तुर्किये के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने मंगलवार (24 सितंबर, 2024) को ‘संयुक्त राष्ट्र महासभा’ (UNGA) में अपना संबोधन दिया। इस दौरान उन्होंने UNSC (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद) में मात्र 5 देश होने से लेकर सवाल उठाए, गाजा को महिलाओं-बच्चों का सबसे बड़ा कब्रगाह बता कर फिलिस्तीन के प्रति समर्थन दिखाया। साथ ही उन्होंने चीन में उइगर मुस्लिमों पर अत्याचार के मुद्दे को भी उठाया। लेकिन, सबसे आश्चर्य की बात ये रही कि तुर्किये के राष्ट्रपति ने 2019 के बाद पहली बार संयुक्त राष्ट्र के अपने भाषण में जम्मू कश्मीर का जिक्र नहीं किया। चर्चा तो होगी – आखिर क्यों ‘बदले-बदले से सरकार नज़र आते हैं’?
जब से भारत ने जम्मू कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश घोषित किया और अनुच्छेद-370 को निरस्त किया, तब से लगातार तुर्किये संयुक्त राष्ट्र में लगातार भारत के खिलाफ बोल रहा था। 2019 में रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने कहा था कि जम्मू कश्मीर पर भारत सरकार के फैसले के बाद वहाँ के लाखों लोग नाकेबंदी में जी रहे हैं। 2020 में उन्होंने जम्मू कश्मीर को एक ज्वलंत मुद्दा बताते हुए UN के नियम-कायदों के हिसाब से समाधान की बात कही थी। 2021 में पाकिस्तान के एजेंडे का समर्थन करते हुए उन्होंने जम्मू कश्मीर को ‘संघर्ष क्षेत्र’ बताया था। 2022 में तुर्किये के राष्ट्रपति ने जम्मू कश्मीर में भारत की नीतियों को गलत बताया था। वहीं पिछले साल 2023 में रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने भारत के आंतरिक मुद्दे को हस्तक्षेप करते हुए पाकिस्तान से बातचीत करने की सलाह दी थी।
अब पिछले 6 वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है जब तुर्किये ने UNGA में जम्मू कश्मीर का मुद्दा नहीं उठाया है। इसे तुर्किये की विदेशी नीति में एक बदलाव की तरह देखा जा सकता है। भले ही उसने जम्मू कश्मीर को लेकर अपना रुख न बदला हो, लेकिन एक ऐसे वैश्विक मंच पर जहाँ वो लगातार इस मुद्दे को उठा रहा था वहाँ इसे न उठाया जाना पॉलिसी शिफ्ट के रूप में ही देखा जाएगा। इसका कारण क्या है? तुर्किये के पड़ोसियों आर्मेनिया और साइप्रस के साथ भारत के प्रगाढ़ होते रिश्ते से वो परेशान है या फिर मोदी सरकार में भारत के बढ़ते वैश्विक कद के कारण वो संबंध सुधारने के लिए ये पहल कर रहा है?
BRICS में आना चाहता है तुर्किये
आइए, देखते हैं। तुर्किये के बदले रुख से पाकिस्तान को तो परेशानी हो ही रही है, क्योंकि हर साल वो रेचेप तैय्यप अर्दोआन के बयान के बाद इसका स्वागत करते हुए भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करता था। इसका एक कारण ये भी बताया जा रहा है कि इस्लामी मुल्क BRICS में शामिल होना चाहता है, इसीलिए वो भारत से संबंध सुधार रहा है। बता दें कि ये भारत, रूस, ब्राजील, चीन और दक्षिण अफ्रीका का समूह है, जिसमें बाद में ईरान, मिस्र, इथियोपिया और UAE को भी जोड़ा गया। विश्व की 30% भूमि और 45% जनसंख्या का प्रतिनिधित्व ये देश करते हैं।
तुर्किये इसीलिए इसमें शामिल होना चाहता है क्योंकि इस समूह को भविष्य की वैश्विक अर्थव्यवस्था की धुरी के रूप में देखा जा रहा है। इसे G7 के विकल्प के रूप में देखा जाता है। EU (यूरोपियन यूनियन) ने तुर्किये को अपने समूह में शामिल करने से इनकार कर दिया है, ऐसे में तुर्किये अब दूसरे विकल्प के रूप में ब्रिक्स को देख रहा है। तुर्किये की आर्थिक स्थिति भी खराब है, ऐसे में वो गैर-पश्चिमी देशों के समूह के साथ जुड़ना चाहता है। तुर्किये काफी पहले से पश्चिमी देशों का साथी रहा है, 1952 से ही NATO का सदस्य रहा है। इस्लामी मुल्क चाहता है कि उसका कारोबार सिर्फ यूरोपियन यूनियन के भरोसे न रहे। तुर्किये ने अपना वैश्विक प्रभाव बढ़ाने के लिए रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच मध्यस्तथा की कोशिशें शुरू कर दीं, साथ ही सऊदी अरब, UAE और फिर इजिप्ट से अपने रिश्ते सुधारे।
मलेशिया ने भी जम्मू कश्मीर पर बदला रुख
शायद मलेशिया के बदले रुख को देख कर तुर्किये ने अपनी नीति बदली हो, ये भी हो सकता है। हाल ही में मलेशिया के प्रधानमंत्री अनवर इब्राहिम ने भी कहा कि जम्मू कश्मीर भारत का आंतरिक मुद्दा है। ये वही मलेशिया है, जिसके तत्कालीन प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने सितंबर 2019 में UNGA में ही कहा था कि भारत ने जम्मू कश्मीर पर आक्रमण कर के उस पर कब्ज़ा कर रखा है। भारत ने G20 की अध्यक्षता और इसके बैठकों की मेजबानी के दौरान जिस तरह से दुनिया भर में अपना कद भी बढ़ाया, उसके बाद से भारत को न चाहने वाले देश भी रिश्ते ठीक करने में लग गए हैं।
यही काम मलेशिया ने भी किया। चीन, ईरान और UAE के ब्रिक्स में होने के कारण इसे एक गुट द्वारा पश्चिमी जगत विरोधी समूह भी कहा जाता रहा है। हालाँकि, भारत और दक्षिण अफ्रीका के रिश्ते अमेरिका से अच्छे हैं। तुर्किये का मन यूरोपियन यूनियन से इसीलिए भी ऊबता जा रहा है क्योंकि फ्रांस में इमैनुअल मैक्रों हों या फिर इटली में जॉर्जिया मेलोनी, या फिर नीदरलैंड्स में ग्रीट विल्डर्स, यूरोप में लगातार दक्षिणपंथी नेताओं का उभार हो रहा है जो न केवल सत्ता में पहुँच रहे हैं बल्कि इस्लामी घुसपैठियों को लेकर भी कड़ा रुख रखते हैं। यही कारण है तुर्किये ने अब ‘खलीफा’ बनने का इरादा छोड़ दिया गया, उसे पता है कि खिलाफत वाला युग अब नहीं आ पाएगा।
यूँ तो भारत को रेचेप तैय्यप अर्दोआन या ऐसे किसी नेता के बयान से फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि भारत हमेशा से जम्मू कश्मीर को अपना आंतरिक मामला बताता रहा है। लेकिन, तुर्किये के राष्ट्रपति अब देख रहे हैं कि अगर उन्हें UAE, सऊदी अरब और मिस्र जैसे देशों से संबंध सुधारना है और मित्रता प्रगाढ़ करनी है तो उन्हें कट्टर इस्लामी रुख छोड़ना पड़ेगा। वैश्विक राजनीति में UAE या इजिप्ट मुस्लिमों की बहुलता होने के बावजूद इस तरह का रुख नहीं रखते। ऐसे में अर्दोआन अब इस्लामी नेता बनने की जगह अन्य देशों से संबंध सुधार कर अपने मुल्क की आर्थिक स्थिति को ठीक करने पर ध्यान दे रहे हैं।
साइप्रस-आर्मेनिया में भारत ने तुर्किये को घेरा
तुर्किये के रुख में बदलाव का एक अन्य कारण साइप्रस से भारत के सुधरते रिश्ते में छिपा है। तुर्किये और साइप्रस के रिश्ते अच्छे नहीं हैं। साइप्रस के उत्तरी हिस्से में तुर्किये ने अपनी फ़ौज तैनात कर रखी है। वहाँ तुर्किश कम्युनिटी के लोगों की जनसंख्या ज़्यादा है। ग्रीक कम्युनिटी देश पर शासन करती है। 1974 में साइप्रस की ग्रीक मिलिट्री ने बगावत कर सत्ता कब्जा ली, उसके बाद तुर्किये ने भी साइप्रस पर हमला बोल दिया था। द्वीपीय देश साइप्रस में सरकार की स्थापना के बावजूद तुर्किये की फ़ौज वापस नहीं गई। संयुक्त राष्ट्र ने एक ग्रीन लाइन के जरिए ग्रीक उत्तर में रह रहे साइप्रियोट्स और दक्षिण में रह रहे तुर्किश साइप्रियोट्स के बीच आगे संघर्ष को रोकने का प्रयास किया।
दिसंबर 2023 में भारत के विदेश मंत्री S जयशंकर साइप्रस गए थे। वहाँ दोनों देशों के बीच रक्षा और सैन्य के क्षेत्र में कई समझौते हुए। 15 वर्षों में ये पहला मौक़ा था जब भारत का कोई विदेश मंत्री साइप्रस पहुँचा था। साइप्रस भारत के नेतृत्व वाले ‘इंटरनेशनल सोलर अलायंस’ का भी हिस्सा बना। तुर्किये के साथ साइप्रस के विवाद में भारत ने इस छोटे से देश का साथ दिया। जो तुर्किश साइप्रियोट्स में अधिकतर सुन्नी इस्लाम को मानते हैं, ऐसे में आप इसे डेमोग्राफी विवाद से उपजा संघर्ष भी कह सकते हैं। जब तुर्की ने साइप्रस पर हमला किया था तब उसने वरोशा शहर पर भी कब्ज़ा कर लिया था, वहाँ से ग्रीक साइप्रियोट्स को भागना पड़ा था। तुर्किये द्वारा इस शहर को फिर से खोले जाने के विरोध में साइप्रस के प्रस्ताव का UN में 2021 में भारत ने समर्थन किया था।
जून 2024 में साइप्रस में हुए ‘रिफ्लेक्ट फेस्टिवल’ में भारत के स्टार्टअप्स ने भी बड़ी संख्या में हिस्सा लिया। लगातार दूसरी बार भारत के आधिकारिक पार्टनरशिप में इस कार्यक्रम का आयोजन हुआ। इस अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम का उद्घाटन भी साइप्रस में भारत के राजदूत ने किया। साइप्रस EU का भी हिस्सा है, ऐसे में उसे 2 देशों में बाँटने का सपना लिए बैठे तुर्किये को निराशा ही हाथ लगती है।
इसी तरह आर्मेनिया और तुर्किये भी 300 किलोमीटर से अधिक की सीमा साझा करते हैं, लेकिन ये सीमा पिछले 23 वर्षों से बंद पड़ी हुई है। आर्मेनिया और अजरबैजान के युद्ध में पाकिस्तान ने खुल कर अजरबैजान का साथ दिया था। अरजरबैजान जहाँ इस्लामी मुल्क है, आर्मेनिया ने ईसाई मजहब को अपना आधिकारिक रिलिजन घोषित कर रखा है। आर्मेनिया के नागोर्नो-काराबाख़ पर अजरबैजान के हमले के कारण ये युद्ध शुरू हुआ। युद्ध में तुर्किये ने अजरबैजान को हथियार दिए। 2020 के बाद भारत ने भी इसमें एंट्री ली और वो आर्मेनिया के लिए सबसे बड़ा हथियार सप्लायर बन गया। DRDO द्वारा विकसित किए गए ‘आकाश’ नामक ‘सरफेस टू एयर मिसाइल सिस्टम’ को ऑर्डर करने वाला पहला देश बना, इसके लिए 6000 करोड़ रुपए की डील हुई।
कुल मिला कर आर्मेनिया और भारत के बीच लगभग 16000 करोड़ रुपए की डिफेंस डील हुई। इससे तुर्किये के कान खड़े हो गए। एक तरफ से आर्मेनिया और एक तरफ से साइप्रस में तुर्किये को भारत ने ऐसा घेरा है कि ‘खलीफा’ बनने की चाहत लिया मुल्क कश्मीर राग भूल गया है और अब भारत के साथ करीबी रिश्ते बनाने की तरफ देख रहा है।