जिसकी होती थी पेरिस से तुलना, वो कैसे बन गया Ghost City? ‘आरक्षण’ के चक्कर में तबाह हो गया लेबनान

मजहबी समूहों को साधते-साधते पकड़ ली बर्बादी की राह

लेबनान, मिडल ईस्ट

लेबनान में तबाही के दृश्य, कभी हुआ करता था सुंदर देश

“लेबनान के हालात नर्क से भी बदतर हैं, हम उसे दूसरा गाजा नहीं बनने दे सकते हैं” – UN चीफ एंटेनियो गुटेरस का ये बयान लेबनान की वर्तमान स्थिति के बारे में काफी कुछ स्पष्ट कर देता है।

 

वस्तुत: लेबनान से जो तस्वीरें आ रही हैं, वो भी कुछ ऐसा ही बताती हैं। मिसाइलों के हमलों, बम धमाकों, खंडहर इमारतों और उनसे निकलते धुएं को देखकर आपको बेरूत और गाजा की तस्वीरों में खास अंतर नहीं प्रतीत होगा। दरअसल ये तस्वीरें इजराइल और हमास के बीच जारी जंग में हिजबुल्लाह की एंट्री की देन हैं।

हमास-इजराइल की जंग में हिजबुल्लाह की एंट्री

बीती 7 अक्टूबर को हमास के आतंकियों ने इजराइल पर हमला किया था। इस नृशंस हमले के बाद इजराइल ने हमास के खिलाफ युद्ध की शुरुआत कर दी। वैसे ये लड़ाई हमास और इजराइल के बीच थी, लेकिन इस्लामी उम्माह के नाम पर हिजबुल्लाह भी लड़ाई में कूद पड़ा और इजराइल के सामने एक नया फ्रंट भी खुल गया।
लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि गाजा पट्टी को खंडहर बनाने के बाद इजराइल ने अपना फोकस लेबनान की तरफ शिफ्ट कर दिया है, जैसे अब इजराइल हमास से पहले हिजबुल्लाह को खत्म कर देना चाहता है और इसीलिए पेजर और वॉकीटॉकी अटैक के जरिए हिजबुल्लाह को निशाना बनाने के बाद इजराइल लेबनान में 400 से ज्यादा मिसाइलें दाग चुका है, इन हमलों में अब तक 600 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है, कई हजार लोग घायल हैं, जबकि कई लाख लोग युद्ध के भय से विस्थापित हो चुके हैं।

युद्धग्रस्त और हिंसाग्रस्त इस देश में वैसे तो लेबनानी पाउंड चलता है, लेकिन स्थिति कुछ इस प्रकार है कि हमारा एक रुपये लेबनान में करीब एक हजार 95 रुपयों के आसपास है और एक अमेरिकी डॉलर करीब 90 हजार लेबनानी पाउंड के बराबर। फिलहाल लेबनान में न खाने को खाना है, न रोजगार और न ही शांति।

कैसे Ghost City बन गया Paris of the Middle East बेरूत

लेकिन बेरूत हमेशा ऐसा बारूदी सा शहर नहीं था। एक वक्त था जब बेरूत इतना समृद्ध और खूबसूरत था कि इसे पेरिस ऑफ द मिडिल ईस्ट कहा जाता था। लेकिन अब लेबनान एक बर्बाद देश है, जिसके उबरने की कहीं से कोई उम्मीद नजर नहीं आती। लेबनान की इस बर्बादी की वजह इजराइल के हमलों से कहीं अधिक, वो स्वयं है। इसकी वजह है यहां राजनीति का मजहबीकरण या यूं कहें कि तुष्टिकरण या आरक्षण।
भूमध्य सागर के पूर्वी छोर पर बसा लेबनान इजराइल का पड़ोसी है, और दोनो देश एक ही समुद्री रेखा को साझा करते हैं। लेबनान पर 15 सदी से लेकर 19 सदी तक तकरीबन 332 वर्षों तक ऑटोमन साम्राज्य का शासन रहा। वर्ष 1920 में यानी प्रथम विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप ऑटोमन साम्राज्य का पतन हो गया, लेबनान को स्वतंत्रता तो मिली, लेकिन ये स्वतंत्रता क्षणिक थी और जल्दी ही लेबनान पर फ्रांस का शासन हो गया। हालांकि बाद में द्वितीय विश्वयुद्ध में फ्रांस की कमजोर स्थिति का फायदा उठाते हुए लेबनान ने खुद को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया।

धार्मिक समूहों को साधने में बिखर गया लेबनान!

ये स्वतंत्रता लेबनान के लिए कुछ चुनौतियां भी लेकर आई थी। दरअसल उस वक्त लेबनान धार्मिक आधार पर बुरी तरह बंटा हुआ देश था। इस छोटे से देश में करीब डेढ़ दर्जन धर्म थे, लेकिन मुस्लिम और ईसाई दो सबसे बड़े धार्मिक समूह थे।

मुस्लिमों की संख्या करीब 56% थी, जबकि 35% ईसाई आबादी थी। हालांकि मुस्लिम आबादी भी दो वर्गों- शिया और सुन्नी में विभाजित थी और दोनों की ही जनसंख्या में हिस्सेदारी तकरीबन 28-28% है। यानी लेबनान की डेमोग्राफी को मुख्य रूप से तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है – ईसाई, शिया और सुन्नी। इन तीनों समुदायों और इनके नेताओं के बीच काफी मतभेद भी थे। ऐसे में 1943 में इनके बीच एक समझौता हुआ और इस समझौते के अनुसार इन तीनों धार्मिक गुटों के बीच सत्ता का विभाजन कर दिया गया।

समझौते के अनुसार, सुन्नियों को प्रधानमंत्री का पद मिला, जबकि ईसाई को राष्ट्रपति और शिया गुट को असेंबली के स्पीकर का पद प्राप्त हुआ। हालांकि टेक्निकली कम आबादी के बावजूद ईसाई जो कि ज्यादा संपन्न थे, उन्हें सत्ता में ज्यादा हिस्सेदारी मिली।

संसद में सीटों की संख्या ईसाइयों और मुसलमानों के बीच विभाजित है और प्रत्येक धर्म के भीतर विभिन्न संप्रदायों के बीच उनकी संख्या के अनुरूप विभाजित है। सरकारी पद और सार्वजनिक क्षेत्र के पद भी इसी प्रकार से बांटे गए हैं।

लेकिन यहां धार्मिक समूह आस्था से कहीं ज्यादा राजनीतिक शक्ति जुटाने के एक उपकरण के रूप में अधिक कार्य करते हैं। तीनों महत्वपूर्ण धार्मिक धड़ों में इस बात की कश्मकश रही है कि कौन अधिक शक्ति प्राप्त कर सकता है और अपने समुदाय के लिए अधिक कार्य कर सकता है और दुर्भाग्य से अक्सर ऐसा अन्य समुदायों और राष्ट्रीय हितों की कीमत पर होता है। लेकिन ये कोटा सिस्टम ही लेबनान की बर्बादी की वजह बन गया। हुआ यूं कि वक्त के साथ इन तीनों धड़ों के बीच मतभेद इतने बढ़ते गए कि किसी फैसले के लिए इनका एक साथ आना लगभग असंभव ही हो गया।

अगर कोई एक धड़ा कोई फैसला ले भी ले, तो बाकी के गुटों के विरोध की वजह से उसे कार्यान्वित करना मुश्किल हो जाता है। निर्णय हीनता की स्थिति कुछ ऐसी रही कि लेबनान की सरकार कभी भी बड़े फैसले ले ही नहीं सकी, तीनों नेता बस अपने अपने वर्ग के हितों को साधने, उनके तुष्टिकरण में ही जुटे रहे, और लेबनान पिछड़ता चला गया।

लेबनान में गृहयुद्ध की शुरुआत और बर्बादी का अंतहीन सिलसिला

वर्ष 1975 में चले एक लंबे सिविल वॉर ने स्थितियों को और भयावह बना दिया, हुआ ये कि इजराइल के साथ युद्ध के बाद से ही बड़ी संख्या में फिलिस्तीनी वेस्टबैंक और गाजा के इलाके से भागकर लेबनान आने लगे। इस विस्थापन से लेबनान के शिया परेशान हो गए, उन्हें लगा कि अगर फिलिस्तीनी जो कि सुन्नी अरब हैं, वो ऐसे ही लेबनान में आते रहे तो शिया हाशिये पर चले जाएंगे। कुछ यही डर ईसाइयों को भी था कि अगर ऐसा ही रहा तो वो अल्पसंख्यक हो जाएंगे और सत्ता से नियंत्रण खो देंगे।
जल्दी ही लेबनान में अलग अलग धर्मों की मिलीशिया सेनाएं बन गईं और आपस में मारकाट शुरू कर दी। ये गृहयुद्ध 15 वर्षों तक जारी रहा और जब थमा तब तक करीब 15 हजार लेबनानियों की जान जा चुकी थी, जबकि कई लाख बेघर हो चुके थे।

हिजबुल्लाह का जन्म और लेबनान की तबाही की शुरुआत

हालांकि बाद में शांति समझौते के मुताबिक ये सभी लड़ाकें नेता बन गए और लेबनान की सरकार चलाने लगे और इसी गृह युद्ध के बाद शिया लड़ाकों का संगठन हिजबुल्लाह अस्तित्व में आया। 1979 की इस्लामिक क्रांत के बाद ईरान ने एक तरह से हिजबुल्लाह को गोद ले लिया, तब से ही हिजबुल्लाह और इजराइल के बीच लड़ाइयां जारी हैं।

1982 में इजराइल हिजबुल्लाह को खत्म करने के लिए लेबनान के भीतर तक घुस गया, लेकिन करीब 20 सालों तक चली लड़ाई के बाद आखिरकार उसे ये जंग बेनतीजा छोड़कर वापस लौटना पड़ा। 2006 में दोनों के बीच एक बार फिर भीषण युद्ध हुआ, जब हिजबुल्लाह ने इजराइल पर अटैक कर दिया था और अब इजराइल के एक बार फिर लेबनान के अंदर दाखिल होने को तैयार है। ताकि हिजबुल्लाह से निपटा जा सके।
जरा सोचिए इजराइल की ये लड़ाई हिजबुल्लाह के साथ है, लेकिन हिजबुल्लाह से लड़ने के लिए वो बार बार लेबनान के अंदर घुस जाता है और लेबनान की सेनाएं या सरकार कुछ नहीं करती। न तो वो हिजबुल्लाह को मनमानी करने से रोक पाती हैं, और न ही इजराइल के खिलाफ युद्ध का ऐलान ही कर पाती है।
हिजबुल्लाह शिया गुट की तरफ से लेबनान की सरकार में भी शामिल है और वो राजनीतिक फैसलों में भी अपनी मनमर्जी चलाता है, बल्कि लेबनान के कुछ हिस्सों में वो अपनी समानांतर सरकार चलाता है।

कुल मिलाकर लेबनान की इस बर्बादी, निर्णयहीनता की वजह लेबनान की राजनीति का यही धार्मिक कोटा सिस्टम है, जिसकी वजह से लेबनान कभी एक देश की तरह रह ही नहीं पाया, सिर्फ धर्म के ठेकेदारों के बीच बंट कर रह गया, जिनके लिए उनके अपने हित ही अहम रहे, जबकि राष्ट्रीय हित गौड़ और इस बंटवारे में सबसे घाटे में लेबनान की जनता रही, जिसकी परवाह किसी को नहीं है, वो बेचारी दूसरों की लड़ाई में ही पिसती जा रही है।

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