जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं, बढ़-चढ़ कर लोग अपने मताधिकार का प्रयोग करते हुए दिखाई दे रहे हैं। मत-प्रतिशत भी 60 से ऊपर है। कॉन्ग्रेस-NC गठबंधन, भाजपा और PDP में मुख्य लड़ाई है। सबसे बड़ी बात ये है कि ये चुनाव एकदम शांति के साथ हो रहे हैं। अनुच्छेद-370 को निरस्त किए जाने के बाद पत्थरबाजी शून्य हो गई है, अलगाववादियों के हौसले पस्त हुए हैं और आतंकियों का भी सफाया हो रहा है। जम्मू कश्मीर में भारत का संविधान लागू हुआ और सही मायने में लोकतंत्र वहाँ पहुँचा। पाकिस्तान के मंसूबे नाकामयाब हो रहे हैं, दुनिया देख रही है कि जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र स्थापित हो गया है।
इन सबके बीच हमें ये भी जानने की ज़रूरत है कि कभी एक ऐसा दौर भी था जब जम्मू कश्मीर को लोकसभा चुनावों से महरूम रखा गया। 1952, 1957 और 1962 में देश भर में तो लोकसभा चुनाव हुए, लेकिन जम्मू कश्मीर की 6 सीटों के लिए कोई चुनाव नहीं हुआ। उलटे वहाँ से शेख अब्दुल्ला की ‘नेशनल कॉन्फ्रेंस’ (तब ‘जम्मू एन्ड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस’) द्वारा 6 सदस्यों को नॉमिनेट किया जाता था और दिल्ली में उन्हें सांसद का दर्जा दे दिया जाता था। यानी, सांसद जनता नहीं बल्कि शेख अब्दुल्ला चुनते थे। आज इसी इकोसिस्टम के लोग लोकतंत्र की बातें करते हैं।
1967 से पहले जनता की जगह अब्दुल्ला चुनते थे सांसद
जम्मू कश्मीर में पहली बार 1967 में लोकसभा चुनाव हुए। 1952 में 6 लोकसभा और 4 राज्यसभा सांसदों को नॉमिनेट करते हुए शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने कहा था कि सामान्य परिस्थितियों में देश भर की तरह जम्मू कश्मीर में भी चुनाव होते, लेकिन राज्य का एक हिस्सा दुश्मनों के कब्जे में होने के कारण और लोगों के भारत-पाकिस्तान के बीच बिखरे होने के कारण यहाँ निर्वाचन के लिए अलग तरीका अपनाया गया है। 1952 और 1957 में भी यही प्रक्रिया दोहराई गई। इसमें कई ऐसे लोग भी संसद में पहुँच गए जो भारत विरोधी रुख रखते थे।
जैसे, 1957 में संसद बनाए गए शेख मोहम्मद अकबर को ले लीजिए। उन्होंने भारत सरकार के साथ शेख अब्दुल्ला के हुए समझौते को नकार दिया और जम्मू कश्मीर के उस गुट का नेतृत्व किया जो वहाँ जनमत संग्रह चाहते थे। उन्हें जम्मू कश्मीर के अलगाववादी ‘स्वतंत्रता सेनानी’ बता कर याद करते हैं। इसी तरह कई अन्य अलगावादी नेता भी संसद पहुँचे। बड़ी बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट में भी सांसदों को नॉमिनेट किए जाने के खिलाफ मामला पहुँचा था, लेकिन उसने भी देशहित की बात करते हुए इस फैसले को जायज ठहराया। ये थी लोकतंत्र की स्थिति!
1966 में एक परिसीमन आयोग बनाया गया था, जिसका अध्यक्ष GL कपूर को बनाया गया था। इसमें पंजाब हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज RC सोनी और तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त KV सुंदरम को भी शामिल किया गया था। इसी कमिटी की सिफारिश के आधार पर जम्मू कश्मीर में 6 लोकसभा सीटें तय की गई थीं। 2019 में इसे केंद्र शासित प्रदेश घोषित किए जाने के बाद सीटों की संख्या 5 हो गई, लद्दाख एक अलग केंद्रशासित प्रदेश बना और उसे अलग संसदीय सीट मिली। 1989 में तो ऐसी स्थिति हो गई कि आतंकवाद और अलगाववाद के साये में चुनावों के बहिष्कार का माहौल रहा।
बारामुला और इस्लामाबाद में मात्र 5% मतदान हुआ। पत्तन इलाके में तो सिर्फ एक वोट पड़ा। इसी तरह 1991 का चुनाव तो ऐसा रहा कि जम्मू कश्मीर में जम कर खून बहे। कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर किया जा चुका था। अलगाववादी लगातार चुनावों के बहिष्कार की बातें करते थे। उसके बाद आतंकियों ने घाटी में कहर बरपाना शुरू किया। मौजूदा दौर हम देख ही रहे हैं। अनुच्छेद-370 को निरस्त किए जाने के बाद से आतंकियों का सफाया जारी है। पत्थरबाजी खत्म हो गई है। अलगाववादियों के मंसूबे कामयाब होने बंद हो गए हैं।
आज कश्मीर घाटी से जो चुनावी कवरेज के वीडियो सामने आ रहे हैं, उनमें से कई में आपत्तिजनक बातें की जा रही हैं। एक वीडियो में एक शख्स कहता हुआ दिख रहा है कि अगर उसके गाँव में मंदिर बना तो जला दिया जाएगा। वहीं अधिकतर विश्लेषक कह रहे हैं कि अनुच्छेद-370 को निरस्त किए जाने के कारण वहाँ के मुस्लिम भाजपा के खिलाफ आक्रोशित हैं और वो ‘सबक सिखाना’ चाहते हैं। IGNOU से जुड़े प्रोफेसर कपिल कुमार पूछते हैं कि अगर अनुच्छेद-370 को वापस लाने की बात की जा रही है तो क्या जन-कल्याणकारी योजनाओं का लाभ लेना वो बंद कर देंगे?
370 वापस जाएगा तो योजनाओं का लाभ भी नहीं लेंगे?
जैसे, वो पूछते हैं कि क्या मनरेगा और उज्ज्वला गैस जैसी जिन योजनाओं का लाभ पहले नहीं मिलता था क्या अब उसका फायदा उठाना वहाँ के लोग बंद कर देंगे? वो कहते हैं कि पाकिस्तान से बातचीत की सलाह दी जाती है, लेकिन 1971 के युद्ध में 93,000 पाकिस्तानी फौजियों को छोड़ दिया गया था और पाकिस्तान से जीती हुई जमीनें भी लौटा दी गई थीं, तो क्या अब इससे भी अधिक कुछ बातचीत हो सकती है? या फिर इससे भी अधिक नरमी बरती जा सकती है? कपिल कुमार पूछते हैं कि भारत अगर पाकिस्तान से बात करे तो वहाँ किससे बात करे? वहाँ की शक्तिशाली फ़ौज से? प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ से ख़ुफ़िया एजेंसी ISI से? वहाँ समाज में प्रभाव रखने वाले और भारत विरोधी बयान देने वाले मौलवियों से? या फिर उन आतंकियों से जो आए दिन भारत में हमलों को अंजाम देते हैं?
जम्मू कश्मीर में आज भारत का विधान चलता है, लेकिन एक वो समय भी था जब वहाँ का झंडा अलग था और तिरंगा नहीं फहराया जाता था। महाराजा हरि सिंह के बेटे कर्ण सिंह जब वहाँ के सदर-ए-रियासत हुआ करते थे तब जम्मू के एक कॉलेज में छात्रों ने कश्मीरी झंडे को सलामी देने से इनकार कर दिया था, जिसके बाद प्रशासन ने उनके खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी। इस दौरान वहाँ के हिन्दू नेता प्रेमचंद डोगरा ने जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी से मदद माँगी, जिसे उन्होंने स्वीकार भी किया। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कश्मीर में गिरफ्तार कर लिया गया, जहाँ उनका निधन हो गया।
1960 :: Prem Nath Dogra , Leader of Kashmir Integration Movement Being Felicitated by Jan Sangh Workers #370Gone pic.twitter.com/9wxIbBm2YP
— indianhistorypics (@IndiaHistorypic) August 6, 2019
आज तक उनकी मृत्यु की गुत्थी नहीं सुलझी है। अब जब जम्मू कश्मीर में विधानसभा चुनाव संपन्न हो गए हैं, बलिदानी श्यामा प्रसाद मुखर्जी को याद किया जाना चाहिए। शेख अब्दुल्ला की गद्दारी को याद किया जाना चाहिए।