वर्तमान समय में, दलित, पिछड़े और सवर्ण को मुद्दा बनाकर राजनीति करना राजनीतिक दलों की आदत बन गई है। एक ओर जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबका साथ-सबका विकास की बात कर देश को एकजुट रहने की प्रेरणा देते हैं। वहीं, विपक्ष हिंदुओं को जातियों में बांटने की साजिश में लगा हुआ है। जातिगत जनगणना हो या फिर पिछड़ों और दलितों को सवर्णों से अलग बताना, कुल मिलाकर देखें तो विपक्षी पार्टियां साम, दाम, दंड, भेद लगाकर हिंदुओं को तोड़कर अपना वोट बैंक मजबूत करना चाहती हैं। आज देश में सभी वर्ग सशक्त होते जा रहे हैं। लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब देश में जातीय हिंसा की आग चरम पर थी।
जातीय हिंसा की यह आग इंदिरा गांधी के दौर में भी लगी थी। हिंसा की इस आग में नरसंहार हुआ था 44 दलितों का, जिनके जिंदा जलने मामले में किसी भी व्यक्ति को सजा नहीं हुई।
ये वही दलित हैं जिनको लेकर राजनीतिक पार्टियां खासतौर से इंडी गठबंधन हो-हल्ला मचाता है। लेकिन इस गठबंधन में शामिल पार्टियां अपने शासन काल में दलितों पर हुए अत्याचारों और नरसंहारों की बात नहीं करता।
हम बात कर रहे हैं तमिलनाडु की और साल था 1968, केंद्र में इंदिरा गांधी थीं तो वहीं राज्य में डीएमके सत्ता में थी। यह वह दौर था जब तमिलनाडु में जातिगत भेदभाव चरम पर था। तमिलनाडु के तंजावुर जिले के दलित बाहुल्य किल्वेनमनी गांव में खेतिहर मजदूर रहते थे। इन मजदूरों को पेट पालने के लिए होने वाले संघर्ष के अलावा जातिगत संघर्षों से भी जूझना पड़ता था।
दिसंबर 1968 में, हाड़ कपाने वाली ठंड में भी मजदूर पेट के लिए काम करने को मजबूर थे। लेकिन उन्हें मन माफिक पैसा नहीं मिल पा रहा था। ऐसे में मजदूरों ने जमींदार गोपालकृष्ण नायडू के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करना शुरू किया। इसमें उन्हें सीपीआई (एम) का भी साथ मिला। मजदूरों का आक्रोश बढ़ता जा रहा था। इस बीच जमींदार ने दूसरे गांव से मजदूरों को बुला लिया।
दूसरे गांव से मजदूर बुलाए जाने का किल्वेनमनी गांव के दलित मजदूरों ने विरोध किया। विरोध बढ़ा तो दोनों पक्षों के बीच झड़प हो गई। इस घटना में जमींदार गोपालकृष्ण नायडू के एक आदमी की मौत हो गई। यह तारीख थी 25 दिसंबर, 1968…जमींदार ने अपने आदमी की मौत का बदला लेने का फैसला किया।
इस पूरी घटना पर किल्वेनमनी गांव के निवासी सुब्रमण्यम वीनामी कुमारन कहते हैं कि 25 दिसंबर की रात करीब 10 बजे जमींदारों के करीब 100 गुंडे पुलिस वैन में गांव में आए। उनके पास आग लगाने का सामान और पक्षियों के शिकार में उपयोग होने वाली देशी बंदूकें थीं। जमींदार के लोगों ने दलितों की झुग्गियों को घेर लिया और भागने के सभी रास्ते बंद कर दिए। इसके बाद अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। गांव के लोगों के पास खुद को बचाने के दो रास्ते थे, पहला यह कि वे वहां से भाग सकते थे और दूसरा यह कि वे गुंडों पर पत्थर से हमला कर सकते थे।
चूंकि चारों ओर से रास्ता ब्लॉक था, इसलिए भगाने की बजाय गांव के लोगों ने पत्थर से हमला कर खुद को बचाने की कोशिश की। लेकिन गोलियों के आगे उनकी एक न चली। ताबड़तोड़ फायरिंग में एक के बाद एक कई गांव वाले घायल होते चले गए। इस बीच कुछ लोग पास में बनी एक झोपड़ी में छिप गए। लोगों ने सोचा कि वे इससे बच सकते हैं, लेकिन हुआ ठीक उलट।
हुआ यह कि जमींदार नायडू के गुंडों ने उस झोपड़ी को घेर लिया और उसमें आग लगा दी, जिससे अंदर मौजूद सभी लोग जलकर मर गए। मरने वालों में 5 पुरुष, 16 महिलाएं और 23 बच्चे थे, कुल मिलाकर 44 बेगुनाह लोग काल के गाल में समा गए।
44 लोगों को जिंदा जलाने के बाद जमींदार के गुंडों ने नजदीकी पुलिस स्टेशन जाकर खुद को पीड़ित बताया और सुरक्षा की मांग करने लगे, पुलिस ने गुंडों की बात मान ली और सुरक्षा दे दी। इसके बाद क्या हुआ…?
हुआ यह कि जमींदार और उसके लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ और सजा भी हुई। सत्र न्यायालय ने आरोपितों को 10-10 साल की सजा सुनादी। लेकिन जिला कोर्ट ने सजा रद्द करते हुए बरी कर दिया। इसके बाद मामला हाई कोर्ट पहुंचा, यहां भी साल 1975 में हाई कोर्ट ने जिला कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए सभी को बरी कर दिया।
भले ही कोर्ट ने जमींदार गोपालकृष्ण नायडू को बरी कर दिया था। लेकिन कुछ लोग उसे 44 बेगुनाह लोगों की हत्या का गुनाहगार मान रहे थे। इसलिए साल 1980 में गोपालकृष्ण नायडू की हत्या कर दी गई। हत्या के आरोप में दलित वर्ग के लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। लेकिन यहां वही हुआ जो 44 लोगों की हत्या के बाद हुआ था। नायडू की हत्या का मामला मद्रास हाई तक पहुंचा। लेकिन कोर्ट ने सभी को बरी कर दिया। इस तरह से 44 दलितों को जिंदा जलाने और फिर जमींदार नायडू की हत्या के लिए किसी को भी सजा नहीं हुई।
आज पार्टियां राजनीति के लिए दलितों का भरपूर उपयोग कर रही हैं। लेकिन केंद्र में कांग्रेस की और तमिलनाडु में डीएमके की सरकार के होते हुए, 44 दलितों को जिंदा जलाए जाने की इस भयावह घटना की चर्चा भी नहीं होती। कांग्रेस के सत्ता में रहते दलितों पर हुए नरसंहार की एक पूरी लिस्ट है, जिस पर चर्चा कर खुद को दलितों का हितैषी बताने वाले लोगों का सच पर्दाफाश करना जरूरी हो गया है।