रखने में लाभ होता है। अंग विज्ञान के अनुसार बड़ा उदर खुशहाली और समृद्धि का प्रतीक होता है।

गणेश जी के जीवन से सीख –
⦁ गणेश जी का बड़ा उदर सुखपूर्वक जिंदगी जीने के लिए अच्छी और बुरी सभी बातों को पचाने का संकेत देता है। इससे ये भी सन्देश मिलता है क़ि मनुष्य को हर बात अपने अंदर रखकर किसी भी बात का निर्णय बड़ी सूझ-बूझ के साथ लेना चाहिए व लम्बोदर स्वरुप से हमें ग्रहण करना चाहिए कि बुद्धि के द्वारा हम समृद्धि प्राप्त कर सकते हैं और सबसे बड़ी समृद्धि प्रसन्नता है।
⦁ श्री गणेश जी का एक नाम गजकर्ण भी है। अंग विज्ञान के अनुसार लंबे कान वाले व्यक्ति भाग्यशाली और दीर्घायु होते हैं। गणेश जी के कान सूप की तरह हैं और सूप का स्वभाव है क़ि वह सार को ग्रहण कर लेता है और कूड़ा करकट को उड़ा देता है। गणेश जी के कानों से यह सन्देश मिलता है कि मनुष्य को सुननी सबकी चाहिए, लेकिन अपने बुद्धि विवेक से ही किसी कार्य का क्रियान्वयन करना चाहिए।
⦁ गणेश जी का एक ही दांत है दूसरा दन्त खंडित है। बाल्यकाल में भगवान गणेश का परशुराम जी से युद्ध हुआ था। इस युद्ध में परशुराम ने अपने फरसे से भगवान गणेश का एक दांत काट दिया। तभी से ही गणेशजी एकदंत कहलाने लगेएएक दन्त होते हुए भी वे पूर्ण हैं। गणेश जी ने अपने टूटे हुए दांत को लेखनी बना लिया और इससे पूरा महाभारत ग्रंथ लिख डाला। गणेश जी अपने टूटे हुए दांत से यह सीख देते हैं कि हमारे पास जो भी संसाधन उपलब्ध हैं उसी में हमें दक्षता के साथ कार्य संपन्न करना चाहिए।

 

(डा. आलोक कुमार द्विवेदी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शनशास्ञ में पीएचडी हैं। वर्तमान में वह KSAS, लखनऊ में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं। यह संस्थान अमेरिका स्थित INADS, USA का भारत स्थित शोध केंद्र है। डा. आलोक की रुचि दर्शन, संस्कृति, समाज और राजनीति के विषयों में हैं।)

Exit mobile version